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सामने आया अयोध्या में बौद्धकालीन इतिहास, अब काशी और मथुरा की बारी

ऐतिहासिक यात्रा विवरणों और ताज़ा पुरातात्विक साक्ष्यों से यह साफ़ है कि अयोध्या सदियों तक बौद्ध नगरी थी और मध्यकाल में वहां बौद्ध धर्म का स्थान ब्राह्मणवाद ने ले लिया। यह विडंबना ही है कि यह मुग़ल काल में हुआ। ऐसी प्रबल संभावना है कि काशी और मथुरा में भी यही घटनाक्रम हुआ होगा

सन् 1990 के दशक में दो महत्वपूर्ण राजनैतिक परिघटनाएं घटित हुईं, मंडल और कमंडल। मंडल अभियान का उद्देश्य था सामाजिक न्याय की स्थापना जबकि कमंडल (या राममंदिर) अभियान का उद्देश्य था धार्मिक अन्याय की खिलाफत। राममंदिर आन्दोलन के कर्ताधर्ताओं का तर्क भले ही दक्षिणपंथी धार्मिक रहे हों परन्तु उनके इस तर्क में दम दिखता था कि मुस्लिम आक्रान्ताओं और शासकों ने राम के जन्मस्थान पर निर्मित मंदिर सहित कई हिन्दू मंदिरों को नष्ट किया था, अतः आधुनिक धर्मनिरपेक्ष भारत में हिन्दुओं द्वारा उन स्थानों पर दावा करने में कुछ भी गलत नहीं है।

दरअसल, बहुत कम उदारवादियों, धर्मनिरपेक्षतावादियों और प्रगतिशीलों ने इस तर्क का जवाब दिया। वे किसी भी किस्म के विरोधाभास  से बचना चाहते थे और ऐतिहासिक मिथकों और सच्चाई की बहस में पड़े बिना केवल भारत में धर्मनिरपेक्षता का संरक्षण और पोषण  करने तक सीमित थे। अलबत्ता, मंदिरों के मलबे पर मस्जिदें बनाये जाने के दावों को गलत सिद्ध करने के लिए वामपंथी इतिहासकारों ने खूब पसीना बहाया। उन्होंने यह साबित करने का प्रयास किया कि औरंगजेब एक धर्मनिरपेक्ष शासक था जो हिन्दू मंदिरों को दान और जागीरें दिया करता था। इन मंदिरों में उज्जैन का एक मंदिर शामिल बताया जाता है। इसके पहले से ही मुख्यधारा के इतिहास में अकबर और उनके दीन-ए-इलाही को धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक बताया जाता रहा था। परन्तु हिन्दू राष्ट्रवादी बार-बार यह आरोप लगाते रहे कि मुसलमानों ने हिन्दू मंदिरों पर हमले किये और उन्हें लूटा। इस आरोप का कोई जवाब नहीं दिया गया और नतीजा यह हुआ कि न केवल आमजन बल्कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी यह मानने लगे कि मुस्लिम बादशाह और नवाब हिन्दू मंदिरों के विध्वंसक थे।

अपने एक हालिया लेख[i] में उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने इस आरोप को औचित्यपूर्ण ठहराते हुए लिखा, “यह सही है कि मुस्लिम हमलावरों ने कई हिन्दू मंदिरों को नष्ट किया और उनके स्थान पर मस्जिदें बनाईं। कई मामलों में गिराए गए मंदिरों की निर्माण सामग्री का प्रयोग मस्जिदें बनाने में किया गया। इसके प्रमाण भी उपलब्ध हैं। उदाहरण के लिए, दिल्ली में कुतुबमीनार के नज़दीक स्थित कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद के कई स्तंभों में हिन्दू नक्काशी देखी जा सकती है। यही बात वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद की पिछली दीवार और जौनपुर की अटला देवी मस्जिद के बारे में भी सही है। परन्तु प्रश्न यह है कि भारत आगे जाएगा या पीछे? अगर आज किसी हिन्दू मंदिर को गैरकानूनी ढंग से गिरा कर उसके स्थान पर मस्जिद बना दी जाए तो यह और बात होगी। परन्तु जिन मामलों में पांच सौ साल पहले ऐसा किया गया था, उनमें ढांचों को उनके मूल हिन्दू स्वरूप में वापस लाने की कवायद अर्थहीन है।”

