किसी भी प्रजातांत्रिक समाज के स्वस्थ होने का एक महत्वपूर्ण पैमाना यह है कि उसमें अल्पसंख्यक स्वयं को कितना सुरक्षित महसूस करते हैं। उतना ही महत्वपूर्ण पैमाना यह है कि समाज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किस हद तक है। इन दोनों पैमानों पर भारतीय प्रजातंत्र पिछले कुछ वर्षों से खरा नहीं उतर रहा है। ऐसा लगता है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से मुसलमान और ईसाई स्वयं को इस देश में सुरक्षित अनुभव नहीं कर रहे हैं। इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि इसके पहले इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों के लिए स्थितियां अत्यंत अनुकूल थीं। तथ्य यह है कि धार्मिक अल्पसंख्यकों की सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दोनों पैमानों पर पिछले कुछ दशकों से भारत की स्थिति कमजोर होती जा रही है। परंतु इन दोनों पैमानों पर सबसे बड़ी गिरावट केन्द्र में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के शासन में आने के बाद से दर्ज की जा रही है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और अल्पसंख्यकों की सुरक्षा काफी हद तक एक दूसरे से जुड़े हुए मुद्दे हैं।
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