सरकार ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की जगह उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) को लाने के अपने इरादे की घोषणा कर दी है। एचईसीआई विधेयक के समर्थन और विरोध में अनेक तर्क दिये जाते रहे हैं। कुछ शिक्षाविदों का मानना है कि यह विधेयक उच्च शिक्षा में मौजूद अनियमितताओं का समाधान करेगा। हालांकि, कई लोगों का मानना है कि यह बिल उच्च शिक्षा को निजीकरण की तरफ़ ले जाने वाला एक ऐसा बिल है,जो आख़िरकार उच्च शिक्षा को ही बाज़ार की ताक़तों के हवाले कर देगा। दलितबहुजन आंदोलन के समर्थकों का मानना है कि यूजीसी जैसी संस्था को अधिक से अधिक शक्ति देने का मतलब है कि ऊपरी जाति के प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए दलितबहुजनों को ऊपरी जाति के भरोसे छोड़ देना। यूजीसी को लेकर, न तो हमने कोई गुणवत्तापूर्ण शोध किया है, न ही शिक्षा के क्षेत्र में विश्व स्तर पर हमें कोई जगह मिल पायी है। स्वायत्तता की आड़ में उच्च शिक्षा संस्थानों ने अपने परिसरों में सामाजिक विविधता की मांग को लेकर मामूली झुकाव दिखाया है। संसद के हस्तक्षेप से आबादी के सबसे बड़े हिस्से वाले अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की पहुंच उच्च शिक्षा तक तो हुई है, लेकिन आज भी कई स्तरों पर ऐसी अनेक बाधाएं बनी हुई हैं, जो अब भी उन्हें उच्च शिक्षा से बाहर रख सकती हैं। कई दलितबाहुजन बुद्धिजीवियों को भी इस बात का डर है कि एचईसीआई के ज़रिए शिक्षा के भगवाकरण के मार्ग को आगे बढ़ाया जा रहा है।
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एचईसीआई बिल: शैक्षणिक स्वतंत्रता को समाप्त किये जाने वाली परिकल्पना
– लोकेश कुमार
उच्च शिक्षा प्रणाली और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग को विभिन्न स्तरों पर विभिन्न सुधारों की आवश्यकता है। इस बारे में चर्चाएं लंबे समय से चल रही हैं। चाहे कोठारी आयोग (1964-1966) हो या यशपाल समिति (2009), दोनों में कई सुझाव और सिफारिशें हैं, लेकिन उच्च शिक्षा से संबंधित मुद्दे अब भी अनसुलझे हैं। यशपाल समिति ने सभी मुद्दों की समग्रता और निष्पक्षता से जांच-पड़ताल की थी, और स्वायत्तता के बुनियादी सिद्धांत पर किसी तरह का कोई समझौता किए बिना उच्च शिक्षा और अनुसंधान के सभी क्षेत्रों को नियमित करने को लेकर “उच्च शिक्षा और अनुसंधान के लिए राष्ट्रीय आयोग” नामक एक व्यापक संवैधानिक निकाय के गठन का सुझाव दिया था। असल में एक ऐसा विनियामक ढांचा बनाने का विचार था,जो उच्च शिक्षा को प्रकृति में लोकतांत्रिक और समावेशी बनाते हुए किसी भी तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप से उच्च शिक्षा प्रणाली की रक्षा कर सके।
वर्तमान केंद्रीय सरकार के भारत के उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआई) बनाने का प्रस्ताव, जो मौजूदा यूजीसी की जगह लेगा, ऐसा नहीं है कि अचानक से सामने आ गया है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) -II के बाद से ही उच्च शिक्षा संस्थानों (एचआईआई) को नियमित करने के लिए यूजीसी की जगह इस नए निकाय को लाने के प्रयास चल रहे थे। हालांकि, मौजूदा सरकार और हाल के घटनाक्रम के अन्य निर्णयों के संदर्भ में एचईसीआई विधेयक को विस्तार से देखने की ज़रूरत है। अधिकांश लोग इस बात से सहमत होंगे कि यूजीसी और उसके कामकाज में सुधार की तत्काल आवश्यकता तो है, लेकिन यह विधेयक उन गंभीर चिंताओं का समाधान बिल्कुल नहीं करने जा रहा है,जिसका सामना एचईसीआई इस समय कर रहा हैं। इसके बजाय, यह पूरी व्यवस्था को सरकार की सनक और इरादों के हवाले करता है। मगर, सवाल है कि शैक्षिक व्यवस्था का सरकार के अधीन होने को लेकर हम इतना चिंतित क्यों हैं? आखिरकार, सरकार ही तो देश चलाती है और लोगों ने उसे जनादेश दिया है। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की शक्ति को सीमित करने की आवश्यकता ही क्यों है ?
