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राजनीति का प्रियंका-प्रसंग

कहा जाता रहा कि राहुल पप्पू हैं, अपनी इतने पर भी अपने पांचवें साल में ही नरेंद्र मोदी हांफते नज़र क्यों आ रहे हैं। उनकी छप्पन इंच की छाती सिकुड़ती-सिमटती  नज़र क्यों आ रही है। अब ऐसे में जब प्रियंका की एंट्री हुई है, तब वह परेशां क्यों हैं?

जन विकल्प

यह शायद दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाना चाहिए कि प्रियंका गाँधी के कांग्रेस महासचिव मनोनीत किये जाने और सक्रिय होने की खबर मुल्क की सबसे बड़ी राजनैतिक खबर बन गयी है। यह अपने आप में कुछ सवाल भी खड़े करती है, जिनके जवाब देना किसी के लिए आसान नहीं होगा; न कांग्रेस के लिए, न विपक्ष के लिए। कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता आर्कमिडीज के यूरेका वाले अंदाज़ में झूमने लगे हैं, तो प्राइम मिनिस्टर से लेकर अदना भाजपाई भी विचलित बयान दे रहे हैं। कोई भी सहज नहीं है। उनकी इस असहजता के कुछ कारण तो होंगे। लेकिन इस पर हम बाद में विचार करेंगे। पहले एक आम आदमी की तरह हम इस खबर का विश्लेषण करें।

कांग्रेस इतनी उल्लसित क्यों है? क्या उसे यह अनुभव हो रहा था कि राहुल गांधी का व्यक्तित्व कांग्रेस की नैय्या पार कराने में समर्थ नहीं दिख रहा है? पिछले महीने दिसम्बर 2018 में ही राहुल के नेतृत्व में तीन प्रांतों से भारतीय जनता पार्टी की सरकारों को कांग्रेस ने उखाड़ फेंका है। उसके पूर्व गुजरात और कर्नाटक में भी उसके प्रदर्शन को संतोषजनक माना गया। इतने पर भी यदि राहुल का रुतबा नहीं बनता है तब इसका मतलब है कांग्रेस की अपेक्षा कुछ और है, जिसे राहुल पूरा नहीं करते दिखते। शायद उसे एक शिष्ट संकोची नेता के बजाय एक ऐसे उखाड़-पछाड़ नेता की जरुरत है, जो नरेंद्र मोदी की शैली में ही उन्हें जवाब दे।

पिछले लोकसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी ने उत्तरप्रदेश की एक सभा में कहा था – ‘मोदीजी आप नीच स्तर की  राजनीति करते हो “। इस वक्तव्य को नरेंद्र मोदी ने थोड़ा मरोड़ा और कहा कि हाँ, मैं नीच जाति का हूँ।

उत्तरप्रदेश में जहां जातिवाद की बेलें चुनावों के वक़्त कुछ अधिक लहलहा उठती हैं, मोदी ने अपनी नीच जाति का तम्बू लगा दिया और चुनाव जीत गए। पिछले वर्ष गुजरात के चुनाव में प्रियंका गांधी के ही अंदाज़ में ही मणिशंकर अय्यर ने कुछ कहा तो राहुल ने उनकी कांग्रेस से  ही छुट्टी कर दी। शायद सब को प्रियंका बनने की छूट नहीं दी जा सकती।

गांधी परिवार की एक तस्वीर (बायें से इंदिरा गांधी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी की गोद में प्रियंका गांधी)

प्रियंका कहीं बाहर से नहीं आई हैं। वह घर की हैं। चुनावों में कांग्रेस के लिए न सही अपने माँ-भाई के लिए काम करती रही हैं। उनके काम को सराहा भी गया है। उन्हें जनता अच्छी लगती है और जनता को भी वह अच्छी लगती हैं। जनता से संवाद करना वह जानती हैं और कहा जाता रहा है कि उनकी देह-भाषा यानी बॉडी-लैंग्वेज राजनीति के अनुकूल है। कुछ लोग उनमें इंदिरा गांधी का अक्श देखते हैं। वही इंदिरा गाँधी जिन्हें भाजपा के दिग्गज अटल जी ने चंडी कहा था। इंदिरा गांधी ऐसी हस्ती थीं, जिनने राजनैतिक घेरे में ही दैवी रुतबा हासिल कर लिया था। वह देवी अथवा मिथक बन गयी थीं। वह अपनी पार्टी और पाकिस्तान दोनों को दो हिस्सों में बांट सकती थीं, अमीरों द्वारा स्थापित और संचालित बैंकों को सरकारी काबू में ला सकती थीं, महाराजाओं के रुतबे ख़त्म कर उन्हें आम आदमी बना सकती थीं, देश में इमरजेंसी थोप तानाशाह हो सकती थीं। पूरी तरह  पराजित हो जाने पर अपनी ही राख से बस ढाई साल के अंदर पुनर्जीवित होकर शक्तिमान हो सकती थीं। वह हर असंभव को संभव कर सकती थीं। कोई मिथकीय पात्र भी इससे अधिक भला क्या कर सकता है।

