परदे के पीछे
(अनेक ऐसे लोग हैं, जो अखबारों की सुर्खियों में भले ही निरंतर न हों, लेकिन उनके कामों का व्यापक असर मौजूदा सामाजिक-सांस्कृतिक व राजनीतिक जगत पर है। बातचीत के इस स्तंभ में हम पर्दे के पीछे कार्यरत ऐसे लोगों के दलित-बहुजन मुद्दों से संबंधित विचारों को सामने लाने की कोशिश कर रहे हैं। इस कड़ी में प्रस्तुत है, पूर्व केंद्रीय राज्य मंत्री प्रो. संजय पासवान से कुमार समीर की बातचीत। स्तंभ में प्रस्तुत विचारों पर पाठकों की प्रतिक्रिया का स्वागत है)
दरकी नहीं है दलित-बहुजन एकता, भाजपा में शिफ्ट हुए उनके वोट : संजय पासवान
पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्य मंत्री व बिहार विधान परिषद सदस्य प्रो. संजय पासवान का मानना है कि दलित-बहुजनों की एकता नहीं दरकी है। हुआ यह है उनके भाजपा में शिफ्ट हुए। 2019 के लोकसभा चुनाव में दलित बहुजनों ने बड़ी संख्या में भाजपा के पक्ष में वोट किया। प्रस्तुत है प्रो. पासवान की फारवर्ड प्रेस प्रतिनिधि कुमार समीर से बातचीत का संपादित अंश :
कुमार समीर (कु.स.) : शुरूआत आरक्षण से करते हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण की समीक्षा करने की बात एकबार फिर कही है। क्या आपको भी लगता है के बावजूद दलित-बहुजनों का समुचित विकास नहीं हो पाया है? सभी को मौका मिले, इसके लिए इनके उपवर्गीकरण के सुझाव पर आपका क्या कहना है?
प्रो. संजय पासवान (सं.पा.) : हमारा तो मानना है कि अनुसूचित जाति में भी उपवर्गीकरण होना चाहिए ताकि इसके तहत आने वाली हर जाति तक आरक्षण का लाभ पहुंच सके। महज एक जाति ही आरक्षण का लाभ (हड़प) लेकर सामंत बनने की राह पर चल पड़ेगी, उपवर्गीकरण से इस पर लगाम लगेगी।
कु.स.: राजनीतिक दृष्टिकोण से देखें तो इस साल (2019) हुए लोकसभा चुनाव के बाद दलित बहुजनों की एकता दरकती नजर आ रही है। क्या अब फिर से इस एकता के बनने की कोई उम्मीद आप देख पा रहे हैं?
सं.पा.: सबसे पहले स्पष्ट कर दूं कि राष्ट्र हित में दलित-बहुजन एकता जरूरी है और इसकेे दरकने की बात सरासर ग़लत है। दलित बहुजन के वोट दरके नहीं, बल्कि भाजपा में शिफ्ट हुए। 2019 के लोकसभा चुनाव में दलित बहुजनों ने बड़ी संख्या में भाजपा के पक्ष में वोट किया। हां, दलित बहुजन के नाम पर जो कुछ पार्टियां दुकानदारी चला रहीं थीं, उन पर जरूर असर पड़ा। इसके साथ-साथ कम्यूनिस्ट पार्टियां कमजोर हुईं, समाजवादियों का आधार कमजोर हुआ और वहां से भी दलित-बहुजन भाजपा के फोल्ड में शिफ्ट हुए। इसलिए कुछ भी दरका नहीं है, बल्कि शिफ्ट हुआ है।
कु.स.: दलित समाज का एक तबका उत्तर प्रदेश में मायावती से नाराज़ चल रहा है। इसी तरह कमोबेश हर राज्य में दलित समाज अपने मौजूदा दलित नेताओं से खुश नहीं हैं? क्या आपको लगता है कि आज का दलित समाज एक नया नेतृत्व चाहता है?
सं.पा.: मौका मिलने पर जब कोई अपने और अपने परिवार के बारे में ही सोचने लगे तो समाज के लोगों से दूरी बननी स्वभाविक है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि अपने समाज में भी नए-नए सामंत पैदा हो गए हैं, जिससे आपस की दूरियां बढ़ गई हैं। बिहार और उत्तरप्रदेश की बात करें तो बिहार में पासवान के खिलाफ 22 जातियां महादलित के रूप खड़ी हो गई हैं जबकि कमोबेश यही हाल उत्तर प्रदेश की चमार जाति के साथ है। इसके खिलाफ भी दलित समाज की जातियां खड़ी हो गई हैं। हमें इस तरह के बिखराव को रोकना होगा और हमारे नीचे जो हैं, उसे भी देखना होगा और उन्हें आगे लाने के उपक्रम में जुटना होगा। भाजपा बिखराव को रोकने के लिए लगातार प्रयास कर रही है और यही वजह है कि दलित-बहुजन सहित मुसलमान भी भाजपा की तरफ आकृष्ट होने शुरू हो गए हैं।
कु.स.: आपके कहने का मतलब मुसलमान भाजपा की तरफ आकृष्ट होने शुरू हो गए हैं? यह बात तो असंभव को संभव करने जैसी है?
