हिन्दू राष्ट्रवादियों की विचारधारा और गतिविधियों का अंतिम लक्ष्य है, ऋग्वेद में निर्धारित सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना। वे समाज को चार वर्णों में विभाजित करते हैं। सामान्य तौर पर माना जाता है कि हिन्दू राष्ट्रवाद के मूल में मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति घृणा है। परन्तु यह घृणा, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है।
गहराई से देखने पर हम पाएंगे कि चाहे वे तिलक हों या सावरकर या गोलवलकर या फिर हिन्दू राष्ट्रवादियों का वर्तमान शीर्ष नेतृत्व – सभी का एकमात्र लक्ष्य है जाति व्यवस्था को जस का तस बनाये रखना। हेडगेवार ने यह बात स्पष्ट शब्दों में नहीं कही परन्तु उपरोक्त चिंतकों ने जाति व्यवस्था के प्रति अपने प्रेम और सम्मान का खुलकर इज़हार किया।
हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, देश में मुसलमानों या ईसाईयों की उपस्थिति से नहीं उपजी। अपनी पुस्तक संघाचे आव्हान (संघ की चुनौती) में डॉ अशोक मधोक लिखते हैं कि गोलवलकर ने कहा था कि अगर पैगम्बर मोहम्मद ना भी हुए होते, तब भी हिन्दू राष्ट्र के निर्माण के लिए आन्दोलन आवश्यक होता। हिन्दू राष्ट्रवादी चिंतकों का मानना है कि भारत, प्राचीन काल से ही हिन्दू राष्ट्र था और यह इस्लामिक शासन की प्रतिक्रिया में अस्तित्व में नहीं आया। अतः जाति व्यवस्था, इस्लामिक और यूरोपीय ताकतों की भारत पर विजय के बहुत पहले से अस्तित्व में थी।
गोलवलकर ने 1939 में आरएसएस की सदस्यता लेने के काफी पहले अपनी पुस्तक ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ लिखी थी। इस पुस्तक में वे साफ़ कहते हैं कि समाज का चार वर्गों में विभाजन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श है। उनकी पुस्तक ‘ए बंच ऑफ़ थॉट्स’, जिसकी चर्चा बहुत होती है, शुरू से लेकर आखिर तक इस आदर्श पर केन्द्रित है। मुसलमानों के प्रति शत्रुता की चर्चा वे पुस्तक के अंत में करते हैं और यह उनकी सोच का केंद्रीय तत्त्व नहीं है। अधिकांश भारतीय और विदेशी लेखकों और अध्येताओं ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया।
‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ की बात करने से पहले, आईये, हम गोलवलकर की पहली पुस्तक से यह उद्धरण देखें :
“शक्ति और गौरव के कारकों के अतिरिक्त, कुछ और कारक, जो देश को एक अच्छा राष्ट्र बनाने के लिए आवश्यक हैं, वे हैं कि उसमें समाज के वे चारों वर्ग होने चाहिए, जिनकी परिकल्पना हिन्दू धर्म में की गई हैं और वह लुटेरों और म्लेच्छों से मुक्त होना चाहिए। यहाँ म्लेच्छ से अर्थ है वे व्यक्ति जो हिन्दू धर्म और संस्कृति द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों को नहीं मानते।” (वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, 1939) .
अब, ‘बंच ऑफ़ थॉट्स’ के प्रथम संस्करण (1966), जिसका प्रकाशन विक्रम प्रकाशन, बैंगलोर ने किया था, से इन उद्धरणों को देखें।
पुस्तक के द्वितीय अध्याय ‘वर्तमान समय की चुनौतियाँ’ में वे लिखते हैं :
“समानता, व्यवहार में एक मिथक है।” (पृष्ठ 18)
“समानता नहीं, बल्कि समरसता।” (पृष्ठ 19)
“व्यक्ति, समष्टिगत सामाजिक व्यक्तित्व का जीवित अंग है।” (पृष्ठ 20)
यहाँ वे ऋग्वेद से एक श्लोक उद्धृत करते हैं, जिसके अनुसार, ब्राह्मण, विराट पुरुष का सिर, क्षत्रिय उसकी भुजाएं, वैश्य उसकी जंघा और शुद्र उसके पैर हैं। वे आगे लिखते हैं, “इसका अर्थ यह है जो लोग इस व्यवस्था में विश्वास रखते हैं, अर्थात हिन्दू, वे ही हमारे ईश्वर हैं। यह सोच हमें समाज के हर व्यक्ति को, दिव्य पूर्ण के एक भाग के रूप में देखने की प्रेरणा देती है।” (पृष्ठ 25).
