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आदिवासियों की छाती पर बांध, झंडा गाड़ने की होड़ में जुटी झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरकारें

झारखंड के दुमका में आदिवासियों के करीब 203 हेक्टेयर जमीन पर बना मसानजोर डैम को लेकर पश्चिम बंगाल सरकार और झारखंड सरकार के बीच जोर-आजमाइश चल रही है। आदिवासियों के सवालों से इतर निशाना दिशोम गुरू शिबू सोरेन हैं। विशद कुमार की रिपोर्ट :

‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज आदिवासी, जो कि संभवतया भारत के मूल निवासियों के वंशज हैं, अब देश की कुल आबादी के 8 प्रतिशत बचे हैं। वे एक तरफ गरीबी, निरक्षरता, बेरोजगारी, बीमारियों और भूमिहीनता से ग्रस्त हैं। वहीं दूसरी तरफ भारत की बहुसंख्यक जनसंख्या जो कि विभिन्न अप्रवासी जातियों की वंशज है, उनके साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है।’

जस्टिस मार्कंडेय काटजू व ज्ञानसुधा मिश्र की खंडपीठ की यह टिप्पणी, 5 जनवरी, 2011 की है, जिसकी प्रासंगिकता पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं है, झारखंड इसका मिसाल है।

भले ही अंग्रेजी हुकूमत ने आदिवासियों के हित में सीएनटी जैसा कानून बना गयी है और आजादी के बाद भी हमारी सरकार ने इसे यथावत रखा है, बावजूद कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाय तो आज भी आदिवासियों की हालत में कोई परिवर्तन नहीं हो पाया है, सिवाय इसके कि उनका राजनीतिक लाभ कैसे लिया जाय। आज सरकार भूमि अधिग्रण कानून बनाकर विकास के नाम पर आदिवासियों की जमीन हथियाकर कारपोरेट घरानों के सुपुर्द करने में प्रयासरत है, वहीं आजादी के कुछ ही सालों बाद संथालपरगना के दुमका में मसानजोर डेम बना कर क्षेत्र के 70 फिसदी आदिवासियों की जमीनें ले ली गईं, जिसका न तो उन्हें आज तक कोई मुआवजा मिला और न ही उनकी बचीखुंची कृषि लायक जमीन को सिंचाई के लिए उस डैम का पानी ही मिल रहा है।

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बता दें कि 2005-06 में वहां के विस्थापित आदिवासियों ने अपनी गई जमीन का मुआवजा एवं डेम का पानी के लिये आंदोलन किया, मगर बिना किसी परिणाम के उन्हें अपना आंदोलन बंद करना पड़ा।

बता दें कि इसी वर्ष सरकार द्वारा वहां स्टील प्लांट लगाने की तैयारी भी हुई थी। मगर पहले से ही विस्थापन का दर्द झेल रहे आदिवासियों ने इसका पुरजोर विरोध किया। फलत: सरकार को पीछे हटना पड़ा, मगर विस्थापन के उनके पुराने घाव की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ।

दूसरी बार सितंबर 2014 में चार दिनों तक इन विस्थापितों का बेमियादी आमरण अनशन चलने के बाद बिना किसी परिणाम के बंद हो गया। इस बेमियादी आमरण अनशन 11 सूत्री मांगों को लेकर ‘मसानजोर डैम विस्थापित किसान संघर्ष मोर्चा’ के बैनर तले किया गया था। जिसमें प्रियनाथ मरांडी, विजय टुडू और राम मरांडी की हालत बिगड़ गयी थी। प्रशासनिक और सरकारी उदासीनता ने उन्हें अनशन तोड़ने पर मजबूर कर दिया। बता दें कि उस वक्त राज्य में हेमंत सोरेन की सरकार थी।

आदिवासियों की धरती पर बना मसानजोर डैम

चूंकि झामुमो के सुप्रीमो शिबू सोरेन का यह संसदीय क्षेत्र है जिस पर राजनीतिक कब्जा को लेकर भाजपा अपनी रणनीति बनाती रही है मगर अभी तक उसे सफलता नहीं मिल पाई है। अत: हाल के दिनों में मसानजोर डेम को लेकर भाजपा की मंत्री लूईस मरांडी का प0 बंगाल के खिलाफ तेवर इसी राजनीति का हिस्सा है। उन्हें वहां के विस्थापित आदिवासियों की चिंता से ज्यादा दुमका पर कब्जा की चिंता है।

