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जानिए, द्विजों को क्यों पसंद है ‘अरेंज मैरैज’?

अरेंज मैरेज एक ही जाति के दो लोगों की शादी है जो परिवारों के “रक्षकों”—जिसमें मां-बाप, चाचा-चाची, बड़े-बूढ़े, दूर तक के रिश्तेदार सभी शामिल हैं—ने तय किया है, जो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके वंश का ख़ून किन्हीं निम्न जातियों के ख़ून से कभी गंदा ना हो जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था। बता रहे हैं सूरज येंगड़े

भारतीय सिनेमा को प्रेम से बड़ा प्रेम है। वह अमीर और गरीब के बीच होने वाले प्रेम, धर्म-क्षेत्र-भाषा की सीमाओं के आर-पार होने वाले प्रेम को बड़े जश्न से मनाता है। यहां तक कि जेंडर और सेक्सुआलिटी के परंपरागत विचारों पर प्रश्न उठाने वाले प्रेम को भी। इस सिनेमा के किसी विदेशी दर्शक को तो ऐसा ही लगेगा जैसे भारत में एक बड़ा ही प्रेममय समाज है। जबकि सच्चाई इससे काफ़ी अलग है।

उदाहरण के लिए बॉलीवुड की एक लोकप्रिय शैली की फिल्मों को ज़रा देखें जो “पारिवारिक फ़िल्में” कहलाती हैं। ये ज़्यादातर तो अमीर मध्यमवर्गीय तबक़ों के लिए बनती हैं। हांलाकि इनके दर्शकों का वर्ग इससे काफ़ी ज्यादा बड़ा है—मैंने फिल्मों के लिए अपने कई दिन अपने पड़ोसियों के घर में गुजारे हैं, क्योंकि मेरे घर में केबल कनेक्शन नहीं था और ऊपर से ब्लैक-ऐंड-व्हाइट टीवी से ज्यादा मज़ा नहीं आता था। ये फ़िल्में, जो आसानी से तीन घंटे तक देखी जा सकती हैं, अक्सर एक शादी के साथ ख़त्म होतीं हैं। पर उस तक पहुंचने के पहले दर्शकों की मुलाक़ात हर किस्म के अलग-अलग किरदारों से होती है जो ज़्यादातर एक प्रेमी जोड़ी के दोनों तरफ़ के लंबे परिवारों से आते हैं। और फिर कहानी में एक के बाद एक कई मोड़ आते हैं—हर परिवार की कुछ व्यवसाय की समस्याएं, जायदाद को लेकर अनबन, एक चालबाज़ बड़ा भाई, हिंदू त्यौहारों का जश्न (अक्सर संगीत के साथ)—जो एक खिलते प्रेम को या तो आगे बढ़ाते हैं या उसके लिए एक ख़तरा बनकर आते हैं। आख़िर में सुखांत होता है और किसी भी तरह दूल्हा और दुल्हन हमेशा के लिए सुख के बंधन में बंध जाते हैं।

यह सब कुछ उपरी तौर पर ठीक-ठाक ही दिखता है। पर ज़रा क़रीब से देखें तो पता चलता है कि ये सारी पारिवारिक लम्बी-चौड़ी तोड़-मोड़ बस इस बात को छिपाने या कम से कम हल्का करने की कोशिश कर रही है कि ऐसी फिल्में असल में अरेंज्ड मैरेज का समर्थन करती हैं। 

‘प्रत्यक्षं किम् प्रमाणम्’ कहावत को चरितार्थ करते भारतीय शादियों में जाति संबंधित विज्ञापन व खबर

भारत के बाहर के पाठक शायद यह समझते होंगे कि अरेंज्ड मैरेज भारतीय समाज की एक प्रथा है जिसमें युवा जोड़ियां अपनी मरज़ी से अपने मां-बाप और परिवार के बड़े-बूढ़ों की सत्ता को मानती हैं और ये लोग उनके लिए सही “रिश्ता” ढूंढ लेते हैं। कुछ लोग शायद इसे ऊंचे आदर्शों से भी जोड़ लें। यह सब कहानियों की बातें हैं। लेकिन असल में अरेंज्ड मैरेज एक सजातीय विवाह है। इसका मतलब यह एक ही जाति के दो लोगों की शादी है जो परिवारों के “रक्षकों”—जिसमें मां-बाप, चाचा-चाची, बड़े-बूढ़े, दूर तक के रिश्तेदार सभी शामिल हैं—ने तय किया है, जो ये सुनिश्चित करना चाहते हैं कि उनके वंश का ख़ून किन्हीं नीची जातियों या ‘भगवान’ न करे कि उन जातियों के ख़ून से कभी गंदा ना हो जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था।

