पूँजीवादी ब्राह्मणवाद के नायक हैं अटल बिहारी वाजपेय
(अटल बिहारी वाजपेयी : 25 दिसंबर 1924 – 16 अगस्त 2018)
अटल बिहारी वाजपेयी को भाजपा दधिचि की तरह इस्तेमाल करने का प्रयास कर रही है। उनके अस्थि अवशेषों को चार हजार कलशों में भरकर देश के अलग-अलग हिस्सों में समारोहपूर्वक विसर्जित किया जा रहा है। जाहिर तौर पर उनकी यह कोशिश उन्हें महान बनाने की है। लेकिन सच यह है कि उन्होंने अपने जीवन में ऐसा कोई कार्य नहीं किया जिसके लिए उन्हें याद किया जाए। अलबत्ता प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा लिये गये निर्णयों को कारण जनता पर जो प्रतिकूल असर पड़ा, इसके लिए उन्हें जरुर याद किया जाएगा।
पिछले लगभग दस वर्षों से सक्रिय राजनीतिक जीवन से विरत व अस्वस्थ रहने वाले अटल बिहारी वाजपेयी की 16 अगस्त 2018 को मृत्यु हो गयी। उन्होंने सामान्य व्यक्ति से कहीं ज्यादा 93 वर्ष का जीवन जिया। उन्होंने 80 वर्ष की उम्र तक प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया एवं उसके पश्चात भी सक्रिय थे। वे ‘जी भर जिए और मन से मरे।’ कोई ऐसा व्यक्ति जो सामान्य परिवार में पैदा हुआ हो, भारत के प्रधानमंत्री का पद प्राप्त करे और उसकी 93 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो, तो उस व्यक्ति के जीवन को शानदार कहा जा सकता है। लेकिन जिस तरह भारतीय जनता पार्टी व मीडिया इनको महान बनाने का अभियान चला रही है वह निंदनीय तो है ही इतिहास की महान विभूतियों का अपमान भी है।
हालांकि इस अभियान में न तो भाजपा, न ही मीडिया, वाजपेयी को महान बनाने वाले तथ्यों व तर्कों का विवरण उपलब्ध करा पा रही है, सिवाय इसके कि वे कवि हृदय, प्रखर वक्ता व विरोधियों की भी पसन्द थे। जो व्यक्ति तीन बार प्रधानमंत्री रहा हो क्या उसके खाते में एक भी कार्य ऐसा नहीं है जिसको गिनाकर कहा जाये कि वाजपेयी जी ने यह कार्य किया है जिससे भारत की सामान्य जनता को लाभ हुआ है। जिस दौर में वी.पी. सिंह जैसे न्यूनतम कार्यकाल वाले प्रधानमंत्री हैं, जिन्होंने सरकारी सेवाओं में मण्डल आयोग की सिफारिशों को लागू किया, जिससे देश की लगभग 52 प्रतिशत पिछड़ी जनंसख्या के लिए अवसर की समानता का अधिकार प्राप्त हुआ। ऐसे दौर में अटल बिहारी वाजपेयी के 6 वर्ष के कार्यकाल में ऐसा कोई कार्य है जिससे सामान्य जन का भला हुआ है? उत्तर होगा नहीं।
वास्तव में वाजपेयी ने ऐसा कोई कार्य किया ही नहीं है जिसे भाजपा व मीडिया गिना सके। उल्टे उन्होंने ऐसे कई किये हैं जिससे पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों, अनुसूचित जातियों/जनजातियों, मजदूरों व नौकरीपेशा जनता के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। भाजपा जिस विचारधारा की पोषक है उसमें इसी तरह के व्यक्तियों को महान बनाया जाता है। शुरुआत राम से होती है, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी जैसे व्यक्तियों की इसी तरह महान बनाया गया।
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पीएम बनते ही एनरॉन को दिया वरदान