सं.पा.: ग्राउंड रियलिटी क्या है, इस पर गौर करेंगे तो जिसे असंभव कह रहे हैं, वह आपको भी संभव होता हुआ दिखेगा। आज की तारीख में मुसलमानों को क्या चाहिए। उन्हें अमन-चैन चाहिए। रोजगार सबसे बड़ी समस्या है, उन्हें रोजगार मिल जाए तो दावे के साथ कहता हूं राम मंदिर-बाबरी मस्जिद जैसे मसलों पर भी उनका रुख, रवैया अलग होगा। वे बेरोजगार हैं और खाली हैं। कोई उकसाता है तो बहकावे में आ जाते हैं। ये लोग लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। वे लोग समझते हैं कि इस तरह से पेट नहीं भरने वाला है।
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कु.स. : हाल ही में आपने मांग की है कि नीतीश कुमार को इस बार अपने सहयोगी दल भाजपा को राज्य के नेतृत्व का मौका देना चाहिए। इस मांग के पीछे आपका आधार क्या है? क्या नीतीश जी की कार्यशैली से आपलोग खुश नहीं हैं?
सं.पा. : नीतीश बाबू की कार्यशैली से खुश और नाराज़ होने जैसी कोई बात नहीं है बल्कि सच तो यह है कि अपने 15 वर्ष के मुख्यमंत्रित्व काल में अभी तक उम्दा काम किया है और अब उनसे राज्य का मोह छोड़ केंद्र की राजनीति में अपने अनुभव से देश को आगे बढ़ाने में मदद की मांग भर की है। समय के साथ बदलाव जरूरी होता है, इसलिए मेरी उपरोक्त मांग को उसी नजर से देखा जाना चाहिए।
कु.स. : नीतीश जी की अगुवाई में अगर अच्छा काम हुआ है, फिर बदलाव की बात थोड़ा समझ से परे लगती है?
सं.पा.: देखिए, समय के साथ बदलाव जरूरी होता है। पुराने ढर्रे पर चलकर क्या मंजिल हासिल की जा सकती है? हमारी केवल एक मांग है, 15 साल आपने बिहार की बागडोर संभाली, अब भाजपा को चेंज के लिए ही सही नेतृत्व का मौका दें। आपने समझ से परे की बात की तो सिंपल सी भाषा में स्पष्ट कर दूं कि हर सरकार, पार्टी का अपना अपना एजेंडा, कोर इश्यू होता है। नीतीश बाबू अपने एजेंडे व कोर इश्यू को प्राथमिकता दे रहे हैं जबकि हमारे कोर इश्यूज का विरोध कर रहे हैं। वह ऐसा तब कर रहे हैं जब बिहार की जनमानस भाजपा के साथ है। सदन से लेकर सड़क तक विरोध कर रहे हैं, इसलिए गुज़ारिश है कि वह नेतृत्व का मौका भाजपा को बिहार में दें और देखें कि किस तेजी से बिहार का विकास होता है।
कु.स.: आपकी बातों में अनुरोध, आग्रह तो है लेकिन कहीं ना कहीं धमकी भी है? 2015 विधानसभा चुनाव की तरह अकेले बिहार में चुनाव लड़ने का तो भाजपा मन नहीं बना रही है?
सं.पा.: यह सवाल भी काल्पनिक है और इसका जवाब भी काल्पनिक ही होगा। मैं तो अभी केवल हकीकत बताने की कोशिश कर रहा हूं कि जनमानस भाजपा व नरेंद्र मोदी के साथ है और इसकी बानगी इस साल हुए लोकसभा चुनाव में देखने को मिल गई, जब नीतीश बाबू की पार्टी के भी आधे उम्मीदवार जीतने में सफल रहे, जबकि यह सभी को पता है कि लोकसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा गया था। साथ में यह भी बता दूं कि लोकसभा चुनाव के लिए टिकट बंटवारे में अपने सहयोगी दलों का खास ध्यान रखा जबकि इस चक्कर में चार सीटिंग सांसद की सीटें भी सहयोगी दलों के खाते में चलीं गईं। पार्टी में बगावत तक की नौबत आ गई थी लेकिन तब भी सहयोगी पार्टी के धर्म को निभाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हर समय ख्याल रखा गया और अब केवल गुज़ारिश की जा रही है कि सरकार में नेतृत्व का मौका एक बार भाजपा को दी जाय।
(संपादन : नवल)
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