झारखंड के विभिन्न इलाकों में आदिम जनजातियों के लोग रहते हैं। इनकी संख्या में लगातार होती कमी के कारण इन्हें विलुप्त होनेवाली जनजातियों में शुमार किया गया है। इनमें कोरवा, परहिया, असुर, बिरजिया, बिरहोर, माल पहाड़िया, साबर, सौरिया पहाड़िया और हिलखड़िया आदि जनजातियां शामिल हैं। वर्तमान में सूबे में हेमंत सोरेन की सरकार है, जो संथाल समुदाय से आते हैं। इनके राज में एक ऐसी घटना प्रकाश में आयी है जो न केवल शासन-प्रशासन पर सवाल उठाती है बल्कि स्वयं मुख्यमंत्री के स्तर पर हस्तक्षेप की मांग भी करती है।
यह घटना पलामू जिले की है। जिले के मनातु प्रखंड स्थित डूमरी पंचायत का दलदलिया, सिकनी (फटरिया टोला) और केदला (कोहबरिया टोला) में आदिम जनजाति परहिया समुदाय के लोग रहते हैं। यहां केदल गांव निवासी सकेन्दर परहिया, दलदलिया टोला के सोमर परहिया, विदेश परहिया, धुमखर के अनिल परहिया और भूईनया के सुरेश परहिया सहित 6 लोग टीबी रोग से पीड़ित हैं। बीते दिनों पहले जब इन सभी के मुंह से खून आना शुरू हुआ तब इनके परिजनों ने इन्हें नजदीकी सरकारी अस्पताल मनातु में भर्ती कराया। परंतु चिकित्सकों ने इन्हें पलामू मेडिकल काॅलेज अस्पताल रेफर कर दिया। जब इन्हें पलामू मेडिकल कालेंज अस्पताल ले जाने के लिए एम्बुलेंस की मांग की गई, जो कि वहां से करीब 70 किमी दूर है, तो बीमारों और उनके परिजनों को डांटकर भगा दिया गया।

गांव के कुछ लोगों ने बीते 1 अप्रैल को इन्हें मोटरसाइकिल से पलामू मेडिकल कालेंज अस्पताल पहुंचाया। अस्पताल ले जाने के क्रम में रास्ते में मोटरसाइकिल चालकों को कई बार रूकना पड़ा क्योंकि ये इतने कमजोर हो चुके थे कि मोटरसाइकिल में बैठने में भी असमर्थ थे। पलामू मेडिकल कालेंज अस्पताल में भर्ती कराने के बाद मरीजों की जांच मेडिकल अस्पताल के लैब में न कराकर बाहर के निजी लैब में भेज दिया गया। इतना ही नहीं, इन्हें अस्पताल से दवा न देकर बाहर से दवा खरीदने को कहा गया। जबकि टीबी की दवा निशुल्क उपलब्ध कराये जाने का प्रावधान पूरे देश में है। अस्पताल के चिकित्सकों व कर्मचारियों की संवेदनहीनता का आलम यह रहा कि इन्होंने मरीजों को उनके हाल पर छोड़ दिया। वहीं गांव के लोग जो उन्हें अस्पताल लेकर आए थे, वे वापस लौट चुके थे। चिकित्सकों की उपेक्षा से भर्ती हुए लोग निराश हो गए और वे 2 अप्रैल को ही पैदल ही अपने गांव लौट चले। बीमार कमजोर ये लोग करीब 70 किलोमीटर पैदल चलकर तीन दिन बाद किसी तरह अपने घर वापस चले गए।

वर्तमान में इन छह मरीजाें की स्थिति गंभीर हो गयी है। इस बावत जब पलामू के सिविल सर्जन डा. जॉन केनेडी से संपर्क करने की कोशिश की गई तो उनका मोबाइल काफी समय तक “नाॅट रिचेबल” बताता रहा तो कई बार “व्यस्त” रहने की सूचना मिली।
बताते चलें कि झारखंड के पलामू में परहिया जनजाति के लोगों की संख्या अब न्यूनतम होकर करीब 5 हजार रह गयी है। इस जनजाति के लोग समुचित भोजन के अभाव में कुपोषण के कारण कई बीमारियों से ग्रसित रहने को मजबूर है, खासकर पुरूषों में टीबी और महिलाओं में रक्तअल्पता (अनीमिया) का प्रभाव काफी है।
एनसीडीएचआर के राज्य समन्वयक मिथिलेश कुमार बताते हैं कि “परहिया जनजाति की आजीविका का एकमात्र साधन जंगल ही रहा है। इनकी निर्भरता कृषि आधारित कभी नहीं रही। जहां एक तरफ इनको जंगलों से कई तरह की जीवनोपयोगी जड़ी—बुटी (कंदा, गेठी वगैरह), संतुलित आहार के तौर पर कई तरह की सागों से पोषक तत्त्व मिलते रहे हैं। वहीं अपनी अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए ये लोग बांस से टोकरी वगैरह बनाकर बेचते रहे हैं। अब जब जंगल कटने लगे हैं,इसके बावजूद कि वन अधिनियम के तहत जंगल से बांस वगैरह काटने की मनाही है, ऐसे में जंगलों से इन्हें मिलने वाला पोषक तत्व नहीं मिल पा रहा है और ये कई बीमारियों के शिकार होते जा रहे हैं।”
बहरहाल, मनातु प्रखंड के विभिन्न इलाकों में भुखमरी की स्थिति है। इस स्थिति से परहिया समुदाय के लोग भी प्रभावित हो रहे हैं। ऐसे समय में जबकि कोरोना के कारण लॉकडाउन की स्थिति है, परहिया समुदाय के लोगों को बचाने के लिए सरकार को पहल करनी चाहिए। ऐसा ना हो कि सरकार उन्हें विलुप्त आदिम जनजाति का तमगा देकर उन्हें विलुप्त होता देखती रह जाय।
(संपादन : नवल)