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रामस्वरूप वर्मा का क्रांतिकारी व्यक्तित्व और चिन्तन

एक मेहनतकश किसान जाति में जन्मे रामस्वरूप वर्मा ने एक क्रांतिकारी चिन्तक, समाज सुधारक और जनहितैषी राजनीतिज्ञ  रूप में उत्तर भारत पर गहरा असर डाला। उन्होंने अर्जक संघ और शोषित समाज दल की स्थापना की। उनके व्यक्तित्व और विचारों के बारे में बता रहे हैं, दिलीप कुमार :

  • रामस्वरूप वर्मा (जन्म : 22 अगस्त, 1923 – निधन : 19 अगस्त, 1998)      

आज का समय और महामना रामस्वरूप वर्मा के विचार

आज जब हम गहन विचार शून्यता और राजनैतिक विकल्पहीनता के  संकट के दौर से गुजर रहे हैं तथा कारर्पोरेट पूंजीवाद, छद्म बहुजनवाद, पूंजीवादी समाजवाद ने भारतीय लोकतंत्र को अपनी गिरफ्त में ले लिया हो और अपराधी संसद और विधान सभाओं पर काबिज हो गये हों, ऐसी विषम परिस्थितियों में जीवनपर्यंत विचारों, सिद्धान्तों और सामाजिक सरोकारों की राजनीति करने वाले समाजवादी राजनीतिज्ञ रामस्वरूप वर्मा और उनके विचारों का स्मरण होना बहुत स्वाभाविक है। क्योंकि आज के समय में ऐसे विचारों की कमी है अथवा व्यवहार में नहीं है।

 

साठ और सत्तर के दशक में देश और देश के प्रांतों में समाजवादियों का बोलबाला था। समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद का प्रयोग का असर दिखाई पड़ रहा था। लोहिया जी संसद में प्रतिपक्ष की राजनीति के नये प्रतिमान गढ़ रहे थे और प्रांतों में संविद सरकारें समाजवादी विचारधारा को जन्म दे रही थीं। महामना रामस्वरूप वर्मा उसी दौर की राजनीति के प्रकाश पुंज के रूप में उभरे।

रामस्वरूप वर्मा (जन्म : 22 अगस्त, 1923 – निधन : 19 अगस्त, 1998)

22 अगस्त, 1923 को कानपुर के गौरीकरन के कुर्मी जाति के एक किसान परिवार में जन्मे रामस्वरूप वर्मा जी ने राजनीति को अपने कर्मक्षेत्र के रूप में छात्र जीवन में ही चयनित कर लिया था। बावजूद इसके कि उन्होंने छात्र राजनीति में कभी हिस्सा नहीं लिया। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा कालपी और पुखरायां में हुई, जहाँ से उन्होंने क्रमश: हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण की। वर्मा जी सदैव मेधावी छात्र रहे। उन्होंने 1949 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया और इसके बाद कानून की डिग्री भी हासिल की।

प्रखर एवं प्रतिबद्ध समाजवादी रामस्वरूप वर्मा आजादी के बाद भारतीय राजनीति में उस पीढी के सक्रिय राजनेता थे, जिन्होंने विचारधारा और व्यापक जनहितों की राजनीति के लिये अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। लगभग पचास साल तक राजनीति में सक्रिय रहे रामस्वरूप वर्मा को राजनीति का कबीर कहा जाता है। 1957 में रामस्वरूप वर्मा सोशलिस्ट पार्टी से भोगनीपुर विधानसभा से उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य चुने गये, उस समय उनकी उम्र 34 वर्ष थी। 1967 में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी से, 1969 में निर्दलीय, 1980, 1989 में शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुये, 1999 में छठी बार शोषित समाज दल से विधानसभा के सदस्य चुने गये।

