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मोदी राज में हो रहा केवल सवर्णों का विकास : ओमप्रकाश राजभर

साफ़-साफ़ शब्दों में कहें तो बसपा प्रमुख मायावती के भाई आनंद की गर्दन पर लटकी सीबीआई की तलवार की वजह से यह गठबंधन टूटा। सपा और बसपा के बीच गठबंधन एक सफल प्रयोग था जिसे खत्म कर दिया गया। फारवर्ड प्रेस से विशेष बातचीत में उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री ओमप्रकाश राजभर

परदे के पीछे 

अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक जगत पर है। बातचीत के इस स्तंभ में हम पर्दे के पीछे कार्यरत ऐसे लोगों के दलित-बहुजन मुद्दों से संबंधित विचारों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस कड़ी में  प्रस्तुत है, उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकार राजभर से कुमार समीर की बातचीत। स्तंभ में प्रस्तुत विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया का स्वागत है : प्रबंध संपादक)


सीबीआई का भय दिखा भाजपा ने तोड़ा सपा-बसपा गठबंधन : राजभर

  • कुमार समीर

कमजोर लोगों को अधिकार से वंचित रखने के लिए जो काम कांग्रेस व जनता दल सरकार के दौरान हुआ, वहीं सब अब मोदी सरकार के दौरान दोहराया जा रहा है। दलित बहुजन को मोदी सरकार से बहुत उम्मीद थीं लेकिन इनसे भी समाज के लोग ठगा महसूस कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री व सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के प्रमुख ओमप्रकाश राजभर से फारवर्ड प्रेस प्रतिनिधि कुमार समीर की विशेष बातचीत :

कुमार समीर (कु.स.) : मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के सौ दिन से अधिक का समय हो चुका है। ऐसे में सामाजिक, आर्थिक दृष्टि से सरकार के कामकाज पर आपका क्या नजरिया है?

ओमप्रकाश राजभर (ओ. रा.) : साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनी थी तो लोगों खासकर दलित बहुजन की उम्मीद जगी थी कि अब शायद इस समाज के लोगों को उनका वाजिब हक मिलना शुरू हो जाए, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मोदी सरकार का पहला कार्यकाल (पांच साल) पूरा होते-होते समाज के लोगों का भरोसा उठना शुरू हो गया और सत्ता में वापसी की संभावना कम दिखने लगी तो मोदी व उनकी टीम ने दलित बहुजन समाज में फूट डालो, राज करो सिद्धांत पर काम करना शुरू कर दिया। बहुजन समाज की भोली-भाली जनता इसे समझ नहीं पायी और परिणाम हम सबके सामने मोदी सरकार की सत्ता में वापसी के रूप में है।

ओमप्रकाश राजभर, सुहेलदेव भारतीय समाज पाटी प्रमुख व उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री

कु.स. : फूट डालो और राज करो सिद्धांत पर थोड़ा विस्तार से बताएं?

ओ.रा. : देखिए, इसे एक उदाहरण से नहीं समझाया जा सकता है। राजनीतिक नफा-नुकसान के लिहाज से लगातार घटती घटनाओं की कड़ियों को आपस में जोड़ेंगे तो सच्चाई सामने आ जाएगी। उत्तर प्रदेश व बिहार दो राज्यों की ही बात करें तो वहां दलित बहुजन की राजनीति करने वाली पार्टियां समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के साथ क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी दोनों ने मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ा तो परिणाम सकारात्मक रहा लेकिन चुनाव बाद एकाएक यह गठबंधन टूट गया। इसकी तह में जाएंगे तो पता चल जाएगा कि सीबीआई का भय दिखाकर यह गठबंधन तुड़वाया गया। साफ़-साफ़ शब्दों में कहें तो बसपा प्रमुख मायावती के भाई आनंद की गर्दन पर लटकी सीबीआई की तलवार की वजह से यह गठबंधन टूटा। सपा और बसपा के बीच गठबंधन एक सफल प्रयोग था जिसे खत्म कर दिया गया। वहीं बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के नेतृत्व में महागठबंधन का प्रयोग असफल रहा और इसकी तह में  भी जाएंगे तो पता चलेगा राजद के संस्थापक लालू यादव के कुनबे खासकर दोनों बेटों तेज प्रताप और तेजस्वी में आपसी मनमुटाव प्रमुख कारण रहा। इसमें भाजपा की भूमिका क्या रही, यह किसी से छिपी नहीं है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के कुनबे के दो प्रमुख स्तंभ शिवपाल यादव व अखिलेश यादव के मनमुटाव को भाजपा ने किस तरह हवा दी, यह हर कोई जानता है। ये तो दो राज्यों की बात हुई, कमोबेश हर राज्य में भाजपा ने इसी तरह की कोशिशें की। 