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तो क्या ये गुण प्रियंका में हैं? इसे देखना होगा। 12 जनवरी 1972 को इंदिरा गांधी की पौत्री के रूप में जन्मी प्रियंका जब खिलौनों से खेलती रही होंगी तब मुल्क में आपातकाल लगा था। पूरा मुल्क गुस्से में था, जिसका इजहार 1977 के चुनावी नतीजों में हुआ। पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस का सफाया हो गया। इंदिरा गांधी स्वयं चुनाव हार गयीं। चुनावों के बाद वह काफी डरी-सहमी थीं। दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने अपनी आत्मकथा में उस दौर का जीवंत परिदृश्य शेयर किया है। उन्हें इस बात पर आश्चर्य था कि आयरन लेडी कही जाने वाली महिला इतनी डरी क्यों है! इसी डरे वातावरण और डरी हुई दादी की साया में प्रियंका का बचपन था। उसने स्कूल में बच्चों के ताने सुने। दादी को गिरफ्तार होते देखा। आठ साल की उम्र में उनके चाचा संजय हवाई दुर्घटना में मारे गए और इसके बाद उनके घर में एक भूचाल आया जब उनकी चाची मेनका ने गोद में बेटे को लेकर गृहत्याग कर दिया। 1984 में जब उनकी दादी की हत्या हुई तब वह बारह साल की थीं और 1991 में जब पिता की हत्या हुई तब  महज उन्नीस साल की। खून और भय में लिथड़ा यह समय असामान्य था। यह खुशनुमा जीवन तो कहीं से नहीं था, जो आमतौर पर इस परिवार के लिए समझा जाता है। असुरक्षा, भय, आतंक और इनसे उपजी दूसरी चीजों को इस परिवार ने जिया है, उससे जूझते रहे हैं।

वर्ष 2004 में लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत के बाद अपनी मां को बधाई देतीं प्रियंका

राजीव की हत्या के बाद कांग्रेस ने सोनिया गांधी को नेतृत्व सौपने की पेशकश की थी। उनने इंकार कर दिया। तब नरसिंह राव आये। जो परिस्थितियां बनीं, उनमें धीरे-धीरे कांग्रेस कमजोर होती चली गयी। 1992  के आखिर में जैसे ही बाबरी मस्जिद का विध्वंस हुआ देश के मुसलमानों को अनुभव हुआ अब कांग्रेस से कोई उम्मीद करना बेकार है। उत्तर भारत में ही मुस्लिम आबादी अधिक घनीभूत है। खास कर उत्तरप्रदेश में जहां के ज़मींदारों ने मुस्लिम लीग को जन्म दिया था। आज भी वहां प्रभावकारी आबादी है, वह कांग्रेस से छिटक कर इलाकाई पार्टियों के साथ हो गयी। इन पार्टियों का वैचारिक आधार तनिक कमजोर था। इसके कारण मुसलमानों का लम्पट-गुंडा नेतृत्व राजनीति में उभरने लगा। उत्तरप्रदेश और बिहार की राजनीति में यह बड़े पैमाने पर हुआ। इसकी प्रतिक्रिया हुई। भाजपा की जड़ें जमने लगीं। हिन्दू मध्यवर्ग का जो हिस्सा कांग्रेस के साथ था, वह भाजपा के साथ हो गया। कांग्रेस का पूरा वोट बैंक बिखर गया। वह दयनीय हो गयी।

सोनिया गांधी ने ऐसी ही कांग्रेस को अपने हाथ में लिया था। एक बिखरी और उखड़ी हुई कांग्रेस थी वह। ऐसी संस्था को हाथ में लेना और चार साल में उसे सत्ता तक पहुंचाना चुनौती भरा कार्य था। सोनिया ने इसे पूरा किया। 2004  में कांग्रेस की सरकार बनी और दस वर्षों तक चली। कहा जाता है परदे के पीछे रह कर प्रियंका ने इसमें सहयोग किया। यदि यह सच है, तब कहा जायेगा कि उनका अप्रेंटिस-शिप दुरुस्त है।

राजनीति में सक्रिय हुईं प्रियंका गांधी

नेहरू परिवार पर बहुत बातें होती हैं। परिवार-वाद भी विमर्श का केंद्र बनता है। बनना भी चाहिए। लेकिन, हमें इस पर भी बात करनी चाहिए कि वह कौन सा कारण है कि बार-बार जनता वहां लौटना चाहती है। 1977 के चुनाव में कांग्रेस का सफाया हो गया था (तीसरे ही साल वह लौट क्यों आई?) 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एक सक्षम सरकार बनी। 1999 में भी वह आये, लेकिन तमाम शाइनिंग और फीलगुड के बावजूद वह ध्वस्त क्यों हो गए? नरेंद्र मोदी को मुल्क ने एक तरह से उन्ही के शब्दों में कांग्रेस-मुक्त भारत दिया। राहुल गांधी जिस कांग्रेस के अध्यक्ष बने वह मात्र चौआलिस सांसदों वाली कांग्रेस है। कहा जाता रहा कि राहुल पप्पू हैं, अपनी इतने पर भी अपने पांचवें साल में ही मोदी हांफते नज़र क्यों आ रहे हैं। उनकी छप्पन इंच की छाती सिकुड़ती-सिमटती  नज़र क्यों आ रही है। अब ऐसे में जब प्रियंका की एंट्री हुई है, तब वह परेशां क्यों हैं? प्रधानमंत्री ने टिप्पणी कर के स्वयं को कमजोर ही साबित किया है। प्रियंका का राजनैतिक हलकों में जो इस्तकबाल हुआ है उसके बूते वह इक़बाल का नज़्म गुनगुना सकती हैं – कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा …

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

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