दिशोम गुरु और दुमका के सांसद शिबू सोरेन

उल्लेखनीय है कि झारखंड के दुमका जिला अंतर्गत मसानजोर बांध 19000 एकड़ जमीन को अपने आगोश लिए हुए है जिसके कारण 12000 एकड़ खेती लायक जमीन जलमग्न है। इस बांध ने अपने विशाल आकार को सार्थक रूप देने में दुमका के 144 मौजौं को अपने में समाहित किया है। बावजूद इस पर झारखंड का कोई जोर नहीं चलता है। इस पर मालिकाना हक सिंचाई एवं नहर विभाग, बंगाल सरकार का है। आजादी के महज तीन साल के बाद 1950 में कानाडा सरकार की मदद से इस नदी पर बांध बनाने की योजना बनी थी और 1955 में बांध बन कर तैयार हो भी गया। इसका उद्घाटन भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ0 राजेंद्र प्रसाद ने किया था। इस बीच वहां के विस्थापितों ने मुआवजे के लिए अपनी आवाज बुलंद की तो भारत सरकार की मध्यस्थता से तत्कालीन बिहार सरकार और बंगाल सरकार के बीच करार हुआ। जिसके तहत 1955 में दुमका डीसी उज्जवल कुमार घोष ने विस्थापितों की जमीन 20 साल के लिए लीज पर लेने का करार किया। साथ ही जल जमाव से जो भी फसल खराब हुई, उसके मुआवजे के तौर पर पांच रुपए प्रति मन के हिसाब से रकम दिए जाने की बात पर मुहर लगी। यह भी कहा गया कि हर 20 साल के बाद लीज का नवीकरण किया जाएगा। लेकिन हुआ कुछ नहीं। उस वक्त मुआवजे के तौर पर विस्थापितों को आधी रकम ही दी गयी। बाकी रकम तीन साल के बाद भुगतान करने की बात हुई। लेकिन तीन साल के बाद प्रशासन की ओर से किसी तरह का कोई मुआवजा नहीं दिया गया। ना ही 20 साल के बाद लीज पर ली गयी जमीन का नवीकरण किया गया। प्रशासन की तरफ से बस कुछ जमीन रानेश्वर प्रखंड में विस्थापितों को दे दी गयी।

डैम पर झंडा लगाने की होड़

हाल के दिनों में जब पश्चिम बंगाल सरकार ने डैम की दीवारों को नीले सफ़ेद रंग में रंग दिया,  जिसे देखकर झारखंड सरकार आग बबूला हो गई। नतीजा यह रहा कि झारखंड सरकार की समाज कल्याण मंत्री लुईस मरांडी ने न सिर्फ पश्चिम बंगाल सरकार को डैम से दूर रहने की हिदायत दी बल्कि धमकी भरे शब्दों में यहां तक कह दिया कि ”अगर किसी ने भी डैम की तरफ आंख उठाकर देखा तो उसकी आंखें निकाल देंगे।” जो काफी सुर्खियों में रहा। उनके इस बयान से भाजपा कार्यकर्ता जोश में आ गए और उन्होंने डेम के मुख्य द्वार पर पश्चिम बंगाल का लगा प्रतीक चिन्ह हटाकर झारखंड का प्रतीक चिन्ह लगा दिया।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबरदास

वही हुआ जिसकी संभावना पहले से व्यक्त की जा रही थी। मसानजोर डैम के मुद्दे पर पश्चिम बंगाल और झारखंड सरकार में ठन गई है। लुईस मरांडी का कहना है कि जब डैम बना था तब झारखंड के करीब 144 गांवों के लोग विस्थापित हुए थे, इसलिए बंगाल सरकार को अपना बोर्ड और होर्डिंग लगाने का कोई अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि डैम से दुमका जिले के हर व्यक्ति की भावना जुड़ी हुई है जो कि संवेदनशील मामला है। इतना ही नहीं लुईस मरांडी ने दुमका में एक प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष उन्होंने यह मुद्दा उठाया था। इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी भी लिखी है, जिसके जवाब में प्रधानमंत्री कार्यालय ने झारखंड सरकार के सिंचाई विभाग को निर्देश दिया है। और उससे 144 गांवों के विस्थापितों को चिंहित कर उनकी स्थिति का पता लगाने को कहा है। जिसमें यह भी जानने के लिए कहा गया है कि उनका वाजिब हक मिला या नहीं।