इसके विपरीत, दलित-बहुजन विमर्श इस मुद्दे पर कभी बचाव की मुद्रा में नहीं रहा। वह तो दक्षिणपंथियों के इन दावों पर मुखर और हमलावर रहा है। जोतीराव फुले ने गुलामगिरी  और अपनी अन्य रचनाओं में बताया है कि किस प्रकार ब्राह्मण आक्रान्ताओं ने देश के मूल रहवासियों पर हमले किये, उनकी ज़मीनें हड़प लीं और उन पर शूद्र और अतिशूद्र का लेबल चस्पा कर उन्हें हमेशा के लिए गुलाम बना लिया। डॉ. आंबेडकर ने प्राचीन भारत में सांप्रदायिक हिंसा पर गहन शोध किया और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि भारत का इतिहास, बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच खूनी टकराव का इतिहास है। उनका स्थापित किया कि भारत में बौद्धों पर अनेकानेक हिंसक आक्रमण हुए।

राममंदिर काम्प्लेक्स के लिए आवंटित भूमि से खुदाई में निकले बौद्ध अवशेष

अयोध्या में विवादास्पद भूमि पर हुए पुरातत्वीय उत्खननों से आंबेडकर की बात सही सिद्ध हुई है। यह दिलचस्प है कि देश में जब-जब भारतीय जनता पार्टी का शासन रहा, उसकी सरकार ने मिथकीय नदी सरस्वती के अवशेष खोजने के प्रयास किए परन्तु किसी भारतीय इतिहासविद ने कभी बौद्ध ग्रंथों के आधार पर भारत के इतिहास का अन्वेषण करने का गंभीर प्रयास नहीं किया।

यह काम ब्रिटिश पुरातत्ववेत्ता अलेक्ज़ैंडर कनिंघम को करना पड़ा। उन्होंने चीनी यात्रियों के यात्रावृतांतों और बौद्ध अभिलेखों के जरिए भारत के अतीत का खाका खींचा। उन्होंने उन स्थानों की यात्रा की जिनकी चर्चा चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने अपने यात्रा विवरण में की थी और पता लगाया कि वर्तमान अयोध्या, प्राचीन काल में साकेत नामक शहर था।[ii] बौद्ध रचनाओं में साकेत का नाम बहुत श्रद्धा से लिया गया है और ह्वेन त्सांग और फाहियान ने अपने यात्रा विवरणों में इसकी चर्चा की है।

ह्वेन त्सांग के अनुसार, बुद्ध छह वर्षों तक इस शहर में रहे थे। विशाखा, जो कि बौद्ध धर्म की सबसे प्रसिद्ध महिला व्यक्तित्व हैं, पूर्ववर्धन से अपने विवाह से पूर्व साकेत में ही रहती थीं। अतः यह स्वभाविक ही था कि सम्राट अशोक का ध्यान साकेत की ओर गया और उन्होंने वहां एक 200 फीट ऊंचा स्तूप बनवाया, जो एक लम्बी अवधि तक खड़ा रहा। ह्वेन त्सांग ने अपने यात्रा विवरण में इस स्तूप का वर्णन किया है। उसने वहां एक विहार भी देखा, जिसकी पहचान कनिंघम ने कलकदर्म या पूर्ववादर्म के रूप में की है। वे सभी विहार, जो वर्तमान अयोध्या के मणि पर्वत के आसपास थे, नष्ट हो गए और इनका विध्वंस प्राकृतिक कारणों से नहीं हुआ।