इन सवालों का जवाब सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में स्वतंत्र भारत (1948-49) के पहले विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट में निहित है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, “व्यक्तिगत विकास की स्वतंत्रता लोकतंत्र की बुनियाद है। राज्य का शिक्षा पर विशेष नियंत्रण सर्वाधिकारवादी उत्पीड़न को क़ायम रखने रखने वाला एक महत्वपूर्ण कारक रहा है। इस तरह के राज्यों में, सरकारी एजेंसियों द्वारा नियंत्रित और प्रबंधित उच्च शिक्षा वाले संस्थान भाड़े की टट्टू की तरह कार्य करते हैं।” कुल मिलाकर,यह रिपोर्ट बताती है कि शासक की राजनीति को आगे बढ़ाने वाली सर्वाधिकारवादी शासन ही उच्च शिक्षा पर पूर्ण नियंत्रण का उपयोग करता है।
एचईसीआई विधेयक को ‘स्वायत्तता’ और ‘समान शिक्षा’ जैसे भ्रामक शब्दों से सजाया गया है, जो अपने रूप-रंग में असरदार दिखते हैं। लेकिन इन शब्दों को क़रीब से देखने पर पता चलता है कि ये शब्द सिर्फ नकाब हैं। इसके अलावा, जैसा कि ऊपर बताया गया है, हमें एचईसीआई विधेयक को अलग से नहीं देखना चाहिए, बल्कि मौजूदा सरकार के उठाए गए अन्य निर्णयों के संदर्भ में ही इसे देखा जाना चाहिये। जबसे मौजूदा सरकार सत्ता में आयी है, तबसे ही उच्च शिक्षा पर व्यवस्थित हमले होने शुरू हो गये हैं। हमने जेएनयू और अन्य विश्वविद्यालयों के इर्द-गिर्द केंद्रित तमाम विवादों को देखा है। रोहित वेमुला की आत्महत्या ने उच्च शिक्षा संस्थानों में जाति आधारित सामाजिक भेदभाव को खुलकर सामने ला दिया है। हमने यह भी देखा है कि जो लोग विचारधारा के स्तर पर संघ परिवार के बेहद नज़दीक हैं,उन्हें किस तरह संस्थानों के प्रमुख या निर्णय लेने वालों के तौर पर स्थापित जा रहा है।
क्या एचईसीआई विधेयक उच्च शिक्षा प्रणाली को हड़पने वाली किसी बड़ी साजिश का संकेत तो नहीं देता है? आइए देखते हैं कि जुलाई में संसद में पेश किए जाने से पहले भी इस विधेयक का विरोध शिक्षाविदों,छात्रों और सांसदों द्वारा क्यों किया गया था।
एचईसीआई विधेयक उच्च शिक्षा पर सरकार की पकड़ को मज़बूत करेगा
1.आयोग की संरचना : इसमें आयोग के सदस्यों के बीच से केवल दो सेवारत प्रोफेसरों का प्रस्ताव है। इसमें सदस्यों के रूप में “अपनी अकादमिक उत्कृष्टता के लिए माने जाने वाले” दो कुलपतियों का भी प्रस्ताव है, लेकिन इसके बाद भी हमने नौकरशाही, सेना और उद्योग जगत से नियुक्त किए गए कुलपतियों को देखा है। इसके अलावा, इसमें एक सदस्य के रूप में एक ‘औद्योगिक नेतृत्व’ का भी प्रस्ताव है। “पहुंच, समावेश और अवसरों को सुविधाजनक बनाने के लिए, और एक प्रतिस्पर्धी वैश्विक माहौल में उच्च शिक्षा और अनुसंधान के