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“द्विज” बिहार पुलिस ने ली दो ओबीसी युवाओं की जान!

कोरोना लॉकडाउन के बीच बिहार में विक्रम पोद्दार और संतोष शर्मा नामक दो युवकों की मौत हो गई। विक्रम की मृत्यु पुलिस हिरासत में हुई जबकि संतोष ने पुलिस की पिटाई के बाद इलाज के लिए पटना ले जाते समय दम तोड़ दिया। वीरेंद्र कुमार बता रहे हैं इन दोनों घटनाओं की पृष्ठभूमि

अतिपिछड़ों-महादलितों के वोट बैंक के बल पर पर 2005 से बिहार में राज कर रहे नीतीश कुमार के शासन में द्विजवाद चरम पर है। इसका उदाहरण बीते दिनों तब देखने को मिला जब सवर्ण-सामंती दबदबे वाले बेगूसराय जिले में अत्यंत पिछड़ी जाति के दो युवाओं की हत्या पुलिस द्वारा कर दी गयी। इनमें से एक थे फुले-आंबेडकर विचारधारा के हामी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता संतोष शर्मा तथा दूसरे विक्रम पोद्दार। 

पुलिस ने थाने में  दिया ‘ऑनर किलिंग’ को अंजाम?

वीरपुर थाना क्षेत्र के निवासी विक्रम पोद्दार की हत्या के पीछे पृष्ठभूमि यह है कि वह अपने ही गांव की ऊंची जाति की एक लड़की से प्रेम करता था। दोनों भाग कर दिल्ली चले गए थे। लड़की के परिवार के दबाव में पुलिस प्रशासन हरकत में आया और दोनों को लगभग 59 दिन बाद दिल्ली से पकड़कर बेगूसराय ले आया गया। वीरपुर थाने में तीन दिन बाद विक्रम पोद्दार संदिग्ध स्थिति में गमछे के फंदे से लटकता हुआ मृत मिला। स्थानीय पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला करार दिया। यह घटना 24 मार्च, 2020 को घटित हुई। 

लॉकडाउन की वजह से लाश भी नहीं ले सके परिजन

पुलिस ने इस घटना की जानकारी उसकी विकलांग भाभी को दी। विक्रम के परिवार के लोग प्रवासी मजदूर हैं। उसके पिता और एक बड़ा भाई दिल्ली में दिहाड़ी मजदूर हैं। विषम परिस्थिति तब पैदा हो गयी जब विक्रम की लाश लेने उसके परिजन नहीं पहुंच सके। इसकी वजह यह थी कि घर में केवल उसकी विकलांग भाभी थी और उसके अन्य परिजन दिल्ली में कोरोना लॉकडाउन में फंसे थे। नतीजतन कई दिनों तक विक्रम की लाश अस्पताल में लावारिस पड़ी रही। 

सनद रहे कि यह वही बिहार है जहां हाल में नवादा के एक भाजपा विधायक अनिल सिंह को राज्य सरकार द्वारा स्पेशल पास उपलब्ध कराया गया था ताकि वे राजस्थान के कोटा से अपनी बेटी को वापस ला सकें। लेकिन विक्रम पोद्दार के पिता और उसके बड़े भाई को उसकी अंत्येष्टि में भाग लेने से वंचित कर दिया गया।

पोल खोलने के कारण पुलिस के हत्थे चढ़े संतोष शर्मा

विक्रम पोद्दार की पुलिस कस्टडी में संदेहास्पद मौत से ही युवा सामाजिक कार्यकर्ता संतोष शर्मा की हत्या की कड़ी भी जुड़ी है। दरअसल हुआ यह कि विक्रम पोद्दार की संदिग्ध मौत की समुचित जांच और लाश का प्रशासन द्वारा अंतिम संस्कार करवाने के लिए संतोष शर्मा ने पहल की। सामाजिक कार्यकर्ता व यूथ ब्रिगेड के अध्यक्ष के रूप में उसने एक शिष्टमंडल के साथ 26 मार्च को बेगूसराय सदर के एसडीओ से मुलाकात की। उसने स्थानीय प्रशासन पर दबाव बनाने का प्रयास किया ताकि विक्रम पोद्दार की पुलिस कस्टडी में मौत की जांच हो तथा उसके शव की अंत्येष्टि स्थानीय प्रशासन करे। इसके साथ ही संतोष ने इस पूरे मामले में पुलिस को कटघरे में खड़ा कर दिया। उसने सवाल उठाया कि विक्रम को हाजत में रखने के बजाय स्टोर रूप में क्यों रखा गया।  वह यहीं नहीं रूका। उसने पुलिस से थाना परिसर के वीडियो फुटेज जारी करने की मांग की। उसने आरोप लगाया कि थाना परिसर में ही लड़की के परिजनों ने स्थानीय पुलिस पर दबाव बनाया था। 

