जन-विकल्प
आखेटक-संग्राहक से कृषक रूप में मनुष्य ने कब अपने को रूपांतरित किया, ठीक-ठीक बतलाना कठिन होगा। यह कोई आविष्कार नहीं था। अनुमान है, यह आहिस्ता-आहिस्ता एक लम्बे काल में ही कोई आकार ले सका। मनुष्य लगातार प्राकृतिक रूप से उगते पौधों और फल वृक्षों को देखता रहा था। जीवों की तरह उनका भी एक जीवन-चक्र था। अंकुरित होना, बढ़ना, पुष्पित होना और फलना। आखेटक-संग्राहक रूप में पौधों की प्रकृति-प्रवृति को वह हज़ारों साल से देख रहा था। झाड़ीनुमा पौधों के फलों पर उसकी नज़र गयी जिसके दानों को वह इकठ्ठा करता रहा था। इन्हें चखने पर उसे नया स्वाद मिला, क्षुधा भी मिटी। यह भी गौर किया कि ये एक खास समय में उगते और फलते-फूलते हैं।
पीढ़ियों तक इन सबके अध्ययन से इनके प्रति मनुष्य का उत्सुक होना स्वाभाविक था। झड़ते हुए बीजों का अनुकूल मौसम में अंकुरित हो जाना, उनका विकसित होना, फूलना और फलना देखते हुए मनुष्यों के मन में उसकी इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का विचार आया। बीजों के संग्रह, अनुकूल मिटटी में उन्हें बोने और अंकुरित होने से लेकर विकसित होने और फलने-फूलने की गतिविधियों का आकलन किसी जिज्ञासु ने किया होगा। ऐसे जिज्ञासुओं के दल संसार के विभिन्न भागों में थे। इन लोगों ने ही खेती की शुरुआत की। फलियों को भूनकर खाने और बीजों के कुछ हिस्से को अगले मौसम में बोने केलिए रख लेने के तजुर्बे धीरे -धीरे व्यापक होने लगे। अधिक लोग इस से जुड़ने लगे। लगातार के प्रयोगों से इनलोगों ने एक दूसरे से सीखना जारी रखा। हज़ार आपदाओं का भी सामना किया होगा। लेकिन उनके पास काम भी क्या रहे होंगे ! अंततः एक लम्बी प्रक्रिया में मनुष्य जाति ने कृषि का एक ढांचा खड़ा ही कर लिया। यह कृषि-कौशल मनुष्य जाति के लिए एक बड़ी बात थी। कुल मिलकर यह एक क्रांति थी : कृषि-क्रांति।

लाखों वर्ष के मानव जाति के इतिहास में यह कृषि -क्रांति बस कुछ हज़ार वर्ष पूर्व की चीज है। अध्ययन-कर्ताओं के निष्कर्ष हैं कि नवपाषाण काल में मनुष्य इससे जुड़ सका। पत्थर और हड्डी के विकसित औजारों के बल पर ही यह संभव था। मनुष्य की अन्वेषी प्रवृत्ति ने प्रकृति और मौसम के मिजाज का अध्ययन किया। नदियों में बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद फैली हुई मुलायम मिटटी को उन्होंने देखा। इस पर बीजों को उगना आसान था। उन्होंने उगाया। निगरानी रखी।धीरे -धीरे पौधों की प्रकृति से वे परिचित होते गए। उनकी फलियों का कब कैसे उपयोग करना है इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी सीखते रहे। इसका विकास भी करते रहे। इस खेती में गुड़ाई और कटाई के लिए हल और हंसिए के प्राथमिक औजारों को भी विकसित किया। लेकिन इनके सारे औजार अभी पत्थर के थे। यानि कृषि-क्रान्ति का आरम्भ नवपाषाण काल में ,अनुमान से आज से कोई दस हज़ार वर्ष पूर्व हुआ। सके पहले तक मानव स्वच्छंद फलसंग्राहक और शिकारी प्राणी था। प्रकृति के साथ उसकी सहजीविता थी ; उसमे उनका कोई सीधा हस्तक्षेप नहीं था।
