बहुजन का शाब्दिक अर्थ है अधिसंख्य जन अर्थात बहुत से लोग। ये बहुत से लोग कौन हैं, जो मिलकर बहुजन वर्ग बनाते हैं? इस विशाल बहुजन समाज का जन्म हिन्दू समाज की वर्णव्यवस्था के गर्भ से हुआ है। हिन्दू समाज जातियों का समूह है, जिनमें सभी जातियों का सामाजिक और आर्थिक स्तर समान नहीं है। एक विशाल आबादी को हिन्दू धर्म-व्यवस्था ने स्वतन्त्रता और विकास के अवसरों से वंचित रखा है। इनमें शूद्र हैं, जो वर्णव्यवस्था में सबसे निचले पायदान पर हैं, और वर्णव्यवस्था से बाहर की चंडाल आदि जातियां हैं, जो अछूत मानी जाती हैं। शूद्र और अछूत जातियां ही मिलाकर बहुजन समाज बनाती हैं। यह बहुजन समाज आज भी हाशिए पर है, और अपनी सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए उच्च जातियों पर निर्भर करता है।
भारतीय इतिहास में ‘बहुजन’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले छठी ईसा पूर्व में गौतम बुद्ध ने किया था। उन्होंने अपने शिष्यों को कहा था—‘चरित भिक्खवे बहुजन हिताय बहुजन सुखाय’। अर्थात, बहुजनों के हित और सुख के लिए विचरण करो। ए. सत्यनारायण[1] के अनुसार मद्रास प्रेसिडेंसी में 1921 की जनगणना रिपोर्ट में बहुजन समाज का उल्लेख मिलता है। उसमें चयनित समुदायों की साक्षरता दर की तालिका में चार श्रेणियों का उल्लेख हुआ है, जिनमें पहली द्विज, दूसरी उच्च शूद्र जातियां, तीसरी बहुजन (उत्पादक) जातियां और चौथी दलित हैं। बहुजन की तीसरी श्रेणी में उत्पादक जातियों को शामिल किया गया था, जिसमें दो वर्ग हैं, एक में दो शिल्पकार जातियां सुनार और बुनकर हैं, तो दूसरे वर्ग में यादव, मछुआरा, नाई, धोबी, कुम्हार, मंगता आदि 9 अन्य पिछड़ी जातियां हैं।[2] ए. सत्यनारायण लिखते हैं कि दलित कार्यकर्ताओं ने ‘हरिजन’ शब्द को संरक्षण और मानवतावाद के रूप में खारिज कर दिया था। किन्तु ‘बहुजन’ शब्द सामाजिक कार्यकर्ताओं और विद्वानों के बीच सामाजिक और नागरिक अधिकारों के आंदोलनों के रूप में व्यापक अर्थ प्राप्त कर रहा था। यही नहीं, यह शब्द एक साझा दुख और साझा उत्पीड़न के साथ-साथ आत्म-निर्भरता, गरिमा और समानता के लिए भी साझा लड़ाई का आग्रह करता है। अत: कहना न होगा कि निचली और पिछड़ी जातियां ही एक विशाल बहुजन समाज बनाती हैं।[3]
इस विशाल बहुजन समाज की वैचारिकी निर्मित करने का क्रांतिकारी प्रयास उन्नीसवीं सदी में महात्मा जोतिबा (जोतीराव) फुले ने किया था। अनुपमा राव[4] ने ठीक ही लिखा है कि, ‘फुले ने जातिगत चेतना के साथ लोकप्रिय संस्कृति के तत्वों का समर्थन किया, जो आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व को एक जाति युद्ध के परिणाम से जोड़ रहे थे। उनकी कहानी द्रविड़ क्षत्रियों की पराजय के इर्द-गिर्द घूमती है, जिन्होंने आर्य ब्राह्मणों के छल के माध्यम से बहुजन समाज का गठन किया। फुले के जाति संघर्ष के पुनर्लिखित इतिहास और उनके अमानवीय जाति-व्यवस्था पर निरंतर आक्रमण ने एक सामान्य राजनीतिक समझ पैदा कर दी थी।’ निस्संदेह, महात्मा फुले ने शूद्र-अतिशूद्र जातियों को मिला कर एक विशाल बहुजन समाज का निर्माण किया था, परंतू फुले ने अपनी रचनाओं में बहुजन समाज के लिए शूद्र-अतिशूद्र का ही प्रयोग किया है, जो संभवत: उनके मिशन के लिए जरूरी भी था। फुले ने कभी भी अपने लेखन में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं किया, बल्कि आर्य और आर्यन शब्दों का प्रयोग किया। वह वस्तुत: एक संवेदनशील धार्मिक-सांस्कृतिक समाज का गठन कर रहे थे। उन्होंने सदैव उन ब्राह्मणों पर लिखा, जो बहुजन समाज के शत्रु थे।[5] अनुपमा राव के शब्दों में ‘फुले की शक्ति बहुजन समाज द्वारा अपना प्रतिनिधित्व स्वयं करने के दावे में थी।‘[6]
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किसी भी समाज में हमेशा जागरण होता है, पुनर्जागरण नहीं। किन्तु भारत में ब्राह्मण समुदाय ने उलटी गंगा बहाई। उसने जागरण नहीं, पुनर्जागरण किया। पुनर्जागरण का मतलब है, अपनी धार्मिक संस्थाओं को बचाने के लिए लोगों को जगाना। भारत में ईसाईयत से पहले इस्लाम ने दस्तक दी थी। फिर यहां मुसलमान आए और अपनी बादशाहत कायम की। इस्लाम की सामाजिक समता ने अछूत जातियों को बहुत प्रभावित किया, और हिन्दू धर्म से पीड़ित-अपमानित लोग तेजी से इस्लाम अपनाने लगे। ब्राह्मणवाद तिलमिला गया, उसे अपना जहाज डूबता हुआ नजर आने लगा, क्योंकि उसकी गुलाम जातियां गुलामी से मुक्त हो रही थीं। सो, ब्राह्मणों ने इस्लाम के तूफ़ान से ब्राह्मणवाद को बचाने के लिए वैष्णव भक्ति आन्दोलन खड़ा किया, और जाति के बन्धनों को शिथिल कर अछूतों को वैष्णव बनाने का उपक्रम किया। पर तब तक बड़ी संख्या में दलित-पिछड़ी जातियों के लोग इस्लाम में दाखिल हो चुके थे और उनकी एक पीढ़ी शिक्षित होकर तैयार हो गई थी। इस्लाम के मदरसे सबके लिए खुले थे, जिसमें पढ़कर कबीर और रैदास जैसे प्रतिरोध के विख्यात चिंतक उभरे। अत: कहना न होगा कि ब्राह्मणों ने पहला पुनर्जागरण आन्दोलन मुस्लिम काल में चलाया था, जो न केवल वेद शास्त्रों तथा वैदिक धर्म को बचाने के लिए था, बल्कि दलित-पिछड़ी जातियों, खासकर अछूत जातियों को इस्लाम में जाने से भी रोकना था।