जनान्दोलनों में भाग लेते हुये वर्मा जी ने 1955,1957,1958,1960,1964,1969 और 1976 में 188 आई.पी.सी. की धारा 3 स्पेशल एक्ट धारा 144 डी. आई. आर. आदि के अन्तर्गत जनपद कानपुर बांदा, उन्नाव, लखनऊ तथा तिहाड़ जेल दिल्ली में राजनीतिक बंदी के रूप में सजाएं काटी। वर्मा जी ने 1967-68 में उत्तर प्रदेश की संविद सरकार  में वित्त मंत्री के रूप में 20 करोड़ के लाभ का बजट पेश कर पूरे आर्थिक जगत को अचंभे में डाल दिया। उन्होंने सदैव अपने आप को आम आदमी ही माना इसलिये आम आदमी का प्रतिनिधित्त्व करते हुये विधायकों के भत्ते बढाये जाने का हमेशा विरोध किया और इसे राजनीतिक अनैतिकता की संज्ञा दी तथा स्वयं भी बढ़े हुये भत्ते को कभी स्वीकार नही किया।

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उत्तर प्रदेश की संविद सरकार में वित्त मंत्री के रूप में उन्होंने फायदे का बजट पेश कर अर्थशास्त्र का नया इतिहास और नया व्याकरण लिखा। उन्होंने राजनीतिक कर्म से संदेश दिया कि किसान और मेहनतकश संतानों को जब भी मौका मिलेगा, वे बेहतर करके दिखायेंगे चाहे वह राजनीति का क्षेत्र क्यों न हो। उन्हें राजनीति में स्वार्थगत समझौते एवं ओहदों की दौड से सख्त नफरत थी उनका उद्देश्य एक ऐसे समाज की संरचना करना था, जिसमें हर कोई अपने पूरे मानवीय गरिमा के साथ जीवन जी सके। वे सामाजिक आर्थिक, राजनीतिक न्याय के साथ-साथ सामाजिक आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक बराबरी के प्रबल समर्थक थे। इसके लिये वे चतुर्दिक क्रांति अर्थात सामाजिक, आर्थिक राजनीतिक और सांस्कृतिक क्रांति की लड़ाई एक साथ लड़े जाने पर जोर देते थे।

वर्मा जी ने 1969 में अर्जक संघ का गठन किया और अर्जक सप्ताहिक का संपादन और प्रकाशन प्रारम्भ किया, अर्जक संघ अपने समय का सामजिक क्रांति का एक ऐसा मंच था जिसने अंधविश्वास पर न सिर्फ हमला किया बल्कि उत्तर भारत में महाराष्ट्र और दक्षिण भारत की तरह सामाजिक न्याय के आन्दोलन का बिगुल फूंका, उन्हें उत्तर भारत का आंबेडकर भी कहा गया, मंगलदेव विशारद, महराज सिंह भारती जैसे तमाम समाजवादी वर्मा जी के इस सामाजिक न्याय के आन्दोलन से जुडे और अर्जक साप्ताहिक में क्रांतिकारी वैचारिक लेख  प्रकाशित हुये। उस समय के अर्जक साप्ताहिक का संग्रह विचारों का महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है। उत्तर प्रदेश में सामाजिक बदलाव की जिस जमीन पर समाजवादी एवं बहुजनवादी नेता सत्ता की राजनीति कर रहें हैं और अपनी-अपनी सरकारें उसी मनुवादी ढर्रे पर चला रहे हैं, इस सामाजिक और राजनीतिक चेतना की पृष्ठभूमि वर्मा जी ने अर्जक संघ के आन्दोलन के जरिये तैयार की थी।

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उत्तर प्रदेश में सरकार में शामिल रहते हुए  रामस्वरूप वर्मा ने बहुत सारे कार्य किए लेकिन जनता को जितनी उम्मीदें थी, उतना नहीं कर पाए, क्योंकि जिस कौम की सामाजिक स्थिति मजबूत नही होती, वह कौम किसी भी प्रकार के संसाधन सत्ता में अपना स्थान नहीं बना पाती है। जिस प्रकार आज के दौर में पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है उसका कारण है सामाजिक मजबूती का अभाव।