कु.स. : भाजपा दोबारा तो सत्ता में आ तो गयी लेकिन आर्थिक दृष्टि से देश के कमजोर होने की बात कही जा रही है। इससेे आप कितना सहमत हैं? 

ओ.रा. : आर्थिक दृष्टि से देश बुरे दौर से गुजर रहा है और इसके लिए सीधे-सीधे मोदी सरकार जिम्मेदार है। आर्थिक दृष्टि से यह सरकार पूरी तरह से विफल रही है और इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि भारत विश्व बैंक के विकासशील देशों की सूची से बाहर हो गया है। इसके साथ-साथ देश आर्थिक मंदी की चपेट में आ गया है और 2014 से पहले जो जीडीपी 8.2 फीसदी थी वह गिरकर पांच फीसदी तक पहुंच गई है। वित्त मंत्री के सदन में दिए बयान को ही अगर मान लिया जाए तो 6.8 लाख कंपनियां बंद हो गई हैं। एक अनुमान के मुताबिक इससे चार करोड़ से अधिक लोग बेरोजगार हो गए हैं। सार में कहें तो देश बड़े आर्थिक संकट से जूझ रहा है। 

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कु.स. : सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो आरक्षण के बावजूद दलित-बहुजनों का समुचित विकास नहीं हो पाया है। इस वर्ग में भी गिनी-चुनी जातियां ही इसका फायदा ले पायी हैं। सभी को मौका मिले इसके लिए इनके उपवर्गीकरण के सुझाव पर आपका क्या कहना है?

ओ.रा. : उपवर्गीकरण का मैं शुरू से पक्षधर रहा हूं क्योंकि इस आशय की सरकारी, गैर-सरकारी कई रिपोर्टें हैं जिससे पता चलता है कि आरक्षण के दायरे में आने वाली सभी जातियों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है। केंद्रीय विभागों और बैंकों में होने वाली भर्तियों के डेटा विश्लेषण में भी पाया गया है कि 10 जातियों को 25 फीसद लाभ मिला है जबकि 38 अन्य जातियों ने दूसरे एक चौथाई हिस्से को घेर लिया। करीब 22 फीसदी लाभ 506 अन्य जातियों को मिला। इसके विपरीत 2.68 फीसदी लाभ 994 जातियों ने आपस में शेयर किया। गौर करने वाली बात है कि 983 जातियों के लोगों को कोई लाभ नहीं मिल पाया। इससे साफ है कि कुछ जातियों का ही कोटा लाभ में दबदबा रहता है और इस विसंगति को दूर करने के लिए उपवर्गीकरण समय की मांग है। 


कु.स. : राजनीतिक दृष्टि से देखें तो इस साल (2019) हुए लोकसभा चुनाव के बाद दलित बहुजनों की एकता दरकती नजर आ रही है। क्या अब फिर से इस एकता के बनने की कोई उम्मीद आप देख पा रहे हैं ?

ओ.रा. : मैं पहले ही कह चुका हूं कि दलित-बहुजन में फूट डालो, राज करो नीति पर चलकर भाजपा ने सेंधमारी की है लेकिन यह सफलता तात्कालिक है और जनता को ठगे जाने का अहसास हो चुका है। इस दिशा में सोचा जाने लगा है और जल्द ही सकारात्मक परिणाम आप सभी के सामने होगा। 

कु.स. : दलित समाज का एक तबका उत्तर प्रदेश में मायावती से  नाराज़ चल रहा है। कमोबेश हर राज्य में दलित समाज अपने अपने मौजूदा दलित नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या आपको लगता है कि आज का दलित समाज एक नया नेतृत्व चाहता है?

