h n

बिहार में राजनैतिक रस्साकशी

प्रेमकुमार मणि बता रहे हैं कि भाजपा और राजद एक हो गईं, तब नीतीश कुमार की स्थिति क्या होगी। साथ ही यह भी कि 2014 में जदयू ने 37 सीटों पर लड़कर जितना वोट पाया था, उतने ही वोट इस बार राजद ने 21 सीटों पर लड़कर हासिल किया है। यानी राजद की संभावनाएं समाप्त नहीं हुई हैं

‘वेताल-पंचविंशति’ संस्कृत-साहित्य की अमर कृति है, जिसे सोमदेव ने लिखा है। यह भारतीय उपमहाद्वीप की एक चर्चित कथा है, जो जन और अभिजन दोनों में समान रूप से विश्रुत है। जाने कितनी जुबानों में इसका अनुवाद हुआ है। हिंदी इलाकों के लोग इसे ‘बैताल-पचीसी’ के रूप में जानते हैं। कथा की थोड़ी चर्चा जरुरी है। राजा विक्रमादित्य को एक तांत्रिक ने एक खास शव लाने को कहा है। राजा उस शव को कंधे पर ढो कर लाता है। उस शव में एक बैताल है, जो राजा को कहानी सुनाता है और फिर लौट कर पेड़ पर टंग जाता है। पचीसवीं कथा में विक्रमादित्य शव को तांत्रिक के पास ले जाने में सफल होता है। बैताल ने राजा को बताया था कि तांत्रिक की योजना राजा को बलि देकर स्वयं सम्राट बनने की है। इसलिए हे राजन! तांत्रिक जब बलि के प्रति सिर झुकाने के लिए कहे तो तुम कहना, राजा किसी के प्रति सिर नहीं झुकाता। तुम सिर झुकाओ। और जब वह तांत्रिक सिर झुकावे तब तुम उसका सिर कलम कर देना। विक्रमादित्य ने ऐसा ही किया और तांत्रिक की क़ुरबानी हो गयी। यदि वह नहीं मारा जाता तो विक्रमादित्य की बलि होनी थी।

बिहार की राजनीति में भी फिलहाल कुछ-कुछ ऐसा ही हो रहा है। इतिहास ही नहीं दुहराए जाते, कथा-कहानियां भी दुहरायी जाती हैं। कोई भी यहां बैताल-पचीसी का खेल देख सकता है। विक्रमादित्य को तांत्रिक की योजनाओं का पता चल गया है और उन दोनों में छिड़ गयी है। विक्रमादित्य ने महागठबंधन का ‘शव’ तांत्रिक के चरणों में रख तो दिया, लेकिन शीश झुकाने से इंकार कर दिया। अब कुछ भी अस्पष्ट नहीं है। अधिक संभावना यही है कि अगला चुनाव दोनों साथ-साथ नहीं लड़ेंगे; फिलहाल वे दोस्ती की बात चाहे जितनी कर लें। नीतीश और भाजपा के बीच मैत्री या गठबंधन के जो आधार थे, वे ध्वस्त हो गए हैं। अंतरकलह आरम्भ हो गया है।

दायें से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी और विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव

दरअसल, दुविधा दोनों तरफ है। भाजपा को अपने राजनैतिक अश्वमेघ के लिए नीतीश को हजम करना जरुरी है। झारखंड के बाद बिहार, बंगाल और उड़ीसा भी उसके टारगेट में है। बंगाल में तो उसका कोई संगी नहीं है। लेकिन बिहार में उसे नीतीश को अब ढोना भार अनुभव हो रहा है। वह इनसे मुक्ति चाहती है।