संभवत: इस्लाम के बढ़ते प्रभाव से चिंतित होने वाला भारत का पहला ब्राह्मण आचार्य शंकर (688-720 ई.) था, जो केरल में जन्मा था। यह वह दौर था, जब तुर्कों के आक्रमण शुरू हो गए थे। राहुल सांकृत्यायन ने लिखा है कि शंकर ने बौद्धों के तरकश से कुछ वाणों को लेकर एक छोटा सा शास्त्रागार तैयार किया था, किन्तु वह तब तक गुमनाम ही पड़ा रहा, जब तक कि तुर्कों के आक्रमण से त्राण पाने के लिए बौद्ध दर्शन के नेताओं ने भारत को छोड़ हिमालय और समुद्र पार के देशों में भाग जाना नहीं पसंद किया।[7] इससे बौद्ध धर्म तो विदेशों में फ़ैल गया था, परन्तु ब्राह्मण-धर्म भारत में खतरे में पड़ गया था। मुस्लिम आक्रमणकारियों का अभिप्राय, जैसा कि डा. आंबेडकर ने लिखा है, हिन्दूधर्म की मूर्तियों को तोड़ना और अनेक देवताओं में विश्वास करने की भावना को छिन्न-भिन्न करना था।[8] भारत में पहला मुस्लिम हमला सिंध पर मुहम्मद बिन कासिम का 712 ई. में हुआ था। परन्तु, इस्लाम इससे पहले ही भारत में आ चुका था। धार्मिक क्रान्ति के बाद ही राजसत्ता कायम होती है। यह नियम है। इसलिए हमलावरों से पहले यहाँ सूफी संतों के रूप में मुस्लिम धर्मगुरु इस्लाम का प्रचार करने आए थे। दिनकर ने लिखा है कि इस्लाम को जन्म लिए सिर्फ अस्सी वर्ष हुए थे कि, इतने ही समय में, उसका झंडा भारत की सीमा पर पहुँच गया था।[9]
बौद्धों के वाणों से जो शास्त्रागार शंकर ने तैयार किया था, उसका अभिप्राय तत्कालीन विभिन्न धर्म-दर्शनों का खंडन कर अपने अद्वैत मत की स्थापना करना था, किन्तु साथ ही हिन्दू धर्म का पुनर्जागरण करना था।[10] शंकर ने निर्वाणी और निरंजनी नामक दो सशस्त्र सैन्य दल भी बनाए थे, जिनका काम बलात मुसलमान हुए हिन्दुओं को पुन: हिन्दू बनाना था।[11] शंकर के अद्वैत मत—‘एकोहं द्वितीयोनास्ति’ (एक ही है, दूसरा कोई नहीं है) पर भी इस्लाम की छाया है। उसका बौद्ध धर्म से कुछ भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि बौद्ध धर्म भौतिकवादी और अनीश्वरवादी है। सही मायने में ‘एकोहं द्वितीयोनास्ति’ पर ‘ला-इला ह इल्लल्लाहु’ की छाप है, जिसका अर्थ है, कोई पूज्य नहीं है, सिर्फ अल्लाह है। किन्तु जब शंकर के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ कि ब्राह्मण और शूद्र में एक ही ब्रह्म के होने से जातिभेद को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता, तो उसने तुरंत व्यवस्था दी कि जाति पूर्वजन्म का अनिवार्य परिणाम है और केवल उच्च कुल (वर्ण) में उत्पन्न लोग ही आत्मा और ब्रह्म के अंतर को समझ सकते हैं।[12]
ब्राह्मण पुनर्जागरण का दूसरा आन्दोलन रामानंद का भक्ति आन्दोलन था, जो इस्लाम की प्रतिक्रान्ति में वैदिक धर्म को बचाने के लिए शुरू हुआ था। चूँकि इस्लाम में जातपात नहीं थी, इसलिए रामानंद का नारा था— ‘जातपात माने नहिं कोई, हर को भजे सो हर का होई।’ पर सच यह है कि रामानंद द्वारा स्थापित वैष्णव सम्प्रदाय जाति-विहीन कभी नहीं हुआ था। इस आन्दोलन का मूल आधार विष्णु के अवतार राम की भक्ति था। उसके बाद ब्राह्मणों ने कृष्ण भक्ति का आन्दोलन भी चलाया। यह आन्दोलन किसी भी स्थिति में अवतारवाद, पुनर्जन्म और वर्णव्यवस्था का खंडन नहीं करता था। इस आन्दोलन के तहत वैष्णव बनाए गए अछूतों को मन्दिर के गर्भगृह में प्रवेश करने का अधिकार नहीं था। सभी वैष्णव छुआछूत को मानते थे, यह बात ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’[13] से भी सिद्ध होती है और ‘दो सौ बाबन वैष्णवन की वार्ता’ से भी, जिसमें वैष्णव शूद्रों के लिए ब्राह्मण वैष्णव की जूठन खाने का महात्म्य बताया गया है।[14]
इन वैष्णव आंदोलनों का विरोध नई चेतना के विचारक कबीर और रैदास आदि निम्न जातियों के कवियों ने किया था, जिन्होंने न सिर्फ वैदिक धर्म पर आधारित वैष्णववाद का खंडन किया, बल्कि एक जातिविहीन समतामूलक समाज के निर्माण का दर्शन भी जनता को दिया। मध्यकाल के भारतीय इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि निम्नवर्गीय विचारकों ने ब्राह्मण को गुरु मानने से ही इनकार किया। उन्होंने ईश्वर के साकार एवं सगुण रूप, उसके अवतारों और उसकी लीलाओं का खंडन किया। कबीर ने कहा कि वेदों की परिधि में ही जीने-मरने वाला ब्राह्मण कभी भी जगतगुरु नहीं हो सकता।[15] कबीर की तरह रैदास ने भी ब्राह्मण की उच्चता का खंडन किया तथा ब्राह्मण और चंडाल को एक समान माना।[16] रैदास ने तो भीख मांगकर खाने वाले ब्राह्मणों की निंदा करते हुए यहाँ तक कहा कि श्रम ही ईश्वर है और श्रम की पूजा से ही समाज सुखी और समृद्ध होगा।[17]
इससे स्पष्ट समझा जा सकता है कि मध्यकाल में ब्राह्मण पुनर्जागरण केवल वैदिक धर्म और उसकी वर्णव्यवस्था को कायम रखने का आन्दोलन था। और उसके विरुद्ध निम्न वर्गों के विचारकों के जबर्दस्त प्रतिरोध ने बहुजन समाज में क्रांतिकारी ज्ञानोदय (नवजागरण) किया था।
भारत में मुस्लिम राज ने ब्राह्मणों से समझौता कर लिया था। यह समझौता इस आधार पर किया गया था कि मुस्लिम शासक ब्राह्मणों की धार्मिक संस्थाओं को समाप्त नहीं करेंगे, चाहे वह वर्णव्यवस्था हो, सतीप्रथा हो, अस्पृश्यता हो, या शूद्र-अतिशूद्र और स्त्रियों के लिए शिक्षा का निषेध हो। इसके बदले में ब्राह्मण भारत में मुस्लिम राज को बने रहने में पूरा सहयोग देंगे। इसी समझौते के आधार पर भारत में मुस्लिम शासन आठ सौ साल तक कायम रहा। इन आठ सौ सालों में भारत में ब्राह्मणों ने मुस्लिम शासकों को खदेड़ने का कोई आन्दोलन नहीं चलाया। और इसलिए नहीं चलाया, क्योंकि मुस्लिम राज में ब्राह्मण सुरक्षित थे और ब्राह्मणों की सारी धार्मिक संस्थाएं सुरक्षित थीं। लेकिन अंग्रेजों ने आकर सारा गुड़-गोबर कर दिया। ब्राह्मणों को दिन में तारे नजर आने लगे। क्योंकि मुगलों के पतन के बाद भारत में अंग्रेजी राज कायम हो गया। भारत की इस स्थिति पर कार्ल मार्क्स की सटीक टिप्पणी थी–