ब्राह्मणों ने कनिंघम को बताया कि वानर राज सुग्रीव ने दुर्घटनावश मणि पर्वत, जिसका प्रयोग वानरों द्वारा राम की सहायता करने के लिए किया गया था, को इस स्थान पर गिरा दिया। परन्तु यह केवल एक ब्राह्मणवादी मिथक है जिसका उद्देश्य इस स्थान को राम से जोड़ना है। स्थानीय लोगों ने कनिंघम को कुछ और ही बताया। उनके अनुसार, रामकोट मंदिर का निर्माण कर रहे मजदूर शाम को अपने घर लौटते समय इस स्थान पर अपने झाबों (टोकरी) में फंसी मिट्टी झाड़ते थे और मिट्टी का यही ढेर समय के साथ पहाड़ बन गया। आज भी इस स्थान को “झोवा झार” या “ओरा झार” कहा जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि ब्राह्मणवादी शक्तियों द्वारा बौद्ध ढांचे की स्मृति को मिटाने के लिए सुग्रीव संबंधी मिथक गढ़ा गया। यह दिलचस्प है कि इस तरह के मिथक इस स्थान ही नहीं बल्कि बनारस, निमसर और अन्य जगहों पर स्थित टीलों और छोटी पहाड़ियों के बारे में भी प्रचलित हैं (कनिंघम 2000: 323)।

साकेत में बौद्धों और ब्राह्मणवादियों के बीच सतत संघर्ष चलता रहा और इसकी अंतिम परिणति यह हुई कि इस नगर ने अपनी बौद्ध पहचान खो दी और यहां तक कि उसका नाम भी बदलकर अयोध्या कर दिया गया। साकेत पर पहला बड़ा हमला मगध साम्राज्य पर पुष्यमित्र शुंग (जो कि एक ब्राह्मण था) का शासन स्थापित होने के बाद हुआ। पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य शासक बृहद्रथ की हत्या कर दी और बौद्धों का कत्लेआम शुरू कर दिया। शुंग के इस खूनी अभियान की देश को भारी कीमत अदा करनी पड़ी। बौद्ध विहार, जो जन-शिक्षा के बड़े केंद्र थे, नष्ट कर दिया गए और वहां रहने वाले भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया गया। भारत के इतिहास के इस काल को प्रतिक्रांति का दौर बताते हुए डॉ. आंबेडकर लिखते हैं, “पुष्यमित्र ने बौद्ध धर्म का कितनी क्रूरता से दमन किया इसकी एक बानगी यह है कि उसने यह उद्घोषणा की कि बौद्ध भिक्षु की हत्या कर सिर लाने वाले को सोने की सौ मुहरें मिलेंगीं।” आंबेडकर ने हरप्रसाद शास्त्री के हवाले से लिखा, “कट्टर और धर्मांध शुंग वंश के शासनकाल में बौद्धों ने क्या भोग होगा उसकी केवल कल्पना की जा सकती है। चीनी स्रोतों से पता चलता है कि कई बौद्ध आज भी अपशब्दों का इस्तेमाल किए बिना पुष्यमित्र का नाम भी नहीं लेते।”

परन्तु मुख्यधारा के इतिहासविद इन विवरणों को गंभीरता से नहीं लेते। इसके विपरीत, बौद्ध अध्येता इस घटनाक्रम को बहुत दुःख और शोक से याद करते हैं। उन्होंने काफी प्रयास कर इस सांप्रदायिक नरसंहार के प्रमाण खोजे हैं। इस क्रूर हत्याकांड का एक प्रमाण शांतिस्वरूप बौद्ध ने ढूंढ निकला है। उनके अनुसार आज की अयोध्या की बगल से जो नदी बहती है उसे सरयू कहा जाता है। परन्तु अयोध्या से पहले और इसके आगे इस नदी का नाम गंडक है। वे पूछते हैं कि नदी के इस छोटे से हिस्से को सरयू क्यों कहा जाता है? उनका तर्क है कि “सर” शब्द का पाली भाषा में वही अर्थ है जो हिंदी और अवधी में है। इसी आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि जब पुष्यमित्र शुंग ने अपनी सेना को बौद्ध भिक्षुकों और आम बौद्ध धर्मावलम्बियों का कत्लेआम करने का हुक्म दिया होगा तब उनके कटे हुए सिरों से गंडक नदी का वह हिस्सा भर गया होगा जो अयोध्या में बहता है और इसलिए इस हिस्से का नाम सरयू पड़ गया। यह भी दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने इस सांप्रदायिक हिंसा का नामोनिशान मिटाने