राजनैतिक गठबंधन और दोस्तियां टूटती रही हैं, लेकिन इतनी जल्दी दोनों में खटक हो जाएगी यह अनुमान किसी को नहीं था। यूं, इस बार अपने दूसरे जुड़ाव में नीतीश आरम्भ से ही बहुत सहज नहीं थे। जुलाई 2017 में नीतीश जब फिर से भाजपा से मिले, तब किसी को समझ में नहीं आया कि वह कौन-सी राजनीति कर रहे हैं। ध्रुव (निश्चित ) को छोड़ अध्रुव की ओर बढ़ना शास्त्र -निषिद्ध है, लेकिन नीतीश ने यह किया था। उन्होंने जनता से मिले समर्थन का अपमान भी किया था। क्योंकि वह भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ कर आये थे। लेकिन उनकी अनैतिकता पर कम ही सवाल उठे। क्योंकि हमारे समाज में नैतिकता का मार्गदर्शक-मंडल एक खास तबका है। उसकी अभिरुचियों और स्वार्थ से सब परिचित हैं। बिहार में भाजपा को खोने के लिए कुछ नहीं था। विधानसभा में उसके केवल 53 सदस्य थे। उन्हें तो सब कुछ एक अचम्भे जैसा दिखा। उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने उसी रोज त्वरित प्रतिक्रिया दी थी -‘ऐसा लगता है ,जैसे स्वप्न देख रहा हूं।’ वाकई भाजपा को बैठे-बिठाये सत्ता हासिल हो गयी थी। यह स्वप्न नहीं तो क्या था!

यह भी पढ़ें : क्यों धड़ाम हुआ गठबंधन?

नीतीश की राजनीति ने कई दफा भाजपा की सेवा या रक्षा की है। 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद की राजनैतिक स्थितियों का ख़याल कीजिए। भाजपा से कोई हाथ नहीं मिलाना चाहता था। तब नीतीश समता पार्टी के दूसरे नंबर नेता थे। उनकी पहल पर उस भाजपा से गठबंधन हुआ, जिसे लोगों ने राजनैतिक तौर पर अछूत मान लिया था। उन दिनों, तब के भाजपा नेता दिवंगत अटलबिहारी वाजपेयी ने बहुत पीड़ा के साथ अपनी राजनैतिक अस्पृश्यता की चर्चा की थी। जार्ज-नीतीश ने भाजपा का अहल्या-उद्धार किया था। उसे राजनैतिक गतिशीलता दी थी।

नवंबर 2005 में बिहार के मुख्यमंत्री बनने पर नीतीश कुमार को मिठाई खिलाते दिवंगत प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी

अटल जब तक रहे, उन्होंने इसका अहसान माना। ताली दोनों हाथ से बजती है। इसे दोनों ने समझा। नीतीश कुमार को अनुमान था, भाजपा अब भी वैसा ही व्यवहार करेगी। लेकिन उनने यह नहीं विचार किया अब न ही वह नेता है और न ही वैसी परस्थितियां। 2014 में भाजपा को जैसे ही पूर्ण बहुमत मिला, उसका दम्भ बढ़ना स्वाभाविक था। इस दफा तो उसने अकेले 303 का आंकड़ा पा लिया। अब उसे किसी की जरूरत नहीं है, लोगों को उसकी जरूरत है। इस बात को नीतीश शायद नहीं समझ पाते। कभी गाडी नाव पर, कभी नाव गाडी पर की कहावत के अर्थ नीतीश समझे हुए होते तो ऐसी राजनैतिक चूक उनसे नहीं होती।

मंत्रिमंडल में शामिल होने की लालसा प्रकट कर नीतीश ने भारी भूल की है। अपने राजनैतिक प्रबंधकों को मंत्री बनाने की जिद में उन्होंने तिरस्कार का जो अपमान झेला है, वह इस स्तर के नेता के लिए कुछ ज्यादा है। वह दिल्ली में बैठे रहे, याचना-अनुरोध किया, लेकिन कोई ध्यान नहीं दिया गया। प्रधानमंत्री को व्यक्तिगत स्तर पर उनसे बात करनी चाहिए थी। लेकिन यह हर कोई जानता है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री भले हो जाएं,अटलबिहारी वाजपेयी की तरह के राजनेता नहीं हैं। अटल जी शपथ-ग्रहण के खुशनुमा माहौल को अपने सहयोगियों की रंजगी से फीका नहीं होने देते।