‘यह कैसे हुआ? मार्क्स पूछते हैं, कि भारत के ऊपर अंग्रेजों का आधिपत्य कायम हो गया? और वह स्वयं उत्तर देते हैं, ‘महान मुगल की सर्वोच्च सत्ता को मुगल सूबेदारों ने तोड़ दिया था। सूबेदारों की शक्ति को मराठों ने नष्ट कर दिया था। मराठों की ताकत को अफगानों ने खत्म किया, और जब सब एक-दूसरे से लड़ने में लगे हुए थे, तब अंग्रेज घुस आए और उन सबको कुचलकर खुद स्वामी बन बैठे। एक देश, जो न सिर्फ मुसलमानों और हिन्दुओं, बल्कि कबीले-कबीले और वर्ण-वर्ण में बंटा हुआ हो; एक समाज, जिसका ढांचा उसके तमाम सदस्यों के पारस्परिक विरोधों तथा वैचारिक अलगावों पर आधारित हो—ऐसा देश और ऐसा समाज क्या दूसरों द्वारा विजित होने के लिए ही नहीं बनाया गया था?’[18]
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज कायम हुआ और उसने शासन संभालते ही दो महतवपूर्ण काम किए। एक, उसने कानून की नजर में सबको समान किया, और दो, शिक्षा को सार्वजनीन बनाया। इसके बाद उसने कुछ और भी सख्त कानून बनाए, जैसे अस्पृश्यता-निषेध, सती प्रथा प्रतिरोध और हिन्दू विधवा-पुनर्विवाह कानून।[19] ये कानून भारत के सिरमौर ब्राह्मण को धराशायी करने के लिए काफी थे। इसलिए उसने तिलमिलाकर तीसरा पुनर्जागरण आन्दोलन आरम्भ किया। इन कानूनों से तिलमिलाकर ही ब्राह्मणों ने देशी सामंतों से मिलकर ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार के खिलाफ 1857 का गदर करवाया था, जिसे कम्पनी सरकार ने अछूत रेजिमेंट बनाकर उसकी सहायता से उस गदर को कुचला था।[20]
जिस तरह इस्लाम की चुनौती ने भक्ति आन्दोलन को जन्म दिया था, उसी प्रकार ईसाईयत की चुनौती ने अंग्रेजी राज में ब्रह्म समाज को पैदा किया था। ब्रह्म समाज (1827) के संस्थापक बंगाल के राजा राममोहन राय थे, जिन्हें भारतीय नवजागरण का पहला जनक माना जाता है।[21] उन्होंने ब्रह्म समाज के धार्मिक-सामाजिक सुधारों को पूरे भारत में फ़ैलाने की कोशिश की थी, परन्तु बिहार, पश्चिमोत्तर और अवध प्रान्त में उसे कोई सफलता नहीं मिली थी।[22] दरअसल, जैसा कि कई विचारक मानते हैं, राजा राम मोहन राय का नवजागरण भक्ति आन्दोलन की ही अगली कड़ी था।[23] के. दामोदरन के अनुसार, 1828 में राजा राम मोहन राय ने लिखा था, ‘मेरा विचार है कि हिन्दू धर्म में कुछ न कुछ परिवर्तन होने ही चाहिए, कम से कम इसलिए कि हमको राजनीतिक तौर से लाभ हो और जनता को सामाजिक सुख मिल सके।’[24] इसका मतलब साफ़ था कि उनके आन्दोलन का मकसद राजनीतिक लाभ था। इसमें संदेह नहीं कि इस्लाम और ईसाई धर्म के एकेश्वरवाद ने उन पर गहरा प्रभाव डाला था और उसी से प्रभावित होकर उन्होंने बहुदेववाद, मूर्ति पूजा और सती प्रथा का विरोध किया था, किन्तु उनका मौलिक दृष्टिकोण हिन्दू धर्म पर ही आधारित था। उन्होंने एकेश्वरवाद का विकल्प वेदांत के ब्रह्मवाद, यानी ‘ब्रह्मजाल’ में खोजा था। वह उपनिषदों पर इतने मुग्ध थे कि उनके आगे किसी को कुछ न मानते थे।[25] 1833 में राजा मोहन राय की मृत्यु के बाद उनके समर्थक देवेन्द्रनाथ ठाकुर (1817-1907) और केशव चंद सेन (1838-1884) ने ब्रह्म समाज को चलाया। उन्होंने 1843 में ब्रह्म समाज का जो प्रतिज्ञा-पत्र जारी किया, उसमें वर्ण व्यवस्था का कहीं खंडन नहीं था। उसमें कहा गया था—
‘ईश्वर एक वैयक्तिक सत्ता है, जो श्रेष्ठतम नैतिक गुणों से विभूषित है. ईश्वर ने कभी कोई अवतार
नहीं लिया। ईश्वर प्रार्थनाएँ सुनता है और उनका उत्तर भी देता है। मन्दिर तथा पूजा-पाठ के निश्चित स्थान अनावश्यक है। सभी जातियों और सभी नस्लों के व्यक्तियों को ईश्वर की आराधना का अधिकार है। प्रकृति और सभी अंत:प्रज्ञा ईश्वर ज्ञान के स्रोत हैं। कोई भी ग्रन्थ प्रामाणिक नहीं है।’[26]
राजा मोहन राय के बाद आए स्वामी दयानंद, जिन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की और नारा दिया—‘वेदों की ओर लौटो।’[27] क्या इसे हम नवजागरण कहेंगे, जो हिन्दुओं को वेदों की ओर ले जा रहा था? सच तो यह है कि दयानंद हिन्दुओं को जागरूक नहीं कर रहे थे, बल्कि उनको हजारों साल पीछे उस युग में ले जा रहे थे, जहाँ वर्णव्यवस्था थी, स्त्रियों के साथ भोगविलास था, यज्ञ के नाम पर निरीह पशुओं की हत्याएं थीं[28] और अपने से भिन्न विचार के लोगों के साथ शत्रुता और उनका संहार था। के. दामोदर के शब्दों में, ‘दयानंद सरस्वती का प्रत्येक कार्य पुराने ढर्रे का और प्रतिक्रियावादी था। उन्होंने बहुदेववाद, मूर्ति पूजा और बाल विवाह तथा शिक्षा के द्वारा नीची जाति के हिन्दुओं और स्त्रियों के स्तर को उंचा उठाने का प्रयत्न जरूर किया था, पर इन सबके पीछे उनका उद्देश्य हिन्दू धर्म को सुदृढ़ बनाना था।’[29]