“धर्म की हमारी परिभाषा के दो हिस्से हैं। पहला, व्यक्ति की बुद्धि का उचित पुनर्वसन और दूसरा, विभिन्न व्यक्तियों के बीच इस तरह से सामंजस्य स्थापित करना ताकि वे सामूहिक रूप से एकरस हो सकें अर्थात, ऐसी सामाजिक व्यवस्था जो लोगों को एक रख सके।” (पृष्ठ 35)
“हमने एक महान सभ्यता, महान संस्कृति और अनूठी सामाजिक व्यवस्था का निर्माण किया।” (पृष्ठ 56)
“जिन महान सांस्कृतिक मूल्यों को हमारे समाज ने पोषित किया था, उन्हें नष्ट करने का प्रयास किया गया। हमारे अतीत से हमारे जुड़ाव पर चोट की गयी। धर्म का मूल्य गिर गया। सामाजिक ताने-बाने के चीथड़े कर दिए गए। देश और उसकी विरासत के प्रति अनुराग इतना कम हो गया कि कट्टरपंथी बौद्धों ने, बौद्ध धर्म का मुखौटा पहने आक्रान्ताओं को आमंत्रित किया और उनकी सहायता की। बौद्ध पंथ, अपने मातृ धर्म और अपने मातृ समाज के प्रति विश्वासघाती हो गया।” (पृष्ठ 66)
यहां वे बौद्ध धर्म पर हमला इसलिए करते हैं क्योंकि वह वैदिक सामाजिक व्यवस्था और मातृ धर्म, अर्थात वैदिक हिन्दू धर्म, पर चोट कर रहा था।
“हमारी सामाजिक व्यवस्था में प्रत्येक समूह के लिए विशिष्ट कर्त्तव्य निर्धारित थे और वह सभी व्यक्तियों और समूहों का उनके प्राकृतिक विकास की दिशा में पथप्रदर्शन करती थी – ठीक वैसे ही जैसे बुद्धि, शरीर के असंख्य अंगों के कार्यकलापों को नियंत्रित करती है। इस प्रक्रिया से व्यक्ति का उच्चतम विकास होता था और वह समाज के ‘विराट पुरुष’ को अपनी श्रेष्ठतम सेवाएं दे पाता था। यह था वह अत्यधिक जटिल और सुसंगठित सामाजिक ढांचा, जिसकी हमने कल्पना की थी। जो अत्यंत व्यावहारिक था और जिसे मूर्त रूप देने का हमारा प्रयास था। दूर से देखने पर यह राज्य, सिर चकरा देने वाली विविधताओं से भरा दिखता था परन्तु वास्तव में वह एक ऐसा उच्च विकसित समाज था, जैसा दुनिया में कभी, कहीं नहीं हुआ था।” (पृष्ठ-100)
“हम सब जानते हैं कि हमारा उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी हिस्सा, जहां बौद्ध धर्म के प्रभाव ने जाति प्रथा को छिन्न-भिन्न कर दिया था, मुसलमानों के आक्रमण के आगे आसानी से झुक गया। गांधार, जिसे अब कंधार कहते हैं, का पूरी तरह से इस्लामीकरण हो गया। पूर्वी बंगाल में भी हमें धर्मपरिवर्तन की भारी कीमत चुकानी पड़ी। परन्तु दिल्ली और उत्तर प्रदेश, जिन्हें रूढ़िवादी और कट्टर इलाके माना जाता था, सदियों तक मुस्लिम सत्ता और कट्टरतावाद के केंद्र में रहने के बावजूद, मूलतः हिन्दू बने रहे।” (पृष्ठ 109)
“जातियां प्राचीन काल में भी थीं और वे हमारे गौरवशाली राष्ट्रीय जीवन के हजारों सालों तक बनी रहीं। परन्तु कहीं भी, एक भी ऐसा उदाहरण नहीं है कि उनके कारण समाज की उन्नति में कोई बाधा आई हो या उनने सामाजिक एकता को तोड़ा हो। बल्कि उनने सामाजिक एकजुटता को मजबूती दी।” (पृष्ठ 108)