प्रश्न है कि अब क्या होगा? नीतीश अब क्या करेंगे? इस लोकसभा चुनाव में बिहार एनडीए को कोई 53 फीसद वोट मिले हैं। भाजपा और जदयू ने बराबर की सीटें लड़ी, लेकिन भाजपा को जदयू से 1.5 फीसद अधिक वोट मिले। महागठबंधन और एनडीए को मिले मतों में 22 फीसद का अंतर है। राजद को इतने कम वोट कभी नहीं मिले थे . फिर भी 2014 के लोकसभा चुनाव में 37 सीटों पर चुनाव लड़ कर जदयू ने जो वोट हासिल किये थे, उसे राजद ने इस दफा 21 सीटों पर लड़ कर हासिल किया है। इसलिए कोई यह नहीं कह सकता कि राजद की संभावनाएं समाप्त हो गयी हैं। चुनाव बाद उभर रही परिस्थितियों में एक बार फिर इस बात के कयास लग रहे हैं कि क्या जदयू और राजद फिर एक बार साथ होंगे? यदि यह हुआ, तो 2015 एकबार फिर लौट सकता है।

29 मई 2019 को नई दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के आवासीय परिसर में इंतजार करते बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और बिहार भाजपा के प्रभारी भूपेंद्र यादव (तस्वीर साभार : इंडियन एक्सप्रेस)

लेकिन कल्पना करें, यदि राजद और भाजपा इकट्ठे हुईं, तब क्या होगा? प्रकृति और राजनीति में कुछ भी हो जाता है। यदि ऐसा कुछ हुआ तो बिहार अपनी राजनीति की एक दूसरी ही कहानी गढ़ेगा। फिलहाल इसकी कोई संभावना नहीं दिखती। लेकिन ऐसे में भी नीतीश की राजनीति के लिए एक व्योम तो बन ही जाएगा। भाजपा को चाहे इस चुनाव में जितना भी वोट प्रतिशत हासिल हो जाय, आज भी वह अकेले चुनाव लड़ कर कोई बड़ी उपलब्धि हासिल करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए यह कहा जाना चाहिए कि बिहार में नए राजनैतिक समीकरणों की संभावनाएं हैं। लेकिन अभी बहुत कुछ स्पष्ट नहीं है। अगले वर्ष यहां विधानसभा चुनाव होने हैं और कुछ ही महीनों में कुछ विधानसभा क्षेत्रों के उपचुनाव भी। इस बीच बहुत कुछ स्पष्ट हो जाएगा।

(कॉपी संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें

 

आरएसएस और बहुजन चिंतन 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

 

लेखक के बारे में

प्रेमकुमार मणि

प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं

संबंधित आलेख

विमुक्त जातियों के कल्याणार्थ योजना ‘सीड’ को लागू नहीं कर रही हैं सरकारें
केंद्र व राज्य सरकारों की उदासीनता के कारण विमुक्त व घुमंतू जनजातियों के लिए प्रारंभ की गई महत्वाकांक्षी योजना ‘सीड’ जमीन पर लागू नहीं...
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : ओबीसी ने सिखाया जरांगे के संरक्षक शरद पवार को सबक
ओबीसी-मराठा के बीच जो हिंसक ध्रुवीकरण हुआ, वह केवल शरद पवार के कारण हुआ। आज कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति यही कहेगा! 2024 के विधानसभा...
पटना में पुस्तक मेला 6 दिसंबर से, मौजूद रहेगा फारवर्ड प्रेस 
इस पुस्तक मेले में पाठक स्टॉल संख्या सी-4 से दलित, ओबीसी, पसमांदा व आदिवासी समुदायों के विमर्श पर आधारित फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित किताबें...
वी.टी. राजशेखर : एक बहुजन पत्रकार, जो दलित-बहुजन-मुस्लिम एकता के लिए लड़ते रहे 
राजशेखर की सबसे बड़ी चिंता जाति-आधारित असमानता को समाप्त करने और वंचित वर्गों के बीच एकता स्थापित करने की थी। हालांकि उनकी पत्रिका का...
‘प्राचीन भाषाओं और साहित्य के वंशज अपनी ही धरती पर विस्थापन का दंश झेल रहे हैं’
अवार्ड समारोह को संबोधित करते हुए डॉ. दमयंती बेसरा ने कहा कि भाषा ही तय करती है कि कौन इस देश का मूलनिवासी है।...