अगर जनता को अंधकार से प्रकाश में लाने का नाम नवजागरण है, तो भारत में यह नवजागरण बहुजन समाज के नायकों ने किया था। इस नवजागरण में हिंदुत्व का पुनरुत्थान नहीं था, जिसके लिए राजा राम मोहन राय और स्वामी दयानंद जैसे ब्राह्मण नेताओं के साथ-साथ स्वामी विवेकानंद जैसे अब्राह्मण नेता भी सक्रिय थे, बल्कि हिंदुत्व और उसके शास्त्रों का निषेध था, तथा शूद्रों-अतिशूद्रों की स्वतंत्रता एवं मुक्ति का आह्वान था। यह आह्वान बंगाल में चाँद गुरु, महाराष्ट्र में जोतिबा फुले और डा. आंबेडकर, उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’, मद्रास (तामिलनाडू) में रामास्वामी नायकर और केरल में नारायण गुरु ने किया था।
यह नवजागरण बहुजन-नवजागरण था, जिसका सूत्रपात महाराष्ट्र में जोतीराव फुले (1827-1890) ने किया था। जैसा कि उनके जीवनी-लेखक धनञ्जय कीर ने लिखा है, वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने आधुनिक भारत में अछूतों, शूद्रों और स्त्रियों के लिए, स्वतन्त्रता, गरिमा और मुक्ति का, एक नया युग आरम्भ किया था। वह पहले भारतीय थे, जिन्होंने महाराष्ट्र में अछूतों और लड़कियों की शिक्षा के लिए स्कूल खोला था, जो भारत में कहीं भी खुलने वाला पहला स्कूल था। उन्होंने शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के अज्ञान और अन्धविश्वास को हटाकर उनकी गुलामी की जंजीरों को तोडा था। उन्होंने वीरतापूर्वक निम्न वर्गों और भारतीय स्त्रियों के लिए ज्ञान के दरवाजे खोले थे। उनका उद्देश्य सामाजिक समानता, न्याय और विवेक के आधार पर समाज-व्यवस्था का पुनर्निर्माण करना था।[30] फुले ने ‘गुलामगिरी’ में हिन्दू धर्म की अवतार-कल्पना पर प्रहार किया, जिसमें ब्राह्मणवादी वैचारिक ढांचे को तोड़कर एक नई और न्यायसंगत व्यवस्था को उभारा। देशपांडे ने इसे ठीक ही इतिहास का शूद्र-पुनर्लेखन कहा है।[31] निस्संदेह, बहुजन नायकों ने इतिहास का पुनर्लेखन और निर्माण बहुजनों को अंधकार से प्रकाश में लाने के लिए किया था।
ठीक इसी समय केरल में नारायण गुरु (1854-1928) हुए, जो ईझवा अछूत जाति में पैदा हुए थे। उन्होंने सभी मनुष्यों के लिए ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ की घोषणा की। कारण, केरल में उच्च जातियों के लोग नीची जाति के देवताओं से घृणा करते थे, सो उन्होंने इन देवी-देवताओं के स्थान पर एक ही ईश्वर को प्रतिष्ठित कर जनता को एकजुट करने का काम किया। के. दामोदरन के शब्दों में ‘नारायण गुरु ने सामन्ती व्यवस्था पर जो आक्रमण किया, वह अत्यंत प्रभावशाली था। श्री नारायण गुरु ने जातिप्रथा का विरोध किया और आधुनिक शिक्षा तथा संस्कृति को प्रोत्साहित किया। उनका आन्दोलन उस नवजागरण का अभिन्न हिस्सा था, जो उस समय समूचे भारत में हो रहा था और इसने केरल में सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष में एक महान भूमिका अदा की थी।’[32]
मध्यप्रदेश के इलाके में गुरु घासीदास (1756-1850) ने सामन्तवाद और जातिप्रथा का विरोध किया और दलित-पिछड़ी जातियों में स्वाभिमान, गरिमा और मुक्ति का आन्दोलन चलाया। यद्यपि गुरु घासीदास का आन्दोलन धार्मिक प्रकृति का था, पर उसका मूल आधार कबीर और रैदास साहेब का दर्शन था, जिसने ब्राह्मणवाद के खिलाफ जबर्दस्त अलख जगाई थी। इसी तरह बंगाल में नमो शूद्र आन्दोलन चला, जिसके प्रवर्तक चंडाल जाति में जन्मे चाँद गुरु (1850-1930) थे। चंडालों में शिक्षा को अनिष्ट का कारण माना जाता था। इसी अन्धविश्वास के चलते चाँद गुरु भी नहीं पढ़ सके थे। किन्तु, उन्होंने इस धारणा का खंडन किया और अछूतों के लिए स्वयं स्कूल खोला। 1891 में उन्होंने चंडाल शब्द के विरुद्ध आन्दोलन चलाया। यह आन्दोलन इतना प्रभावशाली था कि अंग्रेज सरकार को चंडाल शब्द को प्रतिबंधित करने का आदेश जारी करना पड़ा। उन्होंने ‘मतुआ धर्म’ चलाया चांडालों को ‘नम: शूद्र’ नाम दिया। 1912 में उन्होंने इसी नाम से एक पत्रिका भी निकाली थी, जिसके सम्पादक आदित्य चौधरी थे। उन्होंने हिन्दुओं के मन्दिरों में प्रवेश का विरोध किया, और अपना अलग मन्दिर स्थापित किया। उन्होंने चांडालों से कराए जाने वाले गंदे कार्यों का बहिष्कार किया, और उन्हें स्वाभिमान तथा गरिमा से जीना सिखाया।[33]
मद्रास प्रान्त में, जो आज तमिलनाडु है, पेरियार रामासामी नायकर (1879-1973) का नवजागरण वर्णव्यवस्था, ब्राह्मणवाद, मूर्तिपूजा और ईश्वरवाद को उखाड़ फेंकने का आन्दोलन था। उन्होंने कहा, ‘आप ईश्वर की अवधारणा रचने वाले व्यक्ति को माफ़ कर सकते हैं, वह मूर्ख था, वह अपनी बौद्धिक अक्षमता की वजह से ऐसा विचार तैयार करने पर मजबूर हुआ। लेकिन धर्म और धर्म-शास्त्र (आत्मा, स्वर्ग, नर्क) आदि का निर्माण करने वाला व्यक्ति ईमानदार नहीं रहा होगा। उसने ऐसा केवल लोगों को भयभीत करने के लिए किया।’[34] उन्होंने धर्म, जाति और राष्ट्रवाद के गठजोड़ के विरोध में द्रविड़ों में आत्म-सम्मान आन्दोलन शुरू किया।[35] उन्होंने द्रविड़ों को जागरूक करते हुए कहा, ‘हिन्दू धर्म का पूरा ब्योरा वेदों, शास्त्रों और पुराणों में मिलता है। उसके इतिहास में कुछ मिथकीय किस्से जुड़े हैं। इस धर्म के मुताबिक हम चौथी और पांचवी जाति में आते हैं। इस हिसाब से हमें उपरोक्त ग्रंथों को पढने तक की इजाजत नहीं है। वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि सभी ने हमारे लोगों को नीचा दिखाया है, हमें बेईमान के रूप में चित्रित किया गया और कई तरह से हमें अपमानित किया गया। इसलिए हम कहते हैं कि ईश्वर, धर्म, धर्म-सिद्धांत, पुराणों और इतिहास आदि में भरोसा समाप्त करना होगा।’[36]