आइये अब वाजपेयी जी के कार्यों का विवरण देखते हैं जो उन्होंने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में किया तथा जिससे साधारण जन के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। इन कार्यों का प्रतिकूल प्रभाव ही पड़ा है वरना ये कार्य इतने बड़े हैं कि भाजपा व मीडिया इसकी चर्चा करने से अपने आपको रोक नहीं पाते। पहला कार्य उन्होंने अपने 13 दिन के कार्यकाल में किया था जब वे संवैधानिक व नैतिक रूप से सक्षम नहीं थे। क्योंकि उन्होंने केवल प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी, लोकसभा का विश्वासमत उन्हें प्राप्त नहीं हुआ था और उस लोकसभा का विश्वास उन्हें मिला भी नहीं। अन्ततः तेरहवें दिन उन्हें इस्तीफा भी देना पड़ा। वह कार्य था– एक अमेरिकी कम्पनी ‘एनरान’ को बिजली बनाने की अनुमति देना। उन्होंने न केवल अनुमति दी थी बल्कि उसके द्वारा बनायी गयी बिजली को 2.40 रुपए की दर से खरीदने की गारंटी भी दी थी और यह दर डालर का मूल्य बढ़ने के साथ बढ़ती रहनी थी। उस समय यह आकलन किया गया था कि पांच साल बाद जब एनरॉन कम्पनी बिजली बनाकर देगी तो डालर का मूल्य बढ़ा होगा और बिजली 6 से 7 रुपए प्रति यूनिट की दर से खरीदनी पड़ेगी। जबकि अन्य पब्लिक सेक्टर की कम्पनियां उस समय 00.70 से 1.50 रुपए की दर से बिजली देने को तैयार थीं। हालांकि एनराॅन कम्पनी अब बंद हो चुकी है। सवाल है कि क्या इसका उल्लेख भाजपा और मीडिया कर सकती हैं?

‘नवरत्नों’ को कौड़ियों के भाव बेचा
वाजपेयी जी को याद करने का एक और कारण हो सकता है कि उन्होंने कांग्रेस द्वारा लागू की गयी नई आर्थिक नीतियों को और तेज गति से लागू किया। नई आर्थिक नीति का एक प्रमुख घटक था निजीकरण। इसके लिए वाजपेयी जी ने एक मंत्रालय बनाया जिसका नाम रखा ‘विनिवेश मंत्रालय’। इसके मंत्री बनाये गये थे अरुण शौरी। अरुण शौरी पत्रकार थे और बाबासाहब अम्बेडकर को ‘तुच्छ व्यक्ति’ सिद्ध करने के लिए एक पुस्तक लिखी थी। किताब का नाम था – ‘वर्शिप ऑफ फाल्स गॉड’। वाजपेयी ने उनकी प्रतिभा और दृष्टि को पहचान कर सरकारी संस्थाओं को बेचने का कार्य सौंपा। भला सरकारी संस्थाओं को बेचने के लिए ‘आंबेडकर विरोधी’ व्यक्ति से बेहतर कौन हो सकता था। क्योंकि बाबासाहब राष्ट्रीयकरण के समर्थक जो थे। अरुण शौरी ने इस कार्य को बखूबी किया। अरुण शौरी ने जिन संस्थाओं को बेचा उनमें ‘बाल्को’ का मामला काफी चर्चित हुआ। दरअसल 2001 में बाल्को की 51 प्रतिशत हिस्सेदारी 551.5 करोड़ रुपए में बेची गयी। 51 प्रतिशत हिस्सेदारी बेचने का मतलब होता है मालिकाना हक बेचना। जबकि बाल्को के पास उस समय 300 करोड़ करोड़ का फिक्स डिपाजिट था और 200 करोड़ रुपए का निवेश बाल्को ने अन्य कम्पनियों में किया था। बाल्को को 551.50 रुपए करोड़ में खरीदने वाले को रु. 500.00 करोड़ फिक्स डािपोजिट और निवेश के रूप में तुरंत मिल गये। साथ ही साथ 3000 एकड़ की बाल्को की जमीन भी मिली। इस सौदे पर काफी हो–हल्ला भी हुआ। वास्तव में उस समय बाल्को की कीमत 4000 करोड़ रुपए से ज्यादा थी। जिसेऔने–पौने दाम में बेच दिया गया। क्या भाजपा और मीडिया को इसका जिक्र कर सकती है?