व्यापक और समग्र विकास उपलब्ध कराने को लेकर” किसी निकाय में इस तरह के ‘नेतृत्व’ की मौजूदगी का कारण समझ में नहीं आता है। अध्यक्ष और उपाध्यक्ष की नियुक्ति, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, और तीन शिक्षाविदों वाली ‘स्थायी अनुसंधान और चयन समिति’ द्वारा किया जाएगा। इस आयोग के ढांचे से एकदम साफ़ है कि प्रस्तावित आयोग, सरकार के साथ पूरी दृढ़ता से चिपका हुआ होगा।
2. हटाने का प्रावधान : इस बात का प्रावधान है कि सरकार ऐसे किसी भी अपराध की सजा को लेकर कार्यकाल पूरा करने से पहले ही एचईसीआई के सदस्यों को हटा सकती है, जो कि “सरकार की राय में सदस्यों के नैतिक रूप से भ्रष्टाचार में शामिल होने का संकेत देता है।” यह ‘नैतिक भ्रष्टाचार’ किन चीज़ों से बना है, इसका मतलब पता नहीं है। यह एक अस्पष्ट शब्दावली है और इसे सरकार द्वारा मनमाने ढंग से इस्तेमाल किया जा सकता है। इस विधेयक से पता चलता है कि केंद्र सरकार किसी भी या सभी सदस्यों को आसानी से हटा सकती है, यहां तक कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को भी हटा सकती है। यूजीसी के मामले में ऐसा नहीं है, जिसे सरकार की तरफ़ से पड़ते किसी भी दबाव का प्रतिरोध करने को लेकर पर्याप्त रूप से सशक्त किया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शैक्षणिक मानकों को तथ्य-आधारित शोध से संचालित किया जा सके। प्रस्तावित एचईसीआई के तहत, विश्वविद्यालय प्रशासन में उन लोगों को भी आयोग के दिशा-निर्देशों का पालन करने में विफल होने पर जेल हो सकती है (अनुच्छेद 23 (2))।
3. सलाहकार परिषद : एचईसीआई विधेयक मानव संसाधन विकास मंत्री की अध्यक्षता में अध्यक्ष/उपाध्यक्ष, आयोग के सदस्य, और सदस्यों के रूप में उच्च शिक्षा को लेकर सभी राज्य परिषदों के अध्यक्ष/उपाध्यक्ष से बनी एक सलाहकार परिषद का गठन करता है। यह परिषद सभी मामलों पर एचईसीआई को सलाह देगी। यह ‘सलाह’ शब्द भी काफी भ्रामक है, क्योंकि विधेयक स्वयं ही कहता है कि ‘सलाह’ बाध्यकारी होगी। इसका मतलब यह है कि एचईसीआई से सरकार की धुन पर ही नाचने की उम्मीद की जायेगी, जो यूजीसी अधिनियम की भावना के बिल्कुल प्रतिकूल है।
4. आख़िरकार सरकार का निर्णय ही मान्य : अगर इस एचईसीआई मामले में केंद्र सरकार और आयोग के बीच किसी तरह की असहमति होती है कि कोई सवाल राष्ट्रीय उद्देश्यों से सम्बन्धित नीति से जुड़ा हुआ है या नहीं, तो इस मामले में केंद्र सरकार का निर्णय ही अंतिम होगा।” [अनुच्छेद 25 ( 2)]
इसलिए, यह मसौदा राजनीतिक हस्तक्षेप से उच्च शिक्षा को बचाने के सवाल पर नाकाम है।

स्वायत्तता का अंत
