भारतीय समाज की सबसे बड़ी व्याधि है जाति-आधारित भेदभाव, जिसे धर्म का संरक्षण हासिल है – उसी धर्म का जो अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए घरों तक में घुसपैठ करता है। घर में स्त्री और पुरूष के बीच भेदभाव, सामाजिक भेदभाव और वर्चस्ववाद के बीज बोता है। जोतीराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज तमाम भेदभावों को खारिज करता है। इसकी शुरूआत घर से हो इसलिए सत्यशोधक समाज द्वारा विवाह की एक विशेष पद्धति की शुरूआत भी की गयी। यह एक क्रांतिकारी बदलाव का आगाज़ था।
बीते 10 जून, 2020 को मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के वड़वाहा में सत्यशोधक समाज के युवा प्रदेश अध्यक्ष राहुल सावले और मौसमी चटर्जी विवाह बंधन में बंध गए। यह विवाह सत्यशोधक समाज की परंपरा के अनुरूप संपन्न हुआ। आइये, ब्राह्मणवाद को खारिज करने वाली इस क्रांति और इसकी पृष्ठभूमि को समझते हैं।
सत्यशोधक समाज विवाह परंपरा के जनक जोतीराव फुले
जोतीराव फुले ने 24 सितंबर 1873 को सत्यशोधक समाज का गठन किया था। इसके साथ ही सत्यशोधक विवाह पद्धति की शुरूआत की गयी। इस विवाह पद्धति के मूल में यह सोच थी कि स्त्री और पुरूष जीवन के सभी क्षेत्रों में समान हैं और उनके अधिकार एवं कर्तव्य एक से हैं। किसी भी मामले में और किसी भी तरह से स्त्री, पुरूष से दोयम नहीं है और ना ही पुरूष के अधीन है। जोतीराव फुले ने इसी पद्धति के आधार पर फरवरी 1889 को अपने बेटे यशवंत का विवाह कुमारी राधा ससाने से करवाया। सत्यशोधक समाज की रीति के अनुसार बगैर दहेज़, बगैर ब्राह्मण पुजारी और बगैर मंत्रों के – यानी बिना किसी पाखंड के ये विवाह संपन्न होते हैं।
इस विवाह पद्धति ने समाज में हलचल मचा दी। यह लोगों की पारंपरिक मानसिकता पर प्रहार था। नतीजतन ब्राह्मण और तथाकथित उच्चवर्णीय समाज ने फुले दंपत्ति पर गालियों की बौछार कर दी और कहा कि इन दोनों ने धर्म को ललकारा है। ये विवाह अवैध हैं तथा उन्हें करने वाले दंपत्ति श्राप के भागी होंगे। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। यशवंत और उनकी पत्नी आजीवन आदर्श दंपत्ति बने रहे। जोतीराव फुले के महापरिनिर्वाण (28 नवंबर, 1890) के बाद भारत में प्लेग महामारी फैली। उस दौरान डा. यशवंत और उनकी माता व भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले, रोगियों की सेवा करते–करते इस दुनिया से चल बसे। उनके विरोधियों का तब यह कहना कि ऐसा धर्म का तिरस्कार करने के कारण हुआ, हास्यास्पद ही था। फुले से पहले महात्मा बसवेशर ने भी कई अंतर्जातीय विवाह करवाए थे। आज भी लिंगायत धर्मावलम्बी उनके सिद्धांतों का अनुपालन कर रहे हैं।

महाज्ञानी सम्राट बलिराजा, तथागत बुद्ध, जोतीराव फुले, कबीर और बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर को अपना आदर्श मानने वाले राहुल सावले ने सत्यशोधक समाज विवाह परंपरा के अनुरूप विवाह कर, उसी क्रांति को दोहराया। उनका विवाह बगैर दहेज़, बगैर ब्राह्मण और बगैर किसी आडंबर के जोतीराव फुले द्वारा स्थापित सार्वजानिक सत्य धर्म पुस्तक में वर्णित विवाह संस्कार के हिसाब से संपन्न हुआ।