मृतक संतोष शर्मा व विक्रम पोद्दार की तस्वीर

बताते चलें कि वीरपुर थाना के जिस थाना प्रभारी के रहते विक्रम पोद्दार ने कथित तौर पर खुदकुशी की, वह लड़की का सजातीय है।  

संतोष शर्मा पूरे इलाके में दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के सवालों को लेकर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता था। वह स्थानीय राजनीति का उभरता हुआ चेहरा भी था, जिसके कारण भी वह दबंगों की नजर में चढ़ गया था। ऐसे में विक्रम पोद्दार का मामला तूल पकड़ ही रहा था कि संतोष पुलिस के हत्थे चढ़ गए। हुआ यह कि 6 अप्रैल को एटीएम से पैसा निकालकर घर आने के क्रम में नावकोठी थाना की पुलिस ने संतोष शर्मा को उठा लिया। 

एक सभा को संबोधित करते संतोष शर्मा

स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के अनुसार पुलिस ने थाने के पीछे जंगल में ले जाकर 2-3 घंटे तक बर्बर तरीके से संतोष की पिटाई की। इस पिटाई में संतोष को अंदरूनी चोटें लगीं और वह बेदम पड़ा रहा। यह पिटाई निश्चित तौर पर इस वजह से की गयी क्योंकि उसने विक्रम पोद्दार की हत्या के मामले में पुलिस की कलई खोल दी थी। बाद में जैसे ही उसे उठा लेने और उसके साथ पिटाई की जानकारी स्थानीय आंबेडकरवादी और सामाजिक न्याय आंदोलन कार्यकर्ताओं को मिली उन लोगों ने पुलिस पर संतोष को छोड़ने का दबाव बनाया। इसके बाद संतोष शर्मा का इलाज सदर अस्पताल और फिर एक निजी प्राइवेट नर्सिंग होम में कराया गया। चूंकि उसे गंभीर चोटें लगी थीं इसलिए सदर अस्पताल के चिकित्सकों ने उसे 11 दिन बाद 17 अप्रैल को पटना मेडिकल कॉलेज अस्पताल (पीएमसीएच) रेफर कर दिया और पटना ले जाने के क्रम में संतोष की मौत हो गयी। 

बताते चलें कि संतोष शर्मा के पिता प्रभु शर्मा बढ़ईगिरी करते थे और इनकी मौत तीन महीने पहले ही बीमारी की वजह से हुई थी। संतोष शर्मा अपने पीछे पत्नी और दो बच्चे (इनमें से एक 3 साल और दूसरा 2 साल का है) छोड़ गए।

एक नजर बेगूसराय में भूमिहार-ब्राह्मणों के वर्चस्व पर

बेगूसराय बिहार की एक ऐसी लोकसभा सीट है, जहां कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के मजबूत होने के बावजूद सवर्णों  खासकर भूमिहारों और ब्राह्मणों का वर्चस्व आज तक बना हुआ है। इस सीट से (वर्ष 2009 में अशरफ मुसलमान मोनाजिर हसन को छोड़कर) सवर्ण ही जीतते आए हैं। इस मामले में सीपीआई भी जातिगत प्रभाव में रही है। इसका एक प्रमाण यह है कि (1962 में अख्तर हाशमी को छोड़ कर) अब तक उसके सभी उम्मीदवार सवर्ण ही रहे हैं।  यहां ऊंची जातियों के वर्चस्व का एक प्रमाण पिछला लोकसभा चुनाव है जब गिरिराज सिंह यहां से निर्वाचित हुए। उनके मुकाबले सीपीआई ने जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया था। 