ओ.रा. : आपकी बातों से मैं सहमत हूं क्योंकि दलित समाज को मायावती से काफी उम्मीदें थीं, लेकिन उन्होंने भी अन्य नेताओं की तरह समाज को नजरंदाज करते हुए अपना और अपने परिवार का भला सोचा। वोट हासिल करने के  समाज को यूज किया और यही कारण है कि दलित बहुजन समाज मायावती से नाराज चल रहा है। समाज को नए नेतृत्व की दरकार है और वंचित समाज के लोग गंभीरता से अब इस बारे में सोचना शुरू कर दिया है। वंचित समाज के बिखरे पड़े लोगों, संगठनों को एकजुट करने की दिशा में काम शुरू हो चुका है। 

कु.स. : जाति आधारित जनगणना से सरकारें क्यों बचना चाहती हैं? कहती जरूर है लेकिन करवाती नहीं है? आपकी इस मुद्दे पर राय क्या है ? 

ओ.रा. : बाबासाहेब आंबेडकर ने यह व्यवस्था दी थी, लेकिन सवर्णों ने जानबूझकर इस पर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उन्हें पता है कि जिस दिन ऐसा हो जाएगा उस दिन पता चल जाएगा कि 15 फीसदी से कम आबादी वाले सवर्ण 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण ले रहे हैं। आजादी के सात दशक से ज्यादा समय बीत चुका है लेकिन जाति आधारित जनगणना आज तक नहीं करवायी जा सकी जबकि गरीब सवर्णों को दस फीसदी आरक्षण देने की जब बात आयी तो आनन-फानन में संसद से पास कराकर इसे लागू करा दिया गया। हमलोग लगातार जाति आधारित जनगणना करवाने की मांग कर रहे हैं और अगर अब भी हमारी इस मांग को नजरंदाज करती है तो फिर आंदोलन का भी रुख दलित बहुजन समाज अख्तियार करने से पीछे नहीं हटेगा। 

कु.स. : सरकार की कौशल विकास केन्द्र योजना एक महत्वपूर्ण योजना थी जिनमें शिल्पकार समाज के लोगों का कौशल विकास संभव था लेकिन अब यह योजना फेल होती दिख रही है। आख़िर इसकी क्या वजहें हैं ?

ओ. रा. : जब शुरुआत ही आधी अधूरी तैयारियों के साथ की जाएगी तो मंजिल तक आखिर कैसे पहुंचा जा सकता है। कौशल विकास केन्द्र योजना के साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ है। जरूरत रोजगारपरक शिक्षा आधारित सिलेबस तैयार करने की थी न कि मैट्रिक, इंटर, बीए, एमए कराकर कौशल विकास केन्द्र योजना से उन्हें लाभ पहुंचाने की। मेरा तो मानना है कि प्राथमिक विद्यालय में कक्षा चार से तकनीकी शिक्षा, कुटीर उद्योग आदि के बारे में पढ़ाया गया होता तो हाई स्कूल आते-आते सीख लिया होता। इसलिए सबसे पहले रोजगारपरक शिक्षा प्राथमिक स्कूलों से शुरू करने की है। 

कु.स.: सरकारी विभागों में नौकरियों के बैकलाॅग भरे जाने के लिए कुछ खास नहीं किया जा रहा है? इस पर आपका क्या कहना है?

ओ.रा. : भाजपा की अगुवाई वाली मोदी सरकार का यह छठा साल है और इन छह सालों में आरक्षण पूरा करने की बजाय बड़ी ही चालाकी से साजिशन प्राइवेटाइजेशन किया जा रहा है। सरकारी विभागों तक में नौकरियां आउटसोर्स की जा रही है और ऐसा करने से आरक्षण की हकमारी हो रही है। सरकारी विभागों में जब नौकरियां बचेंगी नहीं तो बैकलॉग की समस्या अपने आप समाप्त हो जाएगी, मोदी सरकार इस सोच के साथ काम कर रही है। 

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कुमार समीर

कुमार समीर वरिष्ठ पत्रकार हैं। उन्होंने राष्ट्रीय सहारा समेत विभिन्न समाचार पत्रों में काम किया है तथा हिंदी दैनिक 'नेशनल दुनिया' के दिल्ली संस्करण के स्थानीय संपादक रहे हैं

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