स्वाभाविक सी बात है चूंकि मामला डैम का है तो केंद्र सरकार को भी इस विवाद को देखना होगा। खैर यह तो हुई झारखंड सरकार की बात, लेकिन इन सब बातों के बाद पश्चिम बंगाल सरकार भी भला कैसे चुप बैठती। पश्चिम बंगाल सरकार के सिंचाई मंत्री सोमेन महापात्र  ने मसानजोर डैम को पश्चिम बंगाल के नियंत्राधीन करार देते हुए कहा कि “झारखंड के मंत्री का बयान भाजपा की संस्कृति के अनुरूप है। वह उसे महत्व नहीं देते हैं। महापात्रा ने कहा कि “1950 में पश्चिम बंगाल सरकार और बिहार सरकार के बीच हुए समझौते के तहत यह डैम भले ही झारखंड के दुमका में है, लेकिन इस पर नियंत्रण  पश्चिम बंगाल सरकार का है। पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा यहां के कर्मचारियों को वेतन दिये जाते हैं।“

उन्होंने कहा कि “पश्चिम बंगाल सरकार का लोगो ‘विश्व  बांग्ला’ एक वर्ष पहले डैम में लगाया गया था। उस समय झारखंड के भाजपा के  नेता कहां थे और जब डैम का रंग नीला व सादा करने का कार्य शुरू हुआ, तो इसमें बाधा पहुंचायी गयी।”

मंत्री सरयू राय ने लगाया आरोप, इन समझौतों में इस राज्य के हितों की उपेक्षा हुई

मामले पर झारखंड सरकार के कैबिनेट मंत्री सरयू राय ने मसानजोर विवाद पर मुख्यमंत्री रघुवर दास को पत्र लिखा है। पत्र में उन्होंने कहा है कि ”7 अगस्त को हुई कैबिनेट की बैठक में मंत्री लुईस मरांडी और अमर बाउरी ने अपने विचार रखे थे। इस मामले में उठ रहा विवाद समग्र सोच पर आधारित होना चाहिए। इसका समाधान झारखंड के दुमका जिला और पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिला स्तर पर संभव नहीं है। यह दोनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों, जल संसाधन मंत्रियों के स्तर पर गंभीर चर्चा के साथ होना चाहिए। इसमें 1949 और 1978 में तत्कालीन बिहार राज्य और पश्चिम बंगाल राज्य के बीच हुए द्विपक्षीय समझौतों तथा 1994 में द्वितीय बिहार राज्य सिंचाई आयोग के विश्लेषणों एवं सुझावों के महत्वपूर्ण बिंदुओं का संदर्भ लिया जाना चाहिए।”

झारखंड सरकार के मंत्री सरयू राय

मंत्री सरयू राय ने उदाहरण देते हुए कहा है कि ”1991 में गठित द्वितीय बिहार राज्य सिंचाई आयोग की जिस उपसमिति ने तत्कालीन बिहार राज्य और पड़ोसी राज्यों तथा नेपाल के बीच हुए द्विपक्षीय/ त्रिपक्षीय समझौतों पर पुनर्विचार किया था और इनमें संशोधन-परिवर्द्धन का सुझाव दिया था। मुझे उस उपसमिति का पूर्णकालीन अध्यक्ष होने का अवसर मिला था। हमने वर्तमान झारखंड राज्य के जिन जल समझौतों पर गहन अध्ययन के उपरांत विचार एवं सुझाव दिया था, उनमें दामोदर-बराकर, स्वर्णरेखा-खरकई, अजय और मयूराक्षी-सिद्धेश्वरी- नूनबिल नदियों के जल बंटवारा पर बिहार, बंगाल और ओड़िशा सरकारों के बीच हुए द्विपक्षीय/त्रिपक्षीय समझौते शामिल थे।”