जैसा कि शुरू में कहा जा चुका है, उत्तर भारत में स्वामी अछूतानन्द ‘हरिहर’ (1879-1933) के आदि हिन्दू आन्दोलन की भी बहुजन समाज के जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने दलित-पिछड़ी जातियों की पहिचान आदि हिन्दू के रूप में की थी। वे पहले कवि, नाटककार, संपादक, पत्रकार और प्रचारक थे, जिन्होंने अपने अल्प जीवन काल में पहला आदि हिन्दू प्रेस और पहला आदि हिन्दू अखबार कायम किया था। उन्होंने कविता और नाटकों के माध्यम से ब्राह्मणवाद की असली तस्वीर बहुजन समाज के समक्ष रखी थी। उनके नाटकों– मायानन्द बलिदान और रामराज्य न्याय अर्थात शम्बूक वध ने बहुजन समाज को उस अन्याय से परिचित कराया था, जिनसे वह पूरी तरह अनजान था।[37]
बिहार में 1933 में त्रिवेणी संघ की स्थापना हुई। कहा जाता है कि यह तीन जातियों का संगठन था, पर मनीष रंजन ने इसका खंडन किया है। उनके अनुसार, यह दलितों, पिछड़ों और व्यापरियों का संघ था, जिसकी मान्यता थी, ‘जब तक धार्मिक साम्राज्यवाद, सामाजिक साम्राज्यवाद, राजनीतिक साम्राज्यवाद तथा आर्थिक साम्राज्यवाद का अंत न होगा, तब तक सुराज्य हो ही नहीं सकता।‘[38] त्रिवेणी संघ के बारे में मनीष रंजन लिखते हैं कि ‘बिहार में ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद से मुक्ति की शुरूआती लड़ाई त्रिवेणी संघ ने ही लड़ी थी। उसने ब्राह्मण–विधि से अलग जयमाला और प्रतिज्ञा पत्र शादी तथा भंडारा कर श्राद्ध शुरू किया, जिसमें ब्राह्मण की कोई आवश्यकता नहीं थी।’[39] त्रिवेणी संघ ने ब्राह्मण ग्रंथों में दर्ज शूद्रविरोधी आदेशों का भी विरोध किया था। एक बानगी देखिए–
‘ब्राह्मणों ने तो यहाँ तक लिख डाला है कि ‘शक्तेनापि च शूद्रेण न कार्यों धनसंचयः, अर्थात ‘यदि शूद्र धन संचय करने की भी शक्ति रखता हो, तो भी वह धन संचय न करे।‘ ठीक है, बाबाजी महाराज! यदि शूद्र धनी हो जाएगा तो आपकी गुलामी कौन करेगा? और आपका हल कौन चलावेगा? धन्य हैं महाराज! आपने यहीं तक नहीं, यह भी लिखा डाला है कि –
‘विस्रब्धं ब्राह्मणःशूद्रात् द्रव्यापादनमाचरेत्।
नहि तस्यास्रिं किचितस्वं भर्तृहार्य धनोहिसः।।
यानी, ‘शूद्र के पास धन हो तो ब्राह्मण उसे मालिक (राजा–जमींदार) से छिनवाकर ले लेवे।‘
अब ऐसा न होगा महाराज! त्रिवेणी संघ ऐसे अन्यायों, अत्याचारों और अँधेरखातों को जड़ से साफ कर देना चाहता है और आर्थिक क्षेत्र में (धन पैदा करने में) सबको समान अधिकार दिलाना चाहता है।
त्रिवेणी संघ– जो आदमी, एक अदना–सा चपरासी, एक चार पैसेवाले महाजन, एक छोटे से जमींदार के सामने ‘हुजूर अन्नदाता’, ‘मालिक’ कहकर नाक रगड़ता है, उसे आदमी बनाना चाहता है और सभी के हृदय में स्वतंत्रता का बिगुल फूँक देना चाहता है, ताकि भारत को स्वतंत्रता शीघ्र प्राप्त हो जाए।‘[40]
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त्रिवेणी संघ का कार्य क्षेत्र व्यापक नहीं था, वह शाहाबाद और उसके आसपास के इलाकों तक ही सीमित था। लेकिन उसने बहुजन समाज को ब्राह्मणवाद और जातिप्रथा के खिलाफ संगठित करने का जो काम किया था, वह भले ही दलित-पिछड़ों को कांग्रेस के स्वराज आन्दोलन से
भारत में सबसे बड़ा नवजागरण, जिसने नए युग और नए भारत का निर्माण किया, बाबासाहेब डॉ. बी. आर. आंबेडकर (1891-1956) ने महाराष्ट्र में किया था। उन्होंने फ्रांस की राज्य क्रान्ति से प्रभावित होकर सामाजिक असमानता के खिलाफ एक बड़ा आन्दोलन महाड में चलाया था। 1789 की अगस्त क्रान्ति ने एक मनुष्य, एक नागरिक के अधिकारों का घोषणा पत्र जारी किया था। बाबासाहेब ने 1927 में महाड में एक हिन्दू, एक नागरिक के अधिकारों का घोषणा पत्र जारी किया था। दोनों घोषणा पत्रों का अगर तुलनात्मक अध्ययन किया जाए, दोनों में बड़ी समानता मिलेगी। फ़्रांस की तर्ज पर ही एक हिन्दू के घोषणा पत्र में कहा गया था कि ‘जन्म से सभी हिन्दू समान हैं और उनकी समान सामाजिक स्थिति है। सामाजिक स्थिति समानता का वह गुण है, जो मृत्यु पर्यंत बना रहता है। समाज में उनके कार्यों के दृष्टिकोण से उनके बीच अंतर और भेद हो सकते हैं। लेकिन इससे उनकी सामाजिक स्थिति में अंतर नहीं आता है। इसलिए, यह सम्मेलन ऐसी किसी भी कार्रवाई का विरोध करता है, जो सामाजिक स्थिति में अंतर पैदा करता है। कानून किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के संस्था की आज्ञा नहीं है, बल्कि वह कानून परिवर्तन के लिए लोगों का अधिकार है।’[41] उसी सम्मेलन में, जो डा. आंबेडकर ने महाड में किया था, असमानता को स्थापित करने वाले हिन्दू कानून–मनु स्मृति–को जलाकर सामाजिक समानता का बिगुल बजाय था। इस सम्बन्ध में पारित प्रस्ताव में कहा गया था— ‘हिन्दू आचार संहिता के रूप में मानी जानी वाली मनुस्मृति का कानून निम्न जातियों के लोगों को अपमानित करता है, उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित करता है और उनके व्यक्तित्व को कुचलता है। सम्पूर्ण सभ्य जगत में स्वीकार किए जाने वाले मानवाधिकारों के प्रकाश में मनुस्मृति इस योग्य नहीं है कि उसे किसी तरह का सम्मान दिया जाए। ऐसे कानून को जला देना ही उचित है।’[42]