बिहार के लेनिन कहे जाने वाले जगदेव बाबू ने वर्मा जी के विचारों और उनके संघर्षशील व्यक्तित्त्व से प्रभावित होकर शोषित समाज दल का गठन किया। जगदेव बाबू के राजनीतिक संघर्ष से आतंकित होकर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी हत्या करा दी। जगदेव बाबू के शहादत से शोषित समाज दल को गहरा आघात लगा, पर सामाजिक क्रान्ति की आग और तेज हुई। जगदेव बाबू बिहार के पिछडे वर्ग के किसान परिवार से थे और वे भी वर्मा जी की तरह अपने संघर्ष के बल पर बिहार सरकार में मंत्री रहे। वर्मा जी का सम्पूर्ण जीवन देश और समाज को समर्पित था उन्होंने ‘जिसमें समता की चाह नही,वह बढिया इंसान नहीं, समता बिन समाज नहीं बिन समाज जनराज नहीं’ जैसे कालजयी नारे गढे।

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राजनीति और राजनेता के बारे में एक साक्षात्कार में दिया गया उनका बयान गौरतलब है। राजनीति के बारे में उनका मानना है कि यह शुद्ध रूप से अत्यंत संवेदनशील सामाजिक कर्म है और एक अच्छे राजनेता होने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि उसे देश और स्थानीय समाज की समस्याओं की गहरी और जमीनी समझ हो और उनको हल करने की प्रतिबद्धता हो। जनता अपने नेता को अपना आदर्श मानती है इसलिये सादगी ईमानदारी सिद्धान्त को लेकर प्रतिबद्धता के साथ-साथ कर्तव्यनिष्ठा अत्यंत जरूरी है। लेकिन आज के समय के नेताओं में इस प्रकार की प्रतिबद्धता, ईमानदारी, सादगी की जगह अंहकार, कटुता, व्यक्तिवादिता ने ले ली है। जबकि इस प्रकार का व्यवहार इस शोषित समाज के लिये  खतरनाक है। इस पर भी आज के नौजवान और समाज में रह रहे प्रत्येक लोगों की जिम्मेदारी है।

वर्मा जी के विचार किसी एक मुद्दे को लेकर सीमित नही था अपितु उनके विचार हर एक मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये था। चाहे वह सामाजिक मामला हो अथवा राजनैतिक सब विषयों पर उन्होंने खुलकर अपने विचार व्यक्त किये हैं। प्रति वर्ष स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है और उसमें कुछ निश्चय किये जाते हैं राजनीतिक नेतागण स्वतंत्रता को अपने प्राणों की आहुति देकर सुरक्षा करने की बात करते हैं और खुशियां मनाते हैं फिर भी यह सत्य है कि भारत के करोड़ो अर्जक और शायद देश का विशाल बहुमत इस स्वतंत्रता दिवस को सही मायने में अनुभव नहीं कर पाता है।

राजनैतिक लोग इसे आर्थिक अभाव की संज्ञा देकर यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जब सब लोगों की आर्थिक बराबरी आयेगी तब सारा देश सच्ची स्वतंत्रता का अनुभव करेगा। आज बेकारी और भुखमरी के कारण देश में इतनी दरिद्रता व्याप्त है कि स्वतंत्रता का अनुभव करना असंभव हो गया है। यह सही है कि भारत विदेशी लोगों की दासता से मुक्ति पा गया है किन्तु सच्ची स्वतंत्रता अभी उसे प्राप्त नहीं हो सकी है। अन्यथा वह बेकारी, भुखमरी की ज्वाला में नहीं जलता। इसमें सबसे बडी बात तो दिमागी गुलामी है। मानसिक स्वतंत्रता होने पर शारीरिक गुलामी से मुक्ति पायी जा सकती है, लेकिन मानसिक स्वतंत्रता के अभाव में शारीरिक स्वतंत्रता कायम रखना असंभव हो जाता है।