बताते चलेें कि फुले ने सार्वजानिक सत्य धर्म की स्थापना की थी। अपनी अंतिम पुस्तक “सार्वजानिक सत्यधर्म” में उन्होंने सामाजिक बदलाव की रुपरेखा दी है। पुस्तक में विवाह पद्धति पर एक अध्याय है। यह विवाह पद्धति सभी रूढ़िवादी परम्पराओं से भिन्न है। उसमें सात फेरे, मंगलसूत्र और ब्राह्मणों के मंत्रजाप जैसे आडम्बरों के लिए कोई स्थान नहीं है। सत्यशोधक समाज को मानने वाले ही विवाह संपन्न कराते हैं और इसमें महिलाओं और पुरूषों की समान भागीदारी होती है। प्रारंभिक दिनों में फुले लोगों को यह विवाह करवाने का प्रशिक्षण देते थे।
आज भी ये विवाह हो रहे हैं। इनमें धन का अपव्यय नहीं होता और कम खर्च में शादी संपन्न हो जाती है। इस पद्धति को वे सभी अपना सकते हैं जो फुले की समता और सम्मान आधारित विचारों को मानते हैं। आज भी सत्यशोधक समाज द्वारा इस परंपरा को आगे बढ़ाया जा रहा है।
स्त्री-पुरूष एक समान
राहुल सावले और मौसमी चटर्जी की इस अनूठी शादी में एक खास रस्म अदा की गयी। वर ने वधू का पैर धोकर स्वागत किया। फुले द्वारा स्थापित परंपरा के मुताबिक वर को वधू के पैरों को धोकर उसका आदर-सत्कार करना जरुरी है। ऐसा इसलिए ताकि पुरुष प्रधान समाज द्वारा स्थापित स्त्री-विरोधी व्यवस्था को तोड़ा जा सके। राहुल सावले ने भी इसी विधि का अनुसरण किया। पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के पैर धोना दोनों की बराबरी का प्रतीक है। इससे दांपत्य जीवन में स्त्री-पुरुष के बीच रिश्ते की शुरूआत बराबरी के भाव के साथ होती है। गरीब, दबे-कुचले के पैर धोने की शुरुआत आज से दो हज़ार साल पहले ईसा मसीह ने की थी। वे इसे गैर बराबरी व सामाजिक अन्याय मिटाने का उपक्रम मानते थे।

कहना गैर वाजिब नहीं कि पति द्वारा पत्नी के पैर धोने की परंपरा देश के सभी दलित, आदिवासी व ओबीसी वर्ग के पुरुषों को अपनानी चाहिए। वजह यह कि महिला के बिना पुरुष अधूरा है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज भी ब्राह्मणवादी मानसिकता हमारे समाज में बरकरार है और महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। महिलाएं पुरुषों की दासी नहीं हैं। वे भी पुरूषों के समान ही मेहनतकश हैं और कई मायनों में तो पुरूषों से ज्यादा धीर-गंभीर भी। पुरुषों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए।
अपव्यव पर लगाम
भारत में विवाह को एक उत्सव के रूप में मनाने की परंपरा है। हालांकि कोरोना महामारी की वजह से वैवाहिक कार्यक्रमों में आडंबर और धन के अपव्यय पर कुछ हद तक रोक ज़रूर लगी है। सामान्य तौर पर भारतीय समाज में विवाह के मौके पर बैंडबाजा, बारातियों की आवभगत, लेन-देन, हज़ारों लोगों के भोजन आदि में काफी धन खर्च होता है। यहां तक कि लोग कर्ज लेकर भी इस तरह का दिखावा करते हैं। वहीं सत्यशोधक विवाह में इस तरह के दिखावे नहीं किए जाते हैं। इसलिए इस पद्धति का उपयोग दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के लोगों को अवश्य करना चाहिए। इससे वे आर्थिक परेशानियों से बच सकेंगे।
बहरहाल, विवाह पूंजीवादी और वर्चस्ववादी दिखावे का नहीं बल्कि दो दिलों और दो परिवारों के मेल मिलाप का अवसर है। सत्यशोधक समाज विवाह पद्धति की मूल शिक्षा यही है। राहुल सावले और मौसमी चटर्जी ने सत्यशोधक समाज की परंपरा के अनुसार विवाह कर कबीर के कहे को चरितार्थ किया है:
लिखा–लिखी की है नहीं, देखा देखी बात।
दूल्हा दुल्हन मिल गए, फीकी पड़ी बारात।।
संपादन : गोल्डी/नवल/अमरीश)