राय ने कहा है कि ”आयोग ने अपनी अनुशंसा में इन सभी जल बंटवारा समझौतों में तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) सरकार को स्पष्ट सुझाव दिया था कि इन समझौतों में इस राज्य के हितों की उपेक्षा हुई है और जनहित में इनपर नये सिरे से विचार होना आवश्यक है। अफसोस है कि आयोग का प्रतिवेदन सौंपे जाने के बाद 6 वर्षों तक बिहार ने और 18 वर्षों तक झारखंड ने द्वितीय बिहार राज्य सिंचाई आयोग की अनुशंसाओं पर अमल करने में रुचि नहीं दिखायी और अब विवाद शुरू हुआ है, तो वह जनहित के मुद्दों पर आधारित नहीं है, बल्कि मसानजोर डैम की दीवार के रंग पर और सड़क पर खड़ी की जा रही होर्डिंग में राज्य का चिह्न (लोगो) के विवाद पर केंद्रित हो गया है।”

मसानजोर डैम इलाके में एक आदिवासी परिवार

सरयू राय ने पत्र में लिखा है कि ”मसानजोर डैम बनते समय बिहार और बंगाल के बीच 12 मार्च 1949 को मयूराक्षी जल बंटवारा पर पहला समझौता हुआ था। इसमें देवघर की त्रिकुट पहाड़ी से निकलकर करीब 203 किलोमीटर तक बहनेवाली मयूराक्षी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 8530 वर्ग किलोमीटर में से 2070 वर्ग किलोमीटर जलग्रहण क्षेत्र झारखंड में और शेष 6460 वर्ग किलोमीटर बंगाल में है। इसमें मसानजोर जलाशय से तत्कालीन बिहार (अब झारखंड) में 81000 हेक्टेयर जमीन की खरीफ फसल और 1050 हेक्टेयर पर रबी फसल की तथा पश्चिम बंगाल में 226720 हेक्टेयर खरीफ और 20240 हेक्टेयर रबी फसलों की सिंचाई होने का प्रावधान किया गया था। समझौता के अनुसार निर्माण, मरम्मत तथा विस्थापन का पूरा व्यय बंगाल सरकार को वहन करना है। इतना ही विस्थापितों को सिंचित जमीन भी देनी थी।”

”दूसरा समझौता 19 जुलाई 1978 को हुआ था, जिसमें मयूराक्षी के अलावा इसकी सहायक नदियों सिद्धेश्वरी और नून बिल के जल बंटवारा को भी शामिल किया गया था। इसके अनुसार मसानजोर डैम का जलस्तर कभी भी 363 फीट से नीचे नहीं आये, इसका ध्यान बंगाल सरकार को पानी लेते समय हर हालत में रखना था, ताकि झारखंड के दुमका की सिंचाई प्रभावित नहीं हो। बंगाल सरकार को एक अतिरिक्त सिद्धेश्वरी-नूनबिल डैम बनाना था, जिसमें झारखंड के लिए डैम के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र का 10000 एकड़ फीट पानी दुमका जिला के रामेश्वर क्षेत्र के लिए रिजर्व रखना था। सिंचाई आयोग ने पाया था कि मसानजोर डैम के पानी का जलस्तर हर साल 363 फीट से काफी नीचे आ जाता था, कारण कि बंगाल डैम से ज्यादा पानी लेता था। मसानजोर डैम से दुमका जिला की सिंचाई के लिए पंप लगे थे, वे हमेशा खराब रहते थे, जबकि इनकी मरम्मत बंगाल सरकार को करनी है। संक्षेप में कहा जाये, तो झारखंड सरकार में भी और उसके पहले बिहार ने भी कभी यह नहीं देखा कि मसानजोर से पानी बंटवारे के समझौता का हमेशा उल्लंघन होता रहा है और झारखंड सरकार मौन साधे रही है।”

सरयू राय ने पत्र में लिखा है कि ”आवश्यक है कि इस बारे में राज्यहित और व्यापक जनहित में द्वितीय बिहार राज्य सिंचाई आयोग के सुझावों पर अमल किया जाये, ताकि पूर्व के द्विपक्षीय समझौता में संशोधन किया जा सके। इसके लिए जल संसाधन सचिव/मुख्य सचिव/मंत्री स्तर/ मुख्यमंत्री स्तर की बैठकें झारखंड सरकार और बंगाल सरकार के बीच विभिन्न स्तर पर आयोजित करने की पहल की जाये।”