इन साफ़-सुथरी पारिवारिक फिल्मों के वजूद की एक वजह है – भारत की सबसे ऊंची जाति, या हिन्दू “द्विज”—जो जनसंख्या में करीब 18 प्रतिशत हैं—ने बॉलीवुड पर अपना प्रभाव जमाए रखा है और उसने अपनी स्वयं की संकुचित, संभ्रांत और स्थिर जातीय संस्कृति को पूरे भारत के जीवन के एक मखौल जैसे नमूने की तरह हमेशा पेश किया है। (असल में तो ये पंजाबी खत्री जाति की शादियां हैं, जिनको भारतीय विवाह प्रथा की तरह दिखाया जाता है।) इन शादियों में जो खान-पान, कपड़े, आलीशान घर, साज-सज्जा, गलीचे, साड़ी, सिन्दूर, त्यौहार दिखाए जाते हैं, जिन देवताओं की पूजा की जाती है, ये सब बस प्रबल जाति की दुनिया से मेल खाते हैं। बॉलीवुड में दलितों (वो जातियां जिन्हें पहले अछूत कहा जाता था), आदिवासियों (मूल निवासी) या पिछड़ी जाति के हिन्दुओं की संस्कृति या इनके वजूद तक का कहीं शायद ही ज़िक्र होता है। जबकि भारत की जनसंख्या में इन लोगों का हिस्सा 70 प्रतिशत है। अलगाववाद की यह संस्कृति उस घातक यथापूर्व स्थिति को बरक़रार रखती है जहां “द्विज” जातियों के सदस्य अपनी जाति व्यवस्था के कुलीनतंत्रीय लाभ उठाते रहते हैं और सजातीय शादियों के ज़रिए अपने वंशजों को—ख़ासकर लड़कियों को—अपने कुनबे से बाहर नहीं जाने देते हैं। लेकिन जिस संरचनात्मक हिंसा पर ये शादियां टिकी हैं, उसे वो छिपाकर रखते हैं।

शायद इससे ज़्यादा बुरी बात यह है कि जब कभी बॉलीवुड परिवार से दूर प्रेम विवाह को दिखाता भी है तो वह जातीय पृष्ठभूमि की तरफ़ आंखें मूंद लेता है, जब लोग असली ज़िन्दगी में प्रेम विवाह की जुर्रत करते हैं ख़ासकर जातियों के दायरों के बाहर आकर तब लव मैरेज में होने वाली सारी गड़बड़ी और हिंसा की तो बॉलीवुड में कोई जगह ही नहीं है। बॉलीवुड की रंगीन सपनों की दुनिया के ठीक विपरीत काफ़ी डरावनी सच्चाई तो यह है कि भारत के गांव-देहातों में आज भी अंतर्जातीय संबंध दिल दहलाने वाले दंगों और शांति-सुरक्षा के नाम पर किए गए हिंसात्मक हमलों का सबब बन सकते हैं। (प्रेस में अक्सर इन्हें व्यंजनात्मक रूप से “ऑनर किलिंग” बुलाया जाता है।) ज़्यादातर इसका कहर निचली जाति के सदस्यों पर पड़ता है, कभी-कभी तो सबल जाति के सदस्य के परिवार के हाथों उसे मौत के घाट भी उतार दिया जाता है। जब मैं यह लिख रहा हूं, मेरी फीड में एक समाचार-शीर्षक अचानक उभर आया है। लिखा है – “एक दलित पुरुष को प्रेम करने वाली एक महिला की उसकी मां-बाप, भाई द्वारा हत्या”। किसी दलित पुरुष के साथ रिश्ता होने की वजह से उसके परिवार वालों ने ही उसका गला घोंट दिया। जांच अधिकारी के अनुसार, “भारती की मां रश्मि ने उसकी छाती पर बैठकर उसके चेहरे को एक तकिए से दबाकर उसे मार डाला जबकि मनीष ने उसके हाथ पकड़ रखे थे। उसके मरने के बाद उसके पिता और भाई ने मिलकर उसके शरीर को उसके कमरे में ऊपर से लटका दिया ताकि ऐसा लगे कि उसने आत्महत्या की हो।” यह घिनौनी हत्या सिर्फ परिवार के ख़ून को शुद्ध रखने के लिए की गई थी और जिसे बेटी की ज़िन्दगी से ज़्यादा ज़रूरी समझा जाता है। एक दलित के शरीर का द्रव पूरी वर्ण व्यवस्था के लिए ख़तरा है।