“कुछ ज्ञानी लोग हमें बताते हैं कि कोई भी व्यक्ति हिन्दू या मुसलमान या ईसाई के रूप में जन्म नहीं लेता बल्कि मनुष्य के रूप में जन्म लेता है। यह दूसरों के बारे में सही हो सकता है। परन्तु जहां तक हिन्दुओं का प्रश्न है, उनका प्रथम संस्कार तब होता है जब वे अपनी माता के गर्भ में रहते हैं और अंतिम तब, जब उन्हें अग्नि के हवाले किया जाता है…हम जब अपनी माता के गर्भ से बाहर आते हैं, तभी हम हिन्दू होते हैं। अन्य लोग, बाद में मुसलमान या ईसाई बनते हैं।” (पृष्ठ 119)
“हमारी सामाजिक व्यवस्था अनूठी थी और हमारी राजनैतिक संस्थाएं अत्यंत विकसित थीं।” (पृष्ठ 202)
“अगर समाजवाद से अर्थ, आर्थिक असमानता के अंत से है, तो यहां भी हिन्दू विचार और आचरण, सामाजिक और आर्थिक न्याय की पूरी गारंटी देते हैं। मनु ने कहा था कि किसी व्यक्ति का संपत्ति पर अधिकार, उसकी एक दिन के भोजन की आवश्यकता तक सीमित है।” (पृष्ठ 324)
“अपने एक हाथ में अच्छाई को आशीर्वाद देने के लिए कमल और दूसरे हाथ में, बुराई को नष्ट करने के लिए वज्र हाथों में लिए भारत माता, ब्रह्म तेज और क्षत्र तेज का मूर्त रूप हैं।” (पृष्ठ 325).
मुंबई से प्रकाशित मराठी दैनिक ‘नवा काल’ के 1 जनवरी 1969 के अंक में, गोलवलकर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था, जिसमें उन्होंने बताया था कि अनुशासित और चिर-स्थाई समाज के निर्माण के लिए, वर्ण व्यवस्था कितनी महत्वपूर्ण है। “वर्ण व्यवस्था ईश्वर की निर्मिती है और मनुष्य कितना भी चाहे, उसे नष्ट नहीं कर सकता।” उन्होंने कहा था।
गोलवलकर के इन विचारों से स्पष्ट है कि चातुर्यवर्ण या वर्ण व्यवस्था, हिन्दू राष्ट्र की परिकल्पना का मूलाधार है।
वर्ण व्यवस्था हमारी पहचान बन गयी है : वी.डी. सावरकर
अब हम वी.डी. सावरकर की बात करें, जिन्हें कुछ लोग तर्किकतावादी हिन्दू बताते हैं। गाय के बारे में उनकी सोच और उनके विज्ञान-समर्थक विचारों को इस निष्कर्ष का आधार बताया जाता है। वे अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखते हैं :
“वर्ण व्यवस्था हमारी राष्ट्रीयता की लगभग मुख्य पहचान बन गयी है।”
“जिस देश में चातुर्यवर्ण नहीं है, वह म्लेच्छ देश है. आर्यावर्त अलग है।” (हिंदुत्व, 1923)
सावरकर यह भी कहते हैं कि ब्राह्मणों का शासन, हिन्दू राष्ट्र का आदर्श होगा। सन 1818 तक, महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पेशवाओं (ब्राह्मण) का शासन था। अंग्रेजों ने पेशवाओं को हरा कर, उनका राज समाप्त कर दिया। पेशवाओं की हार के बारे में सावरकर लिखते हैं, “सन 1818 में यहाँ देश के आखिरी और सबसे गौरवशाली हिन्दू साम्राज्यों की कब्र बनी।” (पृष्ठ 276)
“सन 1818 में मराठा साम्राज्य के पतन तक, हमारे हिन्दू राष्ट्र की उन्नति और विकास की कहानी हमने कही है।” (पृष्ठ 308)
जिस ‘गौरवशाली’ पेशवा शासन की बात सावरकर कर रहे हैं, उसमें अछूतों को थूकने के लिए अपने गले में मटकी बांधना पड़ती थी और उनकी कमर से एक झाड़ू लटकती रहती थी, ताकि उनके क़दमों के निशान मिटते चलें। क्या हिन्दू राष्ट्रवादी, इसी तरह के देश का सपना देखते हैं?
(कॉपी संपादन : नवल)
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