उच्च शिक्षा आयोग और उच्च शिक्षा संस्थान दोनों की स्वायत्तता ख़तरे में है। जैसा कि हमने ऊपर देखा है कि एचईसीआई विधेयक, आयोग के सदस्यों के रूप में केवल दो सेवारत प्रोफ़ेसरों की गारंटी देता है। कुछ बिन्दुओं पर सरकारी सेवा देने वालों को सदस्य बनने की शर्तों को ढीले ढाले तरीक़े से परिभाषित किया गया है। दूसरी ओर, यूजीसी अधिनियम स्पष्ट रूप से बताता है कि सरकारी (राज्य या संघ) अधिकारी सदस्य नहीं हो सकते हैं। विशेष रूप से, यूजीसी के 10 सदस्यों में से चार को विश्वविद्यालय संकाय का सदस्य होना चाहिये, और चार सदस्यों को कृषि, वाणिज्य, वानिकी या उद्योग के क्षेत्र में विशेषज्ञ या इंजीनियरिंग, क़ानून या चिकित्सा जैसे क्षेत्रों के विद्वान या वाइस चांसलर या शिक्षाविद या शैक्षणिक विशिष्टता वाले लोग होने चाहिये।
जहां तक एचईसीआई का संबंध है, उच्च शिक्षा संस्थानों को अनुदान आवंटित करने और उसे वितरित करने की शक्ति,मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) के पास ही है,न कि ख़ुद आयोग के पास है, जैसा कि यूजीसी के मामले में है।
62 उच्च शिक्षा संस्थानों को वर्गीकृत स्वायत्तता प्रदान करने सहित केंद्र सरकार की शिक्षा नीतियों के ख़िलाफ़ हज़ारों छात्रों, शिक्षकों और गैर-शिक्षण कर्मचारियों ने मार्च किया। वर्गीकृत स्वायत्तता का विचार इस साल की शुरुआत में पेश किया गया था। इस प्रणाली के तहत, विश्वविद्यालय को एनएएसी (राष्ट्रीय प्रमाणन और मूल्यांकन परिषद) रेटिंग के आधार पर बढ़ती स्वायत्तता दी जाएगी। इस विचार के प्रतिरोध का कारण यह है कि यह विभिन्न सामाजिक वास्तविकताओं और विश्वविद्यालयों के संसाधनों की कमी या अभाव पर विचार किये बिना, एक ही पैमाने पर संस्थानों का मूल्यांकन करता है।
यहां, ‘स्वायत्तता’ शब्द भी भ्रामक है, स्वायत्तता में बढ़ोत्तरी का मतलब सरकारी वित्तीय सहायता में कटौती है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय के लिए कम सरकारी धन का आवंटन निश्चित ही रूप से मौजूदा व्यवस्था के लिए कम परेशानी का सबब होगा। कई विशेषज्ञ मानते हैं कि यह “स्वायत्तता सरासर झूठ है”, क्योंकि यह शैक्षणिक आजादी के अलावा बाक़ी हर किसी चीज़ का वादा करता है।

ऐसे में सवाल उठता है कि जब राज्य की तरफ़ से वित्त पोषण कम हो जाएगा, तो स्वायत्त संस्थान अपने बजट को किस तरह पूरा कर पाएंगे ? इस स्थिति में तो उन्हें फ़ीस बढ़ाने या निजी वित्त पोषण की व्यवस्था ज़रिए ख़ुद ही धन जुटाना होगा। सबसे बड़ा नुकसान सामाजिक रूप से वंचित समुदायों, खासकर एससी, एसटी तथा ओबीसी, और समाज के अन्य ग़रीब वर्गों के छात्रों का होगा। यह एससी, एसटी, ओबीसी और अन्य वंचित वर्गों को अधीन रखने वाला मूर्खतापूर्ण कार्य है, या यह एक ब्राह्मणवादी योजना का हिस्सा है?