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ऐसी बर्बर घटनाओं का निर्बाध होते रहना हमें सवाल उठाने के लिए मजबूर करता है हमें करनी भी चाहिए – अरेंज्ड मैरेज से जुड़े तथाकथित “परंपरागत” आदर्शों पर, या जहां तक ये बात जुड़ी है – बॉलीवुड के द्वारा अंधेरे में छिपाई गई इस सच्चाई पर। कुछ भी कह लें लेकिन आप भारतीय समाज को तब तक नहीं समझ सकते जब तक आपकी समझ की पकड़ अरेंज्ड मैरेज पर ना हो, जो दुर्भाग्य से सभी प्रकार के वर्गों में प्रचलित है। ताज होटल ग्रुप के द्वारा हाल ही में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 75 प्रतिशत युवा भारतीय अरेंज्ड मैरेज के पक्ष में हैं। और उत्तर भारत में 82 प्रतिशत महिलाएं यह चाहती हैं कि उनके माता-पिता ही उनके लिए उनका जीवनसाथी चुनें। इन लाखों अभागों के लिए आगे कैसा विवाहित जीवन रखा है? इनके बड़ों ने इनके लिए कैसी यातनाएं तैयार कर रखीं हैं? चलिए, मैं आपको एक गाइडेड टूर पर ले चलता हूं।

प्यार का बाज़ार

अरेंज्ड मैरेज अलग-अलग रूपों में आती है। सबसे सीधे तौर पे आपके परिवार, या जाति, या किसी धार्मिक-सांस्कृतिक ग्रुप (जिससे आपका परिवार जुड़ा हो) के बड़े-बुज़ुर्ग इसे तय कर लेते हैं। अक्सर दोनों यानी लड़का-लड़की की जन्मपत्रियां मिलाई जाती हैं यह देखने के लिए कि यह रिश्ता ठीक अथवा फ़िट है या नहीं। कई दिल तो जन्मपत्रियों के न मिलने पर टूटते हैं। एक अंधविश्वासी समाज की ये सारी करामातें हैं।

अगर आपका परिवार-समाज आपके लिए सही जोड़ा ना ढूंढ पाए तो फिर विवाह मेले भी होते हैं, जहां बेटे-बेटियों की जागीर-जायदाद की तरह नुमाइश की जाती है। (हाल ही में लंदन रिव्यु ऑफ़ बुक्स में युन शेंग ने जो चाइनिज “मैरेज मार्केट” का वर्णन किया था, यह उससे ज़्यादा अलग नहीं है।)

लेकिन ये सारे “परंपरागत” तरीके आजकल के अरेंज्ड मैरेज के जुगाड़ के मॉडर्न तरीकों के सामने कुछ नहीं हैं। कोई भी भारतीय अख़बार खोलकर देखिए और आपको एक-दो पन्ने शादी की इश्तेहारों के लिए रिज़र्व मिल ही जाएंगे। बड़ी ही बेशर्मी से वह पन्ना जात-बिरादरी के आधार पर छोटे-छोटे बक्सों में बंटा मिलेगा ताकि आपको अपने ही “समुदाय” का कोई मिल जाए और आप किसी भी तरह के प्रदूषण से बचे रहें। इस तरह की मूर्खता से लड़ने के लिए भारत का सबसे बड़ा अंग्रेज़ी दैनिक अख़बार, टाइम्स ऑफ़ इंडिया, शादी के उन इश्तिहारों पर 25 प्रतिशत की छूट देता है जो जाति या जाति-आधारित पसंद का ज़िक्र नहीं करते हैं। यहां तक कि उन्होंने अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहित करने के लिए “कास्ट नो बार” वाले शीर्षक के साथ इश्तिहारों का एक अलग ही सेक्शन भी बना दिया है। पर ऊंची जाति वाले भारतीयों ने इसमें भी एक रास्ता निकाल लिया है। “कास्ट नो बार” वाले सेक्शन में इश्तेहार डालने वाले कुछ लोग बड़ी चालाकी से अपने कुलीन साथियों के लिए अपनी जाति का इशारा इश्तिहार में डाल देते हैं। “कास्ट नो बार” सेक्शन में एक काफ़ी अनुचित इश्तेहार “केवल अपर-कास्ट” शीर्षक के साथ छपा था। (इस विरोधाभास को शायद इस तरह से समझाया जा सकता है कि ‘अपर कास्ट’ या “ऊंची जाति” के अंदर अनगिनत जातियां आ जाती हैं।) इस तरह का भेदभाव खुल्लम-खुल्ला काफ़ी निम्न स्तरीय हो सकता है, जैसे एक आवेदक “एससी / एसटी के अलावा जाति कोई बाधा नहीं” के शीर्षक के नीचे अपना प्रस्ताव रखता है। (एससी का मतलब है अनुसूचित जातियां जो पहले की अछूत जातियों के लिए प्रशासनिक शब्द है और इसी तरह एसटी का मतलब है अनुसूचित जनजातियां जो आदिवासियों के लिए प्रयोग किया जाता है।)