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सरकारी कर्मियों का पेंशन छीना
एक और कार्य का जिक्र भाजपा और ‘मीडिया को वाजपेयी के द्वारा किये गये महान कार्यों में करना चाहिए। वह कार्य है नई पेंशन योजना को लागू करना। वाजपेयी सरकार ने 1 अप्रैल 2004 के पश्चात सरकारी नौकरी पाने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए नई पेंशन योजना लागू किया। इसका भी जिक्र भाजपा और मीडिया के लोग नहीं कर रहे हैं। वे इसका जिक्र कर भी नहीं सकते। क्योंकि जैसे ही नई पेंशन योजना का जिक्र करेंगे तो सवाल खड़ा होगा कि पुरानी पेंशन योजना में क्या था, तो वाजपेयी की महानता खतरे में पड़ जायेगी। वाजपेयी सरकार ने केन्द्रीय सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के लिए 1 अप्रैल 2004 से पेंशन बन्द कर दिया। तत्पश्चात धीरे–धीरे राज्य सरकारों ने भी राज्य कर्मचारियों का पेंशन छीन लिया। केवल तमिलनाडु में राज्य कर्मचारियों को पेंशन दी जाती है शायद इसलिए कि वहां कोई ब्राह्मणवादी सत्ता में नहीं आया। पेंशन से जुड़े एक और पहलू का जिक्र यहां आवश्यक है। वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में जहां कर्मचारियों से पेंशन छीन ली गयी वहीं उन्हीं के कार्यकाल में राज्य विधानमण्डलों, लोकसभा और राज्य सभा के सभी सदस्यों के पेंशन को न केवल बढ़ाया गया बल्कि पेंशन की शर्तों में छूट भी दी गयी। 2004 में यह संशोधन लागू किया गया कि चुनाव आयोग द्वारा गजट होने के पश्चात ही माननीय सदस्यगण पेंशन पाने के हकदार हो जायेंगे, जबकि इसके पूर्व निश्चित कार्यकाल पूरा करने के पश्चात ही सदस्यगण पेंशन के हकदार होते थे।

एनरान समझौता, बाल्को विनिवेश, पेंशन बन्द करने के साथ एक और उदाहरण देना उचित होगा जिससे अटल बिहारी वाजपेयी के व्यक्तित्व की उचित समीक्षा की जा सके। वह उदाहरण है 1999 में शहरी भूमि सीलिंग एण्ड रेगुलेशन एक्ट 1976 को निरस्त करना। कानून बनाते समय इसके उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया गया था कि व्यापक जनहित में नगरीय समूह में भूमि के न्यायसंगत वितरण हेतु इस कानून को बनाया जाना आवश्यक है। क्या 1999 तक शहरी भूमि का न्यासंगत वितरण हो चुका था जो 1999 में इस कानून को निरस्त कर दिया गया?
मंडल कमीशन का किया था विरोध
जहां भाजपा और मीडिया मिलकर भी वाजपेयी को महान बनाने वाले एक कार्य का भी उल्लेख नहीं कर पा रही हो वहाँ उपरोक्त चारों कार्यों का उल्लेख वाजपेयी की प्रतिबद्धता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। यदि वाजपेयी जी पर लगे आरोपों जैसे 1942 में स्वतंत्रता सेनानियों की मुखबिरी तथा सजा माफ गवाह बनना, 1992 में बाबरी ढाँचा गिराने में भूमिका, 2002 में गुजरात दंगा के पश्चात मोदी को मुख्यमंत्री पद से बर्खस्त न करना, आदि को नजरअंदाज कर दिया जाये तो भी उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे उन्हें महान माना जाये। उन्होंने और उनके मातृ संगठन ने सामन्तों, रजवाड़ों एवं पूंजीपतियों के हित में कार्य किया है। बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीकरण का विरोध, प्रिवी पर्स समाप्त करने का विरोध, मंडल कमीशन का विरोध जैसे कार्यों से वाजपेयी की प्रतिबद्धता स्वयं सिद्ध है।
अटल बिहारी वाजपेयी ब्राह्मण जाति में पैदा हुए थे, ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्थापित करने वाले ‘मनु’को आदर्श मानते थे, वर्ण व्यवस्था को पुष्पित-पल्लवित करने वाले अदृश्य संगठन ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’की पाठशाला में शिक्षित प्रशिक्षित हुए थे, संघ की रणनीति के अनुसार ही अपने व्यक्तित्व को उदार चेहरे से ढके हुए रहते थे। उन्होंने आजीवन पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों का पक्ष लिया तथा प्रधानमंत्री बनने पर उन नीतियों को बढ़–चढ़कर लागू किया एवं जाति जनगणना के प्रस्ताव को निरस्त किया। वाजपेयी को पूंजीवादी ब्राह्मणवाद के नायक के रूप में याद किया जायेगा।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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