तीन दशकों से सामाजिक न्याय वालों की सरकार, लेकिन दलितों, पिछड़ों पर हमले जारी

बिहार में पिछले तीस सालों से सामाजिक न्याय के झंडाबरदार सरकारें सत्ता पर काबिज हैं। मुख्यमंत्री के रूप में भी पिछड़ी जाति के लोग ही रहे हैं। पहले लालू प्रसाद यादव और बाद में भाजपा के साथ गठजोड़ कर मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार। इसके बावजूद बिहार में दलित-अतिपिछड़ों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों पर सामंती ताकतों के हमले कम नहीं हुए हैं। हालांकि यह जरूर है कि सामाजिक न्याय की ताकतों की सरकार बनने और जमीन पर हकदारी और सामाजिक मान-सम्मान के लिए भूमिहीनों-गरीब किसानों के रैडिकल वामपंथी भूमिगत आंदोलनों ने पिछड़ों-अतिपिछड़ों-दलितों और अल्पसंख्यक समुदाय के अंदर राजनीतिक चेतना और सामाजिक न्याय की आकांक्षा को आगे जरूर बढ़ाया है। लोकतांत्रिक जागृति व दावेदारी से राजनीति में और आरक्षण लागू होने से नौकरियों में इन समुदायों का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। इसमें बड़ी भूमिका कर्पूरी फार्मूला के तहत अति पिछड़ा वर्ग को मिलने वाले आरक्षण की भी रही है, जिसे लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों ने जारी रखा है। लेकिन यह भी सच है कि वैश्वीकरण के बढ़ते प्रभाव के कारण वर्तमान में अतिपिछड़े समुदाय के अधिकांश सदस्य बहुत ही बुरी आर्थिक-सामाजिक स्थिति में गुजर-बसर कर रहे हैं। अधिकतर भूमिहीन हैं और पारंपरिक पेशों के खत्म होने से इनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर हो गई है। 

यह भी काबिले गौर है कि अतिपिछड़े समाज में सैकड़ों जातियां शामिल है और इन जातियों के जनसंख्या बहुत कम है। लेकिन अतिपिछड़ों को एक समूह के तौर पर देखा जाए तो यह सबसे बड़ी आबादी वाला समूह है। इनके मजबूत राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं होने तथा दयनीय आर्थिक-सामाजिक स्थिति होने के कारण ये उत्पीड़न और शोषण के शिकार हैं। ये वे लोग हैं जिनकी उपेक्षा स्थानीय मीडिया भी अपने सामाजिक ताने-बाने के चलते करती है। अखबारों में न तो इनसे जुड़े मसले प्रकाशित होते हैं और न ही इन पर होने वाले अत्याचारों को जगह दी जाती है। 

लेकिन हाल के वर्षों में देश में फुले-आंबेडकर विचारधारा का प्रभाव बढ़ने और सामाजिक न्याय आंदोलन के नए तेवर के साथ सामने आने से स्थानीय स्तर पर अतिपिछड़े समाज में भी राजनीतिक हिस्सेदारी-महत्वाकांक्षा और ब्राह्मणवाद के खिलाफ प्रतिरोध का स्वर स्पष्ट तौर पर देखने को मिलता है. जिसका उदाहरण संतोष शर्मा जैसे राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में देखा जा सकता है। 

बहरहाल, विक्रम पोद्दार और संतोष शर्मा की मौत की जांच प्रक्रियाधीन है। फिर भी बेगूसराय में बह रही बयार को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। लेकिन इतना जरूर ही विक्रम पोद्दार की हत्या अंतर्जातीय प्रेम के कारण हुई और संतोष शर्मा की हत्या ब्राह्मणवादी सवर्ण सामंती वर्चस्व को नीतीश कुमार के फोल्ड से बाहर रह कर अतिपिछड़ों समुदाय की तरफ से फुले-अम्बेडकर के रास्ते चलते हुए बहुजन एकजुटता व पहचान के साथ संघर्ष के रास्ते चुनौती देने के कारण हुई है। .

(संपादन : नवल/अमरीश)

लेखक के बारे में

वीरेन्द्र कुमार

लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के शोधार्थी रहे हैं। वर्तमान में झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में सक्रिय हैं

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