भारत की सामाजिक गैर बराबरी मानसिक गुलामी का परिणाम है यदि कभी भी भारत के लोंगो ने विवेक बुद्धि का प्रयोग किया होता, तो यह परम सत्य उनके सामने आए बिना न रहता कि इंसान-इंसान बराबर है प्रेम और सौहार्द्र से वे एक दूसरों के काम आ सकते हैं। लेकिन उनके उपर दबाव बनाकर काम नहीं लिया जा सकता है। मानव जाति में फिर जातियों का निर्माण क्या प्रकृति का उपहास और मानव की विवेक बुद्धि का दिवालियापन नहीं है और सांस्कृतिक गुलामी की बात करें तो जब सवर्ण और अछूत के बीच झूलता हुआ समाज छूआछूत उंच-नीच और बनावटी जाति भेद से पिंड इसलिये नहीं छुड़ा सकता क्योंकि उसके लिये ब्राह्मण का फतवा नहीं है और उसने अपनी बुद्धि उसी के यहां गिरवी रख दी तब फिर सांस्कृतिक गुलामी से पिंड कैसे छूट सकता है। जिस संस्कृति से सामाजिक गैर बराबरी तर्कहीन और मिथ्या पर आधारित होते हुये भी चली जा रही है, वहाँ सांस्कृतिक गुलामी से पिंड छुड़ाना आसान नहीं है। पुनर्जन्म का सिद्धांत एकदम असत्य और भ्रामक है। लेकिन भारतीय समाज के मन को यह असत्य अधिक जकड़े हुये है कि सच्चाई तर्क और तथ्य की कसौटी पर कसे जाने के बावजूद स्वीकार नहीं की जाती, एक दो कहानियों पर पुनर्जन्म का झूठ टिका हुआ है। पुनर्जन्म जैसी झूठी और सारहीन मान्यता पर टिका ब्राह्मणवाद कैसे वैज्ञानिक चिंतन को बढावा दे सकता था। बढावा देना तो दूर कायम रखना भी ब्राह्मणवाद के लिये महंगा पड़ता। क्योंकि ब्राह्मणवाद तो मानने का सिद्धान्त है यह जानने के विपरीत संस्कृति का परिचायक है। इसलिये ब्राह्मणवाद के प्रवर्तक ग्रंथों में जो भी कहा गया है और जिसको मानने का आग्रह किया गया है, वह या तो भगवान के मुंह से कहलाया गया है अथवा किसी ऋषि के मुंह निकला ऐसा कहा गया है।

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भगवान और ऋषि के वचन को मानना मनुष्य का धर्म बताया गया है। न मानने पर या तर्क करने पर ‘संशयात्मा विनश्यति’ का सूत्र कह दिया गया है अर्थात इस भगवान या ऋषि की वाणी में संदेह करने वाले का नाश निश्चित कहा गया है। ऐसी संस्कृति का उद्देश्य केवल यही रहा है कि जिनके निहित स्वार्थ बन गये उनका नाश न होने पाये वास्तव में मनुवाद निहित स्वार्थों का रक्षा कवच है। एक ओर समाज में वर्णभेद की सीढीयां तैयार कर इंसान-इंसान में भेद करना, उंच-नीच छूत-अछूत बताना, निहित स्वार्थों की रक्षा का सामाजिक षडयंत्र नहीं तो और क्या है? किसी जाति या वर्ण विशेष का राज सत्ता पर अधिकार घोषित करना भी उन्हें घृणित स्वार्थों का घिनौना रूप नहीं तो और क्या है। इन निहित स्वार्थों के पूंजीभूत स्वरूप का नाम मनुवादी संस्कृति है।