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अरेंज्ड मैरेज में जोड़ा ढूंढने के लिए अब तो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस (एआई) का भी इस्तेमाल हो रहा है। हाल के कुछ सालों में कई मैट्रिमोनियल वेबसाइट खुल गई हैं—”भारत मैट्रिमोनी” और “शादी डॉट कॉम” इनमें शायद सबसे ज़्यादा मशहूर हैं—जो अपने एडवांस्ड फ़िल्टर्स की मदद से जाति, वंश और रिश्तेदारी के महीन जालों को भी संभाल सकती हैं। ये वेबसाइट छोटे-बड़े शहरों में किसी के लिए जाति के दायरों से गुमनाम रूप से बाहर निकलने के लिए एक अच्छा मौका हो सकती हैं। इसके विपरीत ये भी बर्बर वैदिक आदर्शों को मूर्त रूप देने का एक नया ज़रिया बन गई हैं। मानों यह प्राचीन पक्षपात कम था, अब आईआईटी और आईआईएम (जो भारत की उच्चतर शिक्षा संस्थानों में कम से कम दिखावे के लिए सबसे उम्दा माने जाते हैं) के अलग-अलग ब्रांचों के ग्रैजुएटों के लिए विशेष रूप से समर्पित मैट्रिमोनियल वेबसाइट भी खुल गई हैं। जाति और वर्ग की शान को बरक़रार रखते हुए मानों ताने मारते हुए इनकी टैगलाइन घोषणा करती है – “अल्मा मैटर मैटर्स” (अपना कल्ज मायने रखता है)।

कुल मिलाकर देखें तो अरेंज्ड मैरेज के लिए जोड़ा ढूंढना भारत में एक बड़ा व्यापार बन गया है जो प्राचीन पक्षपात और पूंजी के वैश्वीकरण के अपवित्र गठबंधन का एक उदाहरण है। (एआई इसमें एक सामूहिक बड़े-बुज़ुर्ग की भूमिका अदा कर रहा है।) ‘दी इकोनॉमिस्ट’ की एक हाल की रिपोर्ट के अनुसार भारत में अरेंज्ड मैरेज से संबंधित शादी का यह व्यापार सालाना 50 अरब डॉलर का है, और किसी भी पल कुल 6.3 करोड़ लोग अपने लिए एक हर्षहीन रूखे भविष्य की तलाश में तत्परता से जुटे हैं। ऐसा भी नहीं है की यह पिछड़ी प्रथा सिर्फ मातृभूमि तक सीमित हो। विदेशों में बसे कई भारतीय प्रोफ़ेशनल भारत की एक ट्रिप लगाते हैं और जल्दी से जल्दी जितने सारे विकल्प देख सकें, देखकर एक संभव दूल्हा या दुल्हन के साथ वापस उड़ान भर लेते हैं। अमेरिका में आईटी सेक्टर में काम करने वाला मेरा एक दोस्त हर छह महीने भारत जाता है – उनसे मिलने जिनसे उसकी मुलाक़ात इंटरनेट पर हुई हो और वो जिन्हें उसके परिवार ने खोजकर रखा होगा। उसे यह सौदा तय करने में तीन साल लगे। इसके पीछे उसकी उम्र भी एक वजह थी। वह कोई तीस का रहा होगा और उसे चिंता थी कि उसे बिलकुल अपनी आशा के अनुसार ही उत्तम प्रकार की मिले। इसमें भी कोई शक़ नहीं कि उसके पक्षपाती मां-बाप को इसकी भी बड़ी ख़ुशी थी कि उनका बेटा ‘गे’ नहीं था।

