पिछले कुछ सप्ताह से विभिन्न टीवी चैनलों पर दिखाए जाने वाले प्रवासी मजदूरों के निरंतर मार्मिक और भयावह दृश्यों ने पूरे राष्ट्रीय जनमानस को गहरे रूप में झकझोर दिया है। अफ़सोस की बात है कि यह मौजूदा देशव्यापी संकट की एक झलक मात्र है। अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी (एपीयू) और अन्य संस्थानों द्वारा किए गए कई सर्वेक्षणों के अनुसार स्थिति बहुत गंभीर है। उदाहरण के रूप में, एपीयू के सर्वेक्षण से यह पता चला कि 74 प्रतिशत गरीब परिवार लॉकडाउन के पहले की तुलना अभी कम खा रहे हैं।
राहत की बात यही है कि जन वितरण प्रणाली ने स्थिति की भयावहता को कुछ हद तक नियंत्रित किया है। उपरोक्त सर्वेक्षण यह भी बताते हैं कि अधिकांश गरीब परिवारों (एपीयू के सर्वेक्षण के अनुसार 86 प्रतिशत) को अभी जन वितरण प्रणाली से खाद्य राशन मिल रहा है। आरंभिक तीन महीनों में जन वितरण प्रणाली से मिलने वाली राशन की मात्रा को दोगुनी करना केंद्र सरकार की एक सराहनीय पहल थी, इसे जून के बाद भी जारी रखा जाना चाहिए। पर 50 करोड़ से भी अधिक लोग जन वितरण प्रणाली के दायरे से बाहर हैं, जिनमें से अधिकांश गरीब हैं। और जिनको जन वितरण प्रणाली से राशन मिल भी रहा है, उनका मात्र भूख से बचाव हो रहा है। इस प्रणाली से पर्याप्त पोषण नहीं सुनिश्चित होता, एक सभ्य जीवन स्तर तो दूर की बात है।

इस संकट से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि गरीब परिवारों को पर्याप्त आमदनी कमाने के अवसर मिले। चूंकि ज़रूरतमंद परिवारों को चिन्हित करना मुश्किल है, ऐसे में बिना शर्तों के नकद हस्तांतरण इस उद्देश्य के लिए एक आसान उपाय नहीं है। और सबको इसके दायरे में लाने से प्रति व्यक्ति नकद की राशि बहुत कम हो जाएगी। इस स्थिति में, भारत का राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी कानून (नरेगा) एक उचित उपाय है; जो काम मांगे, उसे न्यूनतम मज़दूरी के साथ रोज़गार मिले।
ग्रामीण भारत में नरेगा की मांग इसके पूर्व इतनी कभी नहीं रही। इसमें कोई हैरत की बात भी नहीं है; अधिकांश लोग खाली जेबों के बदले कुछ काम करके कमाई पाना चाहेंगे।
नरेगा काम की मांग में बढ़ोत्तरी का अनुभव हमें पिछले कुछ दिनों लातेहार (झारखंड) के वंचित गांवों में हुआ। इस क्षेत्र के अधिकांश मज़दूरों के लिए अभी भी मांगने पर काम पाने की कोई अवधारणा नहीं है, जिसके कारण इनमें से कुछ ही काम की मांग करते हैं। पर जब हम मज़दूरों को काम का आवेदन करने में मदद करते हैं, तो लगभग हर परिवार से पुरुष और महिलाएं अपने जॉब कार्ड के साथ आवेदन फॉर्म भरने वाली जगह आ जाते हैं।
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बिना सहायता के अधिकांश मज़दूरों के लिए काम की मांग जमा करना मुश्किल है। दुःख की बात यह है कि कुछ राज्यों को छोड़कर, जहां मज़दूर कुछ हद तक सशक्त हैं, काम के आवेदन (जो ई-मास्टर में रिकॉर्ड होते हैं) अधिकतर समय मज़दूरों द्वारा नहीं सृजित होते। वे उनकी ओर से ऐसे अन्य लोगों द्वारा सृजित किये जाते हैं, जिनका नरेगा का काम खुलने में कुछ निजी लाभ हो; जैसे ज़मीन मालिक, जो नरेगा से अपनी ज़मीन पर कुछ काम करवाना चाहते हों, बिचौलिए जो विभिन्न स्तरों पर कमीशन लेते हैं, सरकारी अधिकारी, जिनपर विभिन्न प्रकार के लक्ष्य पूरे करने का दबाव हो, और गांव के मुखिया जो मतदाताओं को खुश रखना चाहते हैं।