भारत में भावनात्मक एकता का प्रयास अनर्जक नेताओं द्वारा कई वर्षों से हो रहा है। लेकिन उसका नतीजा कुछ नहीं निकला, भावनात्मक एकता का नारा देने वाले अनर्जक एक होकर राष्ट्र की रक्षा करने की बात कहते हैं। एक होने पर राष्ट्र कितना प्रबल होगा इसकी कल्पना ही सहज है। लेकिन एक होंगे कैसे? इसका उत्तर मनुवादी लोग अभी तक दे नहीं पाये हैं, शायद इसीलिये कि उन्हें भारत की शूद्र कही जाने वाली जातियों को मिले तिरस्कार, अपमान और गरीबी की टीस और कसक का अनुभव नही है। जिस देश में लगभग आठ करोड़ अछूत चार करोड़ आदिवासी, छ; करोड़ मुसलमान तथा एक करोड़ ईसाइयों के हाथ का छुआ पानी पीने में भी रोक हो ऐसी मनुवादी व्यवस्था देश में एकता के रास्ते में घोर बाधा है। मनुवाद के प्रबल स्तम्भ श्री शंकराचार्य जैसे लोग तो शूद्रों  एवं म्लेच्छों को इंसान मानने को तैयार नहीं। फिर इनका बनाया हुआ भोजन करने का तो प्रश्न ही नही उठता । यह है मनुवाद की देश विरोधी भेदकारक नीति जिसके कारण भारत में एकता असंभव रही है एवं आने वाले समय में भी एकतासूत्र कहीं बनता दिखाई नहीं दे रहा है। हजार वर्षों की गुलामी के बाद जब मनुवादियों का शासन अपने देश में हुआ तो फिर उन्होंने विषमता मूलक विचारों का प्रचार प्रारम्भ कर दिया कुछ लोग वर्ण व्यवस्था का राग अलापते नहीं अघाते और उसे कर्म विभाजन की वैज्ञानिक प्रणाली बताते हैं विज्ञान से मनुवाद का कभी संबन्ध नहीं रहा क्योंकि उनका सारा ढांचा पुनर्जन्म के मिथ्या आधार पर टिका है। शासन सूत्र के संचालक आज अधिकतर मनुवादी ही हैं और क्यों न हों जब पुष्यमित्र ने विश्चासघात करके राज्य लेने के लिये अपने राजा वृहद्रथ का वध किया और मनुवाद कायम किया जिसमें एक बौद्ध भिक्षु के सिर का मूल्य एक सौ दीनार था। जब आजादी की लड़ाई में खून देने की बात थी, त्याग करने की बात थी, तो सब भारतीय समान हैं एक हैं, ऊंच-नीच, छूत-अछूत नहीं है। लेकिन जब स्वतंत्रता मिल गयी तो अब बराबरी की बात भूल गये और छूआछूत और ऊंच-नीच के भेदभाव को पनपाने लगे ताकि उनका वर्चस्व अबाध रूप से कायम रहे।

जब जरूरत थी चमन को तो लहू हमने दिया॥

अब बहार आई तो कहते हैं तेरा काम नहीं॥

महामना रामस्वरूप वर्मा जी जैसे मनुवाद एवं ब्राह्मणवाद का भंडाफोड़ करने वाले, सस्ती एवं घटिया लोकप्रियता से तौबा करने वाले, व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए राजनीति न करके समाज के हितों के लिए समर्पित होने वाले सामाजिक क्रान्ति के योद्धाओं की इस देश को आवश्यकता है एवं इसकी शुरूआत हम प्रत्येक को अपने घर से करनी पड़ेगी, तभी हम आमजन, समाज एवं देशहित में कुछ करने की ओर अग्रसर हो पाएंगे।

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महामना के त्याग, राजनीतिक एवं सामाजिक दूरदर्शिता से प्रेरणा लेते हुए, रामस्वरूप वर्मा जी के विचारों को पूरे देश में प्रसारित करने का कार्य करते हुए एक सशक्त समाज, जो जात-पात, ढोंग, आडम्बरों, छूआछूत, छोटे-बड़े से ऊपर उठकर सबको समान भाव से देखे, ऐसे समाज की परिकल्पना करनी होगी और उसे सत्य कर दिखाना होगा, नहीं तो देश को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता।

महामना रामस्वरूप वर्मा ने समाज में परिवर्तन लाने के लिये अपने दृढ विचारों के माध्यम  से लोगों को जो जगाने का कार्य किया है। उनका यह बहुमूल्य योगदान न केवल बहुजन दिलीप कुमार समाज बल्कि पूरा देश हमेशा याद करता रहेगा।

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

दिलीप कुमार

दिलीप कुमार जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालयभाषा (नई दिल्ली) के साहित्य संस्कृति एवं अध्ययन संस्थान में शोध छात्र हैं

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