डा. आंबेडकर ने बताया कि वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता को स्थापित करने में बड़ी भूमिका हिन्दू धर्म धर्म शास्त्रों की है, जिन्हें हिन्दू जनता पवित्र मानकर उन पर श्रद्धा रखती है। इसलिए, उन्होंने कहा कि जब तक इन शास्त्रों को डायनामाइट लगाकर ध्वस्त नहीं किया जायगा, तब तक हिन्दू समाज से वर्णव्यवस्था और अस्पृश्यता का खात्मा नहीं किया जा सकता।[43] भारतीय नवजागरण के सम्पूर्ण इतिहास में शास्त्रों को ध्वस्त करने का ऐसा क्रांतिकारी विचार डा. आंबेडकर के सिवा किसी अन्य के विचार में कभी नहीं आया था। वे जाति को एक राष्ट्र-विरोधी अवधारणा मानते थे, और कहते थे कि जब तक जाति का विनाश नहीं होगा, तब तक भारत कभी एक राष्ट्र नहीं हो सकता। जाति हिंदुत्व का वह आवश्यक अंग है, जो उससे अलग नहीं हो सकता। इसलिए डा. आंबेडकर ने हिन्दू राज का विरोध किया था, जिसे भारत में हिन्दू महासभा के नेता स्थापित करना चाहते थे। उन्होंने कहा था, ‘यदि हिन्दू राज की स्थापना सच में हो जाती है तो निस्संदेह यह देश का सब से बड़ा दुर्भाग्य होगा। हिन्दू नेता चाहे कुछ भी कहें, पर हिंदुत्व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। यह लोकतंत्र के प्रतिकूल है। अत: किसी भी कीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोकना होगा।’[44]
बहुजन नायकों ने सबसे बड़ा नवजागरण भारत के स्त्री-जगत में किया था। जहाँ जोतीराव फुले ने भारत का पहला स्कूल खोलकर स्त्रियों की शिक्षा के बंद दरवाजे खोले थे, तो डा. आंबेडकर ने संसद में हिन्दू कोड बिल प्रस्तुत करके स्त्री को पति से तलाक और पिता की संपत्ति में हिस्सेदारी का अधिकार दिलवाया था। यह स्त्री-मुक्ति की दिशा में सबसे बड़ी क्रांति थी।
उत्तर भारत में ब्राह्मणवाद और सामन्तवाद के खिलाफ व्यापक नव जागरण के प्रवर्तक भदन्त बोधानंद थे, जिनकी नव रत्न कमेटी दलित-पिछड़े समाज को दासता की नींद से जगाने के लिए प्रबल प्रयास था। इस कमेटी में स्वामी अछूतानन्द, राम सहाय पासी, राम चरण मल्लाह, शिवदयाल सिंह चौरसिया, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, महादेव प्रसाद धानुक, वैद्यरत्न बदलू राम रसिक और गौरी शंकर पाल, ये आठ रत्न थे, और नौवें वे स्वयं थे. बोधानन्द जी जन्म से ब्राह्मण थे, पर वे हिन्दू धर्म में व्याप्त ब्राह्मणवादी अंधविश्वासों, कुरीतियों और पोंगापंथी ढकोसलों से बहुत दुखी थे। उन्होंने सुधार के लिए बहुत प्रयास किए, पर सभी प्रयास बेकार रहे। अत: उन्होंने हिन्दू धर्म को त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया। बौद्ध भिक्षु होकर उन्होंने रिसालदार पार्क लखनऊ में एक भूखंड खरीदकर बुद्ध विहार तथा पुस्तकालय की स्थापना की।[45]
भदन्त बोधानंद के शिष्य चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु यदि 1965 में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर ‘भदन्त बोधानंद महास्थविर’ नामक पुस्तक नहीं लिखते, तो बहुजन समाज के जागरण में उनके योगदान को कोई भी नहीं जान पाता। अत: बोधानंद जी के जीवन-संघर्ष को जानने के लिए एकमात्र साधन जिज्ञासु जी की यही पुस्तक है। जिज्ञासु जी लिखते हैं, ‘सन 1928 में लखनऊ में एक नवरत्न कमेटी की स्थापना की, जिसमें दलित-पिछड़ी जातियों के कई वकील और दूसरे समझदार लोग थे। अंत में यह कमेटी विस्तृत होकर ‘हिन्दू बैकवर्ड क्लासेज लीग’ अथवा ‘मूल भारतवासी समाज’ नाम से एक संस्था बन गई, जिसके प्रवर्तक श्री स्वामी जी महाराज (बोधानन्द) थे।‘ इस संस्था ने दलित-पिछड़ी जातियों को न सिर्फ सामाजिक, बल्कि राजनीतिक रूप से भी जागृत किया।
भदन्त बोधानंद के बाद उनकी बहुजन वैचारिकी का परिपूर्ण रूप में सतत विकास हम उनके शिष्य चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु के साहित्य में देखते हैं। उन्होंने 1937 में ‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’ पुस्तक का प्रकाशन किया, जिसके द्वारा उन्होंने बहुजन समाज की वैचारिकी स्थापित की। उन्होंने इस पुस्तक को देश के मजदूरों, दबे-कुचले-शोषित और पिछड़े वर्गों को संबोधित किया। उन्होंने उसके परिचय में लिखा–
‘’80 प्रतिशत भारतीय कृषक, मजदूर, शिल्पकार आदि दबी-पिछड़ी हिन्दू जातियों की प्राचीन गौरवपूर्ण सभ्यता के सम्बन्ध में वेद-पुराण आदि की साक्षी, जन-विज्ञान व भाषा-विज्ञान की छानबीन और पुरातत्व की खोजों व इतिहासविदों द्वारा जाना गया हाल।’[46]
जहाँ से उन्होंने किताब को शुरू किया, उसके आदि में यह छंद लिखा–
‘आदि निवासी बंधु! लीजिए, यह निज गौरवशाली इतिहास।
आर्य जाति ने छल-कौशल से जिसे कर दिया था सब नाश।
पढ़िए इसे मिटाकर मन की सब दुर्बलता, भ्रम, तम, त्रास।
हृदय-कमल यह खिला करेगा नवजीवन का दिव्य प्रकाश।’[47]
जिज्ञासु ने इन 80 प्रतिशत दबी-कुचली, अछूत और पिछड़ी जातियाँ को ‘बहुजन समाज’ का नाम दिया था। उन्होंने लिखा कि ‘इन वर्गों में पर्याप्त मेधा-शक्ति है, पर ब्राह्मणों ने उन्हें विकास के अवसर नहीं दिए। जो एक बड़ी बाधा है, जिससे भारतीय राष्ट्र संसार के शक्तिशाली राष्ट्रों के समतुल्य शक्तिशाली नहीं बनने पाता। यहाँ सत्ताधारी अल्पसंख्यक गुट अस्सी प्रतिशत बहुजन समाज को हमेशा अपना आज्ञावाहक दास बनाए रखने में सजग और सक्रिय दिखाई देता है। तथा ब्राह्मण अपनी प्रभुताई, गुरुआई और पूजनीयता को अक्षुण्ण रखने की चिंता में चूर हैं।’[48]
चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने बहुजन वैचारिकी के साहित्य के प्रसार के लिए ‘बहुजन कल्याण प्रकाशन’ की स्थापना की, और उसके माध्यम से कबीर, रैदास, बुद्ध, डा. आंबेडकर, रामास्वामी नायकर और अन्य प्रगतिशील विचारकों के विचारों को ‘बहुजन माला’ के अंतर्गत जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया। उन्होंने 1961 में ‘बाबासाहेब का जीवन संघर्ष’ पुस्तक लिखी, जिसको पढ़कर हिंदी क्षेत्र की नयी पीढ़ी डा. आंबेडकर और उनके नेतृत्व से परिचित हुई। इसके अतिरिक्त उन्होंने बाबासाहेब की अनेक कृतियों के हिन्दी में अनुवाद कराके प्रकाशित किये, जिनमें ‘बाबासाहेब के पन्द्रह व्याख्यान’, ‘अछूतों की विमुक्ति और गाँधी’, ‘शूद्रों की खोज, अछूत कौन और कैसे’, ‘जातिभेद का उच्छेद’, ‘बाबासाहेब का उपदेश और आदेश’, ‘बाबासाहेब की भविष्य वाणी’, ‘पूना पैक्ट बनाम गाँधी’, ‘गाँधी आंबेडकर विवाद’, ‘कांग्रेस और गाँधी ने अछूतों के लिए क्या किया’, ‘भारत का विभाजन अथवा पकिस्तान’, ‘हिन्दू नारी का उत्थान और पतन’, ‘गांधीवाद की मीमांसा’, ‘भारत में जातिवाद’, और ‘रूपये की समस्या’ थीं। महाराष्ट्र सरकार द्वारा सम्पूर्ण रचनावली प्रकाशित करने से दो दशक पहले ही उन्होंने बाबासाहेब की प्रमुख रचनाओं को हिंदी में प्रकाशित करा दिया था।
इसके अतिरिक्त जिज्ञासु जी ने ‘शिव तत्व प्रकाश’, ‘रावण और उसकी लंका’, ‘ईश्वर और उसके गुड्डे’, ‘पिछड़े वर्ग के वैधानिक अधिकारों का सरकार द्वारा हनन’, ‘संत प्रवर रैदास’, ‘बौद्ध धर्म ही भारत का सच्चा धर्म’, ‘शम्बूक वध नाटक’, ‘आदिवंश का डंका’, ‘आर्य नीति का भंडाफोड़’, ‘हिन्दू संस्कृति में वर्णव्यवस्था और जातिभेद’, ‘मनुस्मृति : एक प्रतिक्रिया’ शीर्षक पुस्तकों का प्रकाशन किया, जिनमें अधिकांश के लेखक वह स्वयं थे। यह वह लेखन था, जो हिंदी साहित्य में क्रांतिकारी था, पर ब्राह्मणों ने उसका नोटिस नहीं लिया था।
इसी बहुजन वैचारिकी से कानपुर के ललई सिंह यादव भी जुड़े। वह सामाजिक समानता के लिए ब्राह्मणवाद के विरुद्ध खड़े हुए। वह 1933 में ग्वालियर की सशस्त्र पुलिस बल में बतौर सिपाही भर्ती हुए थे। पर कांग्रेस के स्वराज का समर्थन करने के कारण दो साल बाद बरखास्त कर दिए गए। उन्होंने अपील की और अपील में वह बहाल कर दिए गए। 1946 में उन्होंने ग्वालियर में ही ‘नान-गजेटेड मुलाजिमान पुलिस एण्ड आर्मी संघ’ की स्थापना की, और सर्वसम्मति से उसके अध्यक्ष बने। इस संघ के द्वारा उन्होंने पुलिस कर्मियों की समस्याएं उठाईं और उनके लिए उच्च अधिकारियों से लड़े। जब अमेरिका में भारतीयों ने लाला हरदयाल के नेतृत्व में ‘गदर पार्टी’ बनाई, तो भारतीय सेना के जवानों को स्वतन्त्रता आन्दोलन से जोड़ने के लिए ‘सोल्जर ऑफ दि वार’ पुस्तक लिखी गई थी। ललई सिंह ने उसी की तर्ज पर 1946 में ‘सिपाही की तबाही’ किताब लिखी, जो छपी तो नहीं थी, पर टाइप करके उसे सिपाहियों में बांट दिया गया था। लेकिन जैसे ही सेना के इंस्पेक्टर जनरल को इस किताब के बारे में पता चला, उसने अपनी विशेष आज्ञा से उसे जब्त कर लिया। ‘सिपाही की तबाही’ वार्तालाप शैली में लिखी गई किताब थी। यदि वह प्रकाशित हुई होती, तो उसकी तुलना आज महात्मा जोतिबा फुले की ‘किसान का कोड़ा’ और ‘अछूतों की कैफियत’ किताबों से होती।
सेवा से निवृत्त होने के बाद ललई सिंह ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और अपने नाम से यादव हटा दिया। उन्होंने ‘अशोक पुस्तकालय’ नाम से प्रकाशन संस्था कायम की और अपना प्रिन्टिंग प्रेस लगाया, जिसका नाम ‘सस्ता प्रेस’ रखा था। उसके माध्यम से उन्होंने बहुजन समाज को जागृत करने वाले साहित्य प्रकाशन का काम आरम्भ किया। उन्होंने पाँच नाटक लिखे- (1) अंगुलीमाल नाटक, (2) शम्बूक वध, (3) सन्त माया बलिदान, (4) एकलव्य, और (5) नाग यज्ञ नाटक। गद्य में भी उन्होंने तीन किताबें लिखीं थीं- (1) शोषितों पर धार्मिक डकैती, (2) शोषितों पर राजनीतिक डकैती, और (3) सामाजिक विषमता कैसे समाप्त हो? इसके सिवा उनके ‘राजनीतिक-सामाजिक राकेट’ तो लाजवाब थे। यह हिन्दी साहित्य के समानान्तर नई वैचारिक क्रान्ति का साहित्य था, जिसने हिन्दू नायकों और हिन्दू संस्कृति पर दलित वर्गों की सोच को बदल दिया था। यह नया विमर्श था, जिसका हिन्दी साहित्य में अभाव था। ललई सिंह के इस साहित्य ने बहुजनों में ब्राह्मणवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना पैदा की और उनमें श्रमण संस्कृति और वैचारिकी का नवजागरण किया।
इस कड़ी में रायसाहेब रामसहाय पासी, शिवदयाल सिंह चौरसिया, छंगा लाल बहेलिया, भूलन प्रसाद, डा. गयाप्रसाद प्रशांत, नारायण दास, रामस्वरूप वर्मा, जगदेव प्रसाद, मंगल देव विशारद, महाराज सिंह भारती, क्षेत्रपाल सिंह यादव, महावीर प्रसाद बनौधा इत्यादि भी बहुजन वैचारिकी के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हुए हैं(
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
[1] दलित एंड अपर कास्ट्स : एसेज इन सोशल हिस्ट्री, पहला संस्करण 2005, कनिष्क पब्लिशर्स, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, पृष्ठ 52.