गिरफ्तारी के बाद मसानजोर में ही रखे गये थे आडवाणी : जगदानंद सिंह

वहीं बिहार के पूर्व सिंचाई मंत्री जगदानंद सिंह का कहना है कि मसानजोर डैम को लेकर चल रहे विवाद का कोई मतलब ही नहीं है। यह सभी जानते हैं कि इस डैम का निर्माण पश्चिम बंगाल के हितों को ध्यान में रखकर किया गया था। जब झारखंड हमारे हिस्से में था तब हमलोगों ने मसानजोर डैम का इस्तेमाल अपने राज्य के हितों के लिए करने का प्रयास किया था। उसे पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया गया। जगदानंद सिंह ने कहा कि आज झारखंड के भाजपाई नेता कहते हैं कि मसानजोर पर उनका अधिकार नहीं है, जबकि यह गलत बात है। मसानजोर झारखंड की जमीन पर बना है और उस पर उसका ही अधिकार है। करार के मुताबिक उसके पानी का उपयोग पश्चिम बंगाल करेगा। जब झारखंड और बिहार एक था तब हमलोगों ने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर वहीं रखा था। उनको गिरफ्तार करने से पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने पूछा कि इन्हें कहां रखा जाय। तब जगदानंद सिंह ने मसानजोर का नाम सुझाया था।

बिहार के पूर्व सिंचाई मंत्री सह पूर्व सांसद जगदानंद सिंह

जगदानंद सिंह ने बताया कि मसानजोर डैम एकमात्र देश का एकमात्र डैम नहीं है जो बना किसी और राज्य की धरती पर है और उसका लाभ किसी दूसरे राज्य को मिलता है। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि झारखंड में ही डीवीसी(दामोदर वैली कारपोरेशन) है। इसका कितना लाभ झारखंड को मिलता है। आज जो मसानजोर को लेकर हल्ला मचा रहे हैं, वे डीवीसी को लेकर आवाज क्यों नहीं उठा रहे हैं। इसका पानी भी पश्चिम बंगाल को जाता है।

चुनावी लाभ लेने की कोशिश

बहरहाल, मसानजोर डैम को लेकर बंगाल और बिहार सरकार के बीच दस बिंदुओं पर एक करार हुआ था। लेकिन, अफसोस कि बंगाल सरकार की तरफ से करार की एक भी शर्त पूरी नहीं की गयी। वहीं बिहार सरकार और झारखंड सरकार ने भी कभी करार की शर्तों को पूरा करने का काम नहीं किया। बल्कि इस पूरे मुद्दे को महज चुनावी एजेंडा बनाकर चुनाव आने से ठीक पहले उछाले जाते है और चुनाव खत्म होन के साथ ही इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है।

मसानजोर डैम का दूसरा हिस्सा : झारखंड के पानी पर पश्चिम बंगाल का कब्जा, नहीं मिलता एक बुंद पानी

पश्चिम बंगाल और बिहार के बीच करार, जो कभी पूरे नहीं हुए

24 दिसंबर 1951 को भागलपुर के कमिश्नर के रमन और मयूराक्षी योजना के एडमनिस्ट्रेटर अनिल बिहारी गांगुली के बीच जो करार हुआ था वह आज तक पूरा नहीं हो पाया है।

