बहस ये है कि आखिर बचाएगा कौन? कितने बुद्धिजीवियों और कितनी पत्रिकाओं को सरकार सिरे से खारिज कर सकती है? अकादमिक जगत के लोग तरीके बहुत गिना रहे हैं लेकिन होता जाता कुछ भी नहीं है। इस सिस्टम में पत्ता जिस तरफ फरकाओ वो बार-बार उसी तरफ उलट जाता है। इसके भीतर भी तो कोई सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए।
देश के प्रतिष्ठित इतिहासकार हरबंस मुखिया का कहना है कि “संयोग से हम भारत में एक अप्रत्याशित घटनाक्रम के गवाह बन रहे हैं, सच तो यह है कि यही पूरी दुनिया में घटित हो रहा है, जिसे समाज विज्ञान में दोहरे प्रभाव वाला घटनाक्रम कहते हैं। इसमें एक तरफ वोट के रूप में लोकतांत्रिक अधिकार का व्यापक सामाजिक दायरे द्वारा इस्तेमाल हो रहा है और समाज के निचले तबके लोग भी इस दायरे में शामिल हो रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ चुनावी प्रणाली में बहुत ही जटिल तरीकों से हेराफेरी की जा रही है और इसके माध्यम से शीर्ष के कम-से-कम लोगों के हाथ में समाज के आर्थिक संसाधनों को आर्थिक संरचना संकेंद्रित की जा रही है। यह पूरी प्रक्रिया वोट की शक्ति से मिलने वाले लाभों से जनता को वंचित कर रही है और इससे भी ज्यादा आर्थिक विकास के फायदों से। इस प्रकार राजनीतिक लोकतंत्र के साथ-साथ समाज के भौतिक कल्याण का विध्वंस साफ-साफ दिख रहा है।”
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