चूंकि धन का आवंटन और वितरण एमएचआरडी करता है, इसलिए जो संस्थाएं जितना ज़्यादा धन पाते हैं, मौजूदा सरकार का वे उतना ही हुकूम बजाते हैं। ऐसा आईआईटी दिल्ली में देखा गया है, जहां ग्रामीण विकास और प्रौद्योगिकी केंद्र को उनके ‘पंचगव्य’ (गाय विज्ञान) अनुसंधान के लिए आसानी से धन मिलता है, जबकि अन्य विभागों को एचईएफए (उच्च शिक्षा वित्तपोषण एजेंसी) ऋण के लिए आवेदन करना होता है। धन के उड़ेले जाने के इस सरकारी रवैया को हम इतिहास में मिथक को शामिल करते हुए इतिहास को फिर से लिखने वाले कार्यक्रम में भी देख सकते हैं।
इस प्रकार, एचईसीआई विधेयक, आयोग और संस्थानों दोनों को नियंत्रित करते हुए इनकी स्वायत्तता के सवाल पर पूरी तरह विफल है।
निजीकरण
उच्च शिक्षा के निजीकरण और व्यावसायीकरण की अनुमति देने के लिए वर्गीकृत स्वायत्तता के विचार को भी सामने रखा गया है। यहां तक कि सरकारी बजट में भी सरकार की इस नीति की झलक मिलती है। इसके पीछे का मक़सद निजी क्षेत्र को उनके द्वारा पोषित शिक्षा के ज़रिए लाभ पहुंचाना है, इसलिए केवल वे लोग जो उनकी सहायता कर सकते हैं, लाभ उन्हें ही मिलना है- दूसरे शब्दों में, वे अमीर,जो अपनी बड़ी फ़ीस दे सकने की हालत में होंगे, उच्च शिक्षा तक पहुंच उन्हीं की होगी। टाटा इंस्टिच्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में शोध कर रहे एक छात्र, साकिब खान सही ही कहते हैं कि वर्गीकृत स्वायत्तता की इस प्रणाली का उद्देश्य स्पष्ट वर्ग विभाजन वाली उच्च शिक्षा की एक स्तरगत व्यवस्था को स्थापित करना है, वर्गगत ये स्तर हैं: अभिजातों के लिए पहला स्तर, मध्यम वर्ग के लिए दूसरा और आम लोगों के लिए तीसरा स्तर”। एससी, एसटी और ओबीसी स्पष्ट रूप से ख़ुद को तीसरे स्तर पर पायेंगे। इसलिए, एचईसीआई समावेशन की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।
सामाजिक भेदभाव का सवाल भी अनुत्तरित
सरकार ने मार्च में राज्यसभा को बताया कि भारत में 2014 से 2016 के दरम्यान लगभग 26,500 छात्रों ने आत्महत्याएं की हैं। दूसरे शब्दों में, इस दौरान प्रतिदिन 24 और हर घंटे एक आत्महत्या हुई। छात्रों को आत्महत्या से रोकने के लिए सरकार क्या क़दम उठा रही है? गृह राज्य मंत्री हंसराज अहिर ने राज्यसभा में इस सवाल के जवाब में जो आंकड़े रखे, उससे तो यही लगता है कि अधिक से अधिक छात्र अपनी जान ले रहे हैं, 2014 में 8,068, 2015 में 8,934 और 2016 में 9,474 छात्रों ने आत्महत्याएं कीं। इसके बावजूद एचईसीआई विधेयक इन आत्महत्याओं को रोकने के उपायों पर अजीब तरह से चुप है, विश्वविद्यालय परिसरों को जातीय भेदभाव से मुक्त किये जाने का प्रयास किस तरह चल रहा है,समझा जा सकता है। हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला, जेएनयू में जे. मुथुकृष्णन, आईआईटी कानपुर में भीम सिंह की मौत ने स्पष्ट कर दिया है कि विश्वविद्यालय परिसरों में जाति आधारित भेदभाव एक वास्तविकता है।
सच्ची शैक्षणिक आजादी,सही मायने में आर्थिक विकास और वास्तविक समतावादी समाज की कुंजी है और केवल एक स्वतंत्र, सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित उच्च शिक्षा प्रणाली के तहत ही यह संभव है। स्वतंत्र भारत के पहले विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग और यशपाल समिति,अपनी प्रस्तुत रिपोर्ट में इस वास्तविकता को बहुत पहले ही स्वीकार करती दिखती है। दूसरी तरफ़, एचईसीआई विधेयक इस सच्चाई से जानबूझकर बेख़बर है और ग़ैरसमावेशन और मुनाफ़ाखोरी वाले एक ब्राह्मणवादी, कॉर्पोरेट एजेंडे से संचालित है।
(अनुवाद : उपेंद्र चौधरी, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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