  1. मयूराक्षी बांध 1955 के जून महीने के पहले तैयार नहीं होगा और जब तक यह बांध नहीं बन जायेगा, मयूराक्षी जलाशय में जल नहीं भरा जायेगा। मयूराक्षी जलाशय में दुमका सदर सब-डिवीजन के कुछ गांव पूरे तौर से और कुछ गांव के केवल कुछ अंश ही डूबेंगे। लेकिन, इन गांवों के विस्थापितों को कम-से-कम छह महीने पहले सुरक्षित स्थानों पर बसा दिया जायेगा। संताल निवासियों को यदि वह चाहेंगे, तो यथासंभव संतालपरगना में ही फिर से बसा देने की पूरी चेष्टा की जायेगी।
  2. विस्थापितों की संपत्ति (घर या जमीन) मयूराक्षी जलाशय में डूबेगी, तो उसके बदले बंगाल सरकार विस्थापितों को घर और जमीन देगी। जो भी क्षति होगी, उसकी पूर्ति आदेशानुसार बंगाल सरकार करेगी। इन सब बातों के लिए बिहार सरकार ने बिहार के ही एक सरकारी कर्मचारी को नियमित किया है, जो रीसेटलमेंट अफसर कहलायेगा, जिसका कार्यकाल दुमका में ही होगा।
  3. जमीन के बदले जमीन पैदावार के हिसाब से ही दी जायेगी, न कि क्षेत्रफल के हिसाब से। विस्थापितों को जो जमीन दी जायेगी, उसके आस-पास सिंचाई की सुविधा होगी। इसके लिए वीरभूम और संतालपरगना में स्थान-स्थान पर अनुसंधान जारी है।
  4. राजनगर थाना के अंतर्गत अस्तीगढ़, टाफा, गंगापुर, सुंदरबेला और आजमनगर के गांवों में 1300 एकड़ जमीन पर ट्रैक्टर से जोत-कोड़ का काम जारी है, लगभग 400 एकड़ जमीन तैयार हो चुकी है। मयूराक्षी बांध के आस-पास रानेश्वर थाने के अंतर्गत 15 गांव में लगभग 1000 एकड़ जमीन दी जा चुकी है। जमीन के लिए अनुसंधान संतालपरगना और विभिन्न जिलों में जारी है। संभव है वीरभूम में मयूराक्षी नहरों से पटनेवाली जमीन भी लोगों से लेकर विस्थापितों को दी जाये। इस मामले में रानेश्वर थाना क्षेत्र में कुछ जमीन विस्थापितों को दी गयी। बाकी बात कागजों में ही सिमटकर रह गयी अलीगढ़ में कुछ नमूने के घर विस्थापितों के लिए बनाये गये हैं और इस साल फिर रानेश्वर थाना और राजनगर थानावाले पुनर्वास के स्थानों में नयी तरह के लगभग 100 घर बनाने की व्यवस्था की गयी है।
  5. मयूराक्षी बांध से जो बिजली उत्पन्न होगी, उससे 21 छोटे-छोटे शहर बचाने की व्यवस्था की जा रही है। इसमें बिजली से रेशम के कपड़े की बुनाई, धान कूटने और आटा पीसने आदि कार्यों का भी प्रबंध किया जायेगा। गृह उद्योग और धंधों को न शहरों में सुविधाएं और प्रोत्साहन मिलेंगे।
  6. जितने गांव मयूराक्षी जलाशय के अंतर्गत जलमग्न होंगे, उन्हें चार भागों में बांट दिया गया है। हर भाग के लिए पांच सदस्यों की एक उप समिति बनायी गयी है, जिनसे समय-समय पर विस्थापितों के पुनर्वास के संबंध में आवश्यक सलाह ली जायेगी। यह सदस्य विस्थापितों के ही प्रतिनिधि हैं। इसी तरह कुमड़ाबाद नाम का शहर बसाने के संबंध में एक अलग उपसमिति बनायी गयी है।
  7. विस्थापितों के अधिकारों की रक्षा की देखभाल के लिए 8 सदस्यों की एक बड़ी समिति काम करेगी। इसमें बिहार और बंगाल की सरकार की तरफ से 4-4 सदस्य हैं। मयूराक्षी योजना के अध्यक्ष भागलपुर डिवीजन के कमिश्नर संतालपरगना के डिप्टी कमिश्नर चीफ इंजीनियर बिहार और भी सेटलमेंट ऑफिसर भी इसके सदस्य होंगे। बहरहाल इस मामले में समिति तो बनी लेकिन उसने करार के किसी शर्त को पूरा करने में मदद नहीं की
  8. मयूराक्षी जलाशय से नहरों में जल जायेगा और नहरों से खेतों में। खेतों से अधिक से अधिक अन्न उपजाये जायेंगे। हर साल कई लाख मन अधिक धान वीरभूम, मुर्शिदाबाद और संतालपरगना जिलों में उगाये जायेंगे. इससे देश की आमदनी बढ़ेगी और वर्षा के अभाव में फसल नहीं सूखेंगे। दुमका शहर और आसपास के गांव को बिजली मिलेगी। इससे रोशनी के अतिरिक्त छोटे-छोटे गृह उद्योग-धंधों को बड़े पैमाने पर विस्तार करने में सहायता मिलेगी।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

विशद कुमार

विशद कुमार साहित्यिक विधाओं सहित चित्रकला और फोटोग्राफी में हस्तक्षेप एवं आवाज, प्रभात खबर, बिहार आब्जर्बर, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, सीनियर इंडिया, इतवार समेत अनेक पत्र-पत्रिकाओं के लिए रिपोर्टिंग की तथा अमर उजाला, दैनिक भास्कर, नवभारत टाईम्स आदि के लिए लेख लिखे। इन दिनों स्वतंत्र पत्रकारिता के माध्यम से सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन के लिए काम कर रहे हैं

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