यह कहने की वैसे ज़रूरत तो नहीं कि अरेंज्ड मैरेज का जुल्म ज़्यादातर तो महिलाओं को सहना पड़ता है। अरेंज्ड मैरेज की अर्थव्यवस्था में एक बच्ची को ‘पराया धन’ माना जाता है, जो उसे एक ऐसे ऋण या निवेश में तब्दील कर देती है जिसे बस भविष्य में दूल्हे के परिवार को लौटाना होता है, जहां उसकी सच्ची जगह मानी जाती है। इंडियन ह्यूमन डेवलपमेंट सर्वे से पता चला कि भारत में सिर्फ 5 प्रतिशत दुल्हनों ने अपना पति खुद चुना था। सिर्फ 55 प्रतिशत परिवारों ने जोड़ा तय करने के पहले अपनी बेटियों की राय तक पूछी थी; 65 प्रतिशत दुल्हनों ने शादी के दिन या उसके आसपास ही अपने पति को पहली बार देखा या उससे पहली बार मुलाक़ात की; और वो जो अपने साथी को शादी से पहले कम से कम 3 महीने से जानती हों मात्र 15 प्रतिशत थीं। और तो और, सर्वे में शामिल शिक्षित महिलाओं में 62 प्रतिशत ने अपने साथी से शादी के पहले कभी कोई संपर्क नहीं किया था।

कुल मिलाकर अरेंज्ड मैरेज सेक्सुआलिटी, चाहत और विकल्पों पर एक पूरे नियंत्रण का प्रतीक है। युवाओं के लिए यह एक गाइडबुक है यह सिखाने के लिए कि पूर्वनिर्धारित जीवन कैसे जिएं, एक अदृश्य पहरेदारी है यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे कभी अज्ञात की तरफ ना भटकें।

फिर यह सब उचित कैसे है? अगर आप बड़ों से पूछें कि वो अपने बच्चों के लिए जीवनसाथी ढूंढने की ज़हमत क्यों उठाते हैं, तो ज़वाब दबे-दबे पोशीदे लहज़ों में मिलेगा। कई कहेंगे कि अपनी जाति-संस्कृति में शादी करना आसान होता है – आदतें, खान-पान, रीति-रिवाज, धर्म-संस्कार मिलते हों तो एक अपरिचित के घर में रहना आसान हो सकता है। (अपरिचित से यहां मतलब उस परिवार से है जिसमें लड़की की शादी हुई हो।) कुछ लोग तो यहां तक कहेंगे कि जाति के रिश्ते की वजह से दोनों परिवारों के सदस्यों के बीच मेलजोल का संबंध रखना आसान होता है। आप इनके तर्कों के बारे में कुछ भी सोचें, यह बिलकुल सच है कि अरेंज्ड मैरेज पूरे परिवारों के बीच संबंध है ना कि सिर्फ दो लोगों के बीच का संबंध। आख़िरकार एक हाल का सर्वे बताता है कि भारत में 95 प्रतिशत दम्पति शादी के बाद अपने माता-पिता और विस्तृत परिवार के साथ रहते हैं। लगभग 70 प्रतिशत 10 या अधिक सालों से परिवार के साथ हैं। यह उस तरह का माहौल पैदा करता है जहां दम्पति के हर छोटे-बड़े फ़ैसले (आपको बच्चे कब चाहिए, कितने चाहिए, इत्यादि) पर परिवारवालों का भारी प्रभाव पड़ता है। शादी को इस दृष्टि से देखें तो यह पारिवारिक अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा मात्र है। भारत में जातीय अरेंज्ड मैरेज एक व्यक्ति के लिए अपने समाज और अपने परिवार की अभिलाषा को पूरी करने का ज़रिया है। इस सदियों पुराने रिवाज का भारी बोझ युवा पीढ़ी को उठाना पड़ता है।

(पूर्व में दी बैफलर पत्रिका में प्रकाशित)

(अनुवाद : प्रभात भारत)

लेखक के बारे में

सूरज येंगड़े

सूरज येंग्ड़े मानवाधिकार अधिवक्ता, अध्येता, स्तम्भ लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता. वे कास्ट मैटर्स' शीर्षक बेस्टसेलर पुस्तक के लेखक और वर्तमान में हार्वर्ड विश्वविद्यालय में पोस्ट डॉक्टोरल फ़ेलो हैं

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