[2] वह
[4] दि कास्ट क्वेश्चन, परमानेंट ब्लैक, रानीखेत, पहला पेपरबैक संस्करण 2010, पृष्ठ 12-13
[5] वही, पृष्ठ 44
[6] वही, पृष्ठ 48
[7] राहुल सांकृत्यायन, दर्शन-दिग्दर्शन, किताब महल, इलाहाबाद, 1998, पृष्ठ 663
[8] डा. बी. आर. आंबेडकर, पाकिस्तान का विभाजन अथवा पकिस्तान, अनुवादक : दयाराम जैन, बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, दूसरा संस्करण 1992, पृष्ठ 48
[9] रामधारी सिंह दिनकर, संस्कृति के चार अध्याय, उदयाचल, आर्य कुमार रोड, पटना, तृतीय संस्करण 1962, पृष्ठ 266
[10] वाचस्पति गैरोला, भारतीय धर्म-शाखाएँ और उनका इतिहास, चौखम्बा सुर भारती प्रकाशन, वाराणसी, प्रथम संस्करण 1988, पृष्ठ 237
[11] वही, पृष्ठ 237
[12] के. दामोदरन, भारतीय चिंतन परम्परा, अनुवादक : जी. श्रीधरन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण 1979, पृष्ठ 270
[13] गोस्वामी गोकुलनाथ कृत चौरासी वैष्णवन की वार्ता, सं. डा. कमला शंकर त्रिपाठी, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ, प्रथम संस्करण 2008, पृष्ठ 116-118
[14] विट्ठल नाथ कृत दो सौ बाबन वैष्णवन की वार्ता, वैंकटेश्वर प्रेस, बम्बई, प्रथम संस्करण संवत 2045, पृष्ठ 89
[15] ब्राह्मण गुरु जगत का, साध का गुरु नाहीं/ उरझि-पुरझि करि मरि रह्या, चारिउ वेदां माहीं.—कबीर समग्र, सं. डा. युगेश्वर, प्रथम खंड, हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी, दूसरा संस्करण 1995, पृष्ठ 280
[16] रविदास ब्राह्मण मत पूजिए, जो होवे गुण हीन/ पूजिए चरन चंडाल के, जो हो गुण परवीन.—संत रैदास : एक विश्लेषण, कँवल भारती, बोधिसत्त्व प्रकाशन, रामपुर, दूसरा संस्करण 2000, पृष्ठ 169
[17] श्रम कउ ईश्वर जानि के, जो पूजहि दिन रेन, रविदास तिनहि संसार मह, सदा मिलहि सुख चैन.—वही, पृष्ठ 162
[18] के. दामोदरन, उपर्युक्त, पृष्ठ 341, (कार्ल मार्क्स : दि फ्यूचर रिजल्ट्स ऑफ़ ब्रिटिश रूल इन इंडिया, न्यूयार्क ट्रिब्यून, 8 अगस्त, 1853.
[19] डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेस, वाल्यूम 12, दि अनटचएबिल्स एंड दि पैक्स ब्रिटानिका, शिक्षा विभाग, महाराष्ट्र सरकार, बम्बई, प्रथम संस्करण 1993, पृष्ठ 126-132
[20] वही, पूरा आलेख देखें.
[21] वीर भारत तलवार, रस्साकशी : 19वीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त, सारांश प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 2002, पृष्ठ 143
[22] वही.
[23] के. दामोदरन, उपर्युक्त, पृष्ठ 363
[24] वही, पृष्ठ 364
[25] रामविलास शर्मा, स्वाधीनता संग्राम : बदलते परिप्रेक्ष्य, हिंदी माध्यम कार्यान्वय निदेशलय, दिल्ली विश्विद्यालय, दिल्ली, प्रथम संस्करण, 1992, पृष्ठ 96.
[26] के. दामोदरन, उपर्युक्त, पृष्ठ 369
[27]वही, पृष्ठ 388
[28] वही, 388-89
[29] वही, 389.
[30] धनञ्जय कीर, महात्मा जोतीराव फुले : फादर ऑफ़ दि इंडियन सोशल रेवोलूशन, पॉपुलर प्रकाशन, बम्बई, सेकंड एडिशन 1974, प्रीफेस, पृष्ठ vii.
[31] जी. पी. देशपांडे, सिलेक्टेड राइटिंग्स ऑफ़ जोतीराव फुले, लेफ्टवर्ड बुक्स, नई दिल्ली, फर्स्ट एडिशन 2002, एकनोलिजमेंट्स, पृष्ठ 7
[32] के. दामोदरन, उपर्युक्त, पृष्ठ 386-387
[33] देखिए, दलित विमर्श की भूमिका, कँवल भारती, इतिहासबोध प्रकाशन. इलाहाबाद, दूसरा संस्करण 2002, पृष्ठ 56-57.
[34] पेरियार के प्रतिनिधि, सं. प्रमोद रंजन, दि मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण 2016, पृष्ठ 68-69.
[35] वही, देखिए, ब्रजरंजन मणि का आलेख, पृष्ठ 34.
[36] वही, देखिए, ईश्वर का अंत, पृष्ठ 69.
[37] देखिए, महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा 2011 में प्रकाशित ‘स्वामी अछूतानन्द :रचना संचयन’, सं. कँवल भारती.
[38] मनीष रंजन द्वारा 18/8/2018 को नेट पर डाली गई पुस्तिका, त्रिवेणी संघ का विगुल, लेखक : त्रिवेणी बन्धु चौधरी जे. एन. पी. मेहता, प्रकाशक : त्रिवेणी शक्ति कार्यालय, जितौरा, शाहाबाद, पहला संस्करण 1940. से साभार.
[39] वही.
[40] वही.
[41] डा. बाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 5, एजुकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ़ महाराष्ट्र, बम्बई, 1989, पृष्ठ 253-254.
[42] वही, पृष्ठ 254.
[43] वही, वाल्यूम 1, 1989, एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट, पृष्ठ 74-75.
[44] वही, वाल्यूम 8, 1990, थॉट्स ऑन पाकिस्तान, पृष्ठ 358.
[45] उत्तर प्रदेश में दलित आन्दोलन, डा. अंगने लाल, गौतम बुक सेंटर, प्रथम संस्करण 2011, पृष्ठ 28-29/
[46] चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ग्रंथावली, सं. कँवल भारती, खंड 1, भारत के आदि निवासियों की सभ्यता, पहला संस्करण 2017, पृष्ठ 33.
[47] वही, पृष्ठ 42
[48] वही, खंड 3, भारतीय चर्मकारों की उत्पत्ति, स्थिति और जनसँख्या, पृष्ठ 160
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