झारखंड के विधानसभा चुनावों में जिन कारणों से भाजपा को मुंह की खानी पड़ी उसमें एक महत्वपूर्ण कारण आदिवासियों की नाराजगी थी. हेमंत सोरेने के नेतृत्व में भाजपा को चुनौती दे रहे, झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद के गठजोड़ ने चुनावों में वादा किया था कि वे रघुबर दास की सरकार की आदिवासी विरोधी नीतियों को पलट कर उनके साथ न्याय करेंगे. इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए हेमंत सोरेन ने अपनी कैबिनेट की पहली बैठक में आदिवासियों से जुड़े दो अहम फैसले लिए. पहला यह कि पत्थलगड़ी आंदोलन के दौरान आदिवासियों पर लादे गए मुकदमें सरकार वापस लेगी. दूसरा यह कि संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटी) तथा छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटी) में परिवर्तन के विरोध में हुए आंदोलन में शरीक लोगो पर लादे गए मुक़दमों भी वापस लिए जायेंगे.
इसके साथ ही कैबिनेट ने पैरा शिक्षकों एवं आंगनवाड़ी सेविकाओं समेत सभी अनुबंधकर्मियों के बकाये का जल्द से जल्द भुगतान किये जाने का फैसला लिया. इससे लम्बे समय से बेरोजगारी और कम वेतन के चलते तकलीफ में जी रहे अनेकों परिवारों के घरो में चूल्हे जलने की उम्मीद जगी है. इसके अलावा वंचित समुदायों के छात्रों के हितों को ध्यान में रखते हुए कैबिनेट ने बकाया छात्र-वृत्तियों के तत्काल भुगतान का निर्देश दिया.
29 दिसंबर 2019 शनिवार को झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन ने झारखंड के 11वे मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ग्रहण किया. हेमंत सोरेन के साथ ही अन्य तीन लोगों, आलामगीर आलाम, रामेश्वर उरांव (दोनों कांग्रेस) और सत्यानन्द भोक्ता (राजद) ने भी मंत्रीपद का शपथ लिया. शपथ लेने के कुछ घंटों बाद देर शाम हेमंत सोरेन ने अपनी पहली कैबिनेट बैठक की.

राज्य के नए मुख्यमंत्री ने इस तरह से आदिवासियों के संघर्ष को स्वीकृति प्रदान की. झारखंड की लडाई आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी की नहीं है. बल्कि यह पांचवी अनुसूची के अंतर्गत आने वाले इलाको में जल, जंगल और जमीन के ऊपर आदिवासियों के परंपरागत अधिकारों की स्थापना से जुडी है. वास्तव में यह संघर्ष जमीन को हड़पने वाले बनाम अपनी पुश्तैनी जमीन खोने वालों के बीच का है.
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ध्यान में रहे कि सन् 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सत्तासीन होने के कुछ ही समय बाद, भाजपा ने ‘भूमि अधिग्रहण में उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013’ में संशोधन हेतु एक विधेयक संसद में प्रस्तुत किया. तत्कालीन सभी विपक्षी पार्टियों के विरोध और राष्ट्रीय लोकतांन्त्रिक गठबंधन (एनडीए) के कुछेक घटक दलों की असहमति के बावजूद, सरकार इस विधेयक को संसद की स्वीकृति दिलाने पर अड़ी रही. इस विधेयक का देश भर के जनसंगठनों ने कड़ा विरोध किया और लाखों आदिवासी इसके खिलाफ सड़कों पर उतरे. उस दौरान झारखंड में इसके खिलाफ जबरदस्त आंदोलन हुआ, जिसके चलते सरकार ने इस विधेयक को वापस लेना पड़ा.
गौरतलब हो की स्वयं मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने इन तीनों आंदोलनों में तत्कालीन भाजपा सरकार का विरोध भी किया था और आदिवासियों का साथ भी दिया था.आदिवासियों का मानना था कि कानूनों के साथ छेड़-छाड़ कार्पोरेट के इशारो पर किया जा रहा है ताकि, उन्हें आदिवासियों की जमीन को आसानी से औने-पौने दाम पर दिया जा सके.
ऐसे में आदिवासी समुदायों ने अपने-अपने गांव, परगनाओं और पंचायतों में गंभीर चर्चा कर पत्थलगड़ी करने का निर्णय इसी सन्दर्भ में लिया. पत्थलगड़ी के ज़रिए आदिवासियों ने अपने संवैधानिक अधिकारों का उद्घोष किया और ज़मीन के भूखे कॉर्पोरेट्स का प्रतिरोध करने के लिए स्वयं को सशक्त किया. आदिवासियों ने अपने इस प्रतिरोध को अपने वोट के माध्यम से भी व्यक्त किया और भाजपा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया.
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