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हिंदी में खेती के साथ एक शब्द जुड़ा हुआ है ‘बाड़ी’। जैसे चाय के साथ वाय। लेकिन चाय-वाय की तरह खेती-बाड़ी नहीं है। वाय निरर्थक शब्द हो सकता है। बाड़ी निरर्थक नहीं है। तब, यह बाड़ी है क्या चीज? संभवतः यह बाड़ा का छोटा रूप है। एक घेरा। घेरा तो वनस्पतियों का होता था, लेकिन किसके लिए होता था यह घेरा ? तो पशुओं के लिए; और यह कहना अधिक सही होगा कि मनुष्यों के लिए भी।
खेती के साथ पशुपालन का गडरियों की तरह घुमन्तु रूप बहुत कम हो गया। अब पशुपालन खेती से बंधने लगा। गडरियों का एक पृथक रूप जरूर बना रहा ,लेकिन अधिकतर पशुपालन अब खेती के इर्द -गिर्द होने लगा। जैसा कि पहले ही बतला चुका हूँ कृषि स्थिरता की मांग करता है। इसने घुमन्तु मनुष्य जाति को खेतों के इर्द-गिर्द बसने के लिए विवश कर दिया। मनुष्य ने कुछ अनाजों के उत्पादन को अपनी मुट्ठी में किया तो उन अनाजों ने भी मनुष्य जाति को अपनी मुट्ठी में कर लिया। मानव ने वनस्पतियों का सहारा लेकर झोपड़ियां डालीं। वे प्राथमिक स्तर के घर थे। धीरे-धीरे मिट्टी के घर बनने लगे। इन घरों के इर्द-गिर्द पालतू जानवरों को भी रखा जाने लगा। दूध के लिए पशुओं का पालन इसी क्रम में हुआ। चूंकि आरम्भ में खेती नदियों के किनारे के हुई, इसलिए गाय और भैंस जैसे बड़े आकार के पशुओं का पालन संभव हुआ। इन बड़े आकार के जानवरों के पीने केलिए पर्याप्त पानी नदियों से मिल सकता था। उन इलाकों में इन बड़े पशुओं का पालन संभव नहीं था ,जहाँ पानी की किल्लत हो,अभाव हो। इसलिए भारत में देखा जाता है कि नदियों के किनारे वाले इलाकों में पशुपालक लोग अधिक निवास करते हैं। पठारी इलाकों में भेड़-बकरी पालने वाले लोग ही मिल सकते हैं।
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गेहूं, जौ, मक्का, रागी और धान जैसी फसलें मनुष्य आरम्भ में भी उगाता था, आज भी उगाता है। इसके साथ कई तरह की दालें, तिलहन, गुड़-शक्कर के लिए ईख ,कई तरह की सब्जियां और फल भी उगाये जाने लगे। यु. एन. हरारी की मानें तो, गेहूं के उत्पादन की शुरुआत 9000 ई. पू. तथा मटर और मसूर की खेती 8000 ई .पू .हुई। 9000 से 3500 ई .पू . के बीच उपरोक्त के अलावा चावल, मक्का, बाजरा सब पैदा होने लगे। कोई नयी उत्पादन-क्रांति जब आती है, तब शुरूआती कुछेक साल नयी-नयी चीजों के अन्वेषण में लगता है। जैसे औद्योगिक क्रांति 1760 ई. में शुरू हुई और 1850 ई, यानी नब्बे वर्षों तक चली। उस बाद भी नयी-नयी मशीनों का अन्वेषण और उद्योगों का विस्तार तो होता रहा, लेकिन क्रांति-काल खत्म हो गया। कृषि-क्रांति भी कुछ सौ साल तो चली ही होगी। जैसा कि बतला चुका