पुराने दिनों में, मज़दूर कार्यस्थल पर ही अपना नामांकन करवा पाते थे। यह उनके लिए अधिक सरल था; काम की मांग करना एक अधिकार था, न कि एक बोझ। परंतु अब एक मज़दूर तब तक काम नहीं कर सकता जबतक उसका नाम पहले से ई-मस्टर रोल में चढ़ा नहीं हो। अधिकांश मज़दूरों को इस प्रक्रिया की कोई जानकारी नहीं है।
इसलिए, बिना मज़दूरों के काम की मांग का इंतज़ार किए, सरकार को अभी बड़े पैमाने पर नरेगा के काम खोलने चाहिए। हर गांव में कम से कम एक ऐसी बड़ी योजना खुलनी चाहिए जिसमें कई मज़दूर जाकर तुरंत काम कर सकें। साथ ही साथ, मज़दूरों को कार्यस्थल पर ही नामांकन करने की भी सुविधा होनी चाहिए। बारिश के महीनों में भी बड़े स्तर पर काम खुलने चाहिए – यह समय ग्रामीण भारत में कई गरीब परिवारों के लिए सबसे कठिन होता है।
अगले कुछ सप्ताहों में नरेगा के बड़े पैमाने पर विस्तार के लिए और बहुत कुछ किया जा सकता है – मसलन, नरेगा में संभव कार्यों की सूची का विस्तार, अन्य ग्राम रोज़गार सेवकों की नियुक्ति, काम की मांग की प्रक्रिया का सरलीकरण, काम की मांग के अभियानों में पारा-शिक्षकों को जोड़ना, आदि. और ऊपर से काम का स्तर बढ़ाने के आदेशों से भी बहुत मदद मिल सकती है। साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि नरेगा ऊपर से आए आदेशों के अनुसार नहीं चलना चाहिए, पर इस कार्यक्रम में ऐसे आदेशों का इतिहास रहा है, और आखिरकार, यह एक विश्वस्तरीय आपदा का दौर है।
कम से कम इस आपदा की अवधि के दौरान नरेगा मज़दूरी के नगद भुगतान के बारे में भी सोचना चाहिए। इससे न केवल समय पर मज़दूरी भुगतान सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी, बल्कि साथ में मज़दूर भीड़ से भरे हुए बैंकों और बैंकिंग लेन-देन की प्रक्रिया से भी बचेंगे। नकद भुगतान ग्रामीण मज़दूरों को काम की मांग में आ रही बाधाओं को पार करने का भी प्रोत्साहन देगा।
नरेगा के मद में आवंटित राशि फिलहाल चिंता का विषय नहीं है, चूंकि 2020-21 के लिए इसे 1 लाख करोड़ रुपये या कुछ हद तक बढ़ा दिया है। पर नरेगा की बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए और भी राशि की आवश्यकता होगी। यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि नरेगा में राशि का आभाव न हो, जैसा कि पिछले कुछ सालों में लगातार होते रहा है, इस कारण मजदूरों के भुगतान की प्रक्रिया लंबे समय से बाधित रही हैं। नरेगा काम की मांग के अनुसार चलना है, जिसके लिए उसका एक खुला बजट होना चाहिए। कानून सरकार को नरेगा के बजट को सीमित करने की कोई अनुमति नहीं देता।
कोरोना काल में इस आपदा से निपटने के लिए नरेगा को सुचारु करने से सम्बंधित ये कुछ मुद्दे हैं। मुख्य बात है कि पर्याप्त मात्रा में मज़दूरों को काम मिले और जल्द से जल्द उनका भुगतान हो। यह जीने और मरने का सवाल है।
(संपादन : नवल)