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कबीर और रैदास की परंपरा के विचारक गुरू घासी दास

जैसे कबीर और रैदास साहेब को ब्राह्मण साबित करने के लिए कहानियां गढ़ी गईं, उसी प्रकार एक मिथ्या कहानी को आधार बनाकर डा. हीरालाल ने गुरु घासी दास को ब्राह्मण वंशज बनाया है

गुरू घासी दास (18 दिसम्बर 1756 – 1836 [1]) पर विशेष

गुरु घासी दास की वैचारिक परम्परा सतनामी पंथ से आती है, और सतनामी पंथ का उद्गम स्रोत सद्गुरु रैदास साहेब की ‘बेगमपुर’ विचारधारा है, जिसमें उन्होंने एक वर्गविहीन और जातिविहीन समतामूलक समाज की परिकल्पना का निर्माण किया था। यथा—

अब हम खूब वतन घर पाया। ऊँचा खेर सदा मन भाया।

बेगमपूर सहर का नांव, दुःख-अंदोह नहीं तेहि ठांव।

ना तसवीस खिराज न माल, खौफ न कहता न तरस जुबाल।

आवादान रहम औजूद, जहाँ गनी आप बसै माबूद।

काइम-काइम सदा पातिसाही, दोम न सोम एक सा आही।

जोई सैल करै सोई भावै, हरम महल ताको अटकावै।

कह रैदास खलास चमारा, जो हम सहरी सो मीत हमारा.[1]

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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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