हूँ ताम्रयुग, कांस्य -युग और लौह युग में कृषि के उत्पादन औजार धातु के बनने लगे और इससे खेती में गुणात्मक परिवर्तन आया। लोहे की खोज के बाद तो एक बड़े जोर का तूफान जैसा ही आया होगा। इसका हम अनुमान ही लगा सकते हैं। लेकिन उत्खननों से उपलब्ध औजारों के आधार पर कहा जा सकता है कि औजारों में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया। पत्थर-युग में भी लकड़ी के हल और पत्थर की धारदार बनी हंसिया थी और धातु युग में भी। लेकिन लोहे के हल,फाबड़े,गैंती, खन्ती और सबसे बढ़ कर हंसिया का कोई जवाब नहीं था। लौह युग ने कृषि को एक पूर्णता तक पंहुचा दिया। कहते हैं, ईसा की पहली सदी तक पूरी दुनिया कृषकमय हो गयी।

भारत में कृषि और किसानों की स्थिति हमेशा एक-सी नहीं रही। नदी घाटी इलाकों से कृषि का विस्तार मैदानी इलाकों में होता गया, जो जंगलों से भरे थे। बहुत दिनों तक वनभूमि को कृषिभूमि में परिवर्तित करना राजाओं का मुख्य काम होता था। रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार रामायण कथा में अहल्या-उद्धार का प्रसंग अहल्या अर्थात अजोत वनभूमि को हल्या यानि हल के तहत लाने का ही प्रतीत होता है। प्रसन्नकुमार चौधरी ने संस्कृत और पाली ग्रंथों के हवाले से ग्यारह प्रकार की भूमि का ब्यौरा दिया है। ये हैं – कृष्ट- क्षेत्र (जुते हुए खेत) अकृष्ट या अषर भूमि (अनाबाद बंजर भूमि) केदार भूमि (सिंचित फसल वाली भूमि) गोचर या विवित (घास के चारागाह), आराम (बाग़-उद्यान ),स्थल भूमि (ऊँची जमीं) षण्ड (फुलवाड़ी), मूलवाण (भीठ जमीन, जिसमे कंद-मूल लगाया जा सके), बन (ईख के खेत), वन (जंगल) और पथीन (सडकभूमि)। पाली ग्रन्थ मिलिन्दपञ्हो में कृषि कार्य की प्रक्रियाओं यथा जोतना, कोडना, बोआई, सिंचाई, बाड़ाबंदी, रखवाली, कटनी, दौनी आदि का वर्णन है। जलगाहों या नदियों से खेतों तक नहर या नाली (संस्कृत में प्रणाली) ले जाने की तरकीब लोगों ने जान ली थी। कुँए भी बना लिए गए थे।

ये किसान थे जो दुनिया भर में संस्कृति के जीवित केंद्र बन गए। दस्तकारों, पुरोहितों,कलाकारों, संत-महात्माओं, भिक्षुओं से लेकर राजा-महाराजाओं तक की परवरिश करना इनके जिम्मे हो गया। सब इनके उत्पादन पर, इनके द्वारा दिए अन्नदान पर जी रहे थे, विकसित हो रहे थे। इनके अभाव में मंदिरों, महलों, दूसरे स्थापत्यों और विलासिता के सरअंजामों का कोई मोल नहीं था। बाढ़-सुखाड़ और दूसरी आपदाओं से जब-जब कृषि संकट में आया, सभ्यता के सारे तामझाम धराशायी हो गए। धर्मग्रंथों के मन्त्र, आयतें और सतरें बेमानी हो गए; देवता बेमानी हो गए या चुपके से अनुपस्थित हो लिए। जब-जब किसान खुशहाल हुआ, पूरी सभ्यता झूम उठी। यह वनस्पति-विज्ञान का ओसमोसिस सिद्धांत था। जड़ों को सींचिए, फुनगियाँ लहलहाने लगेंगी।
(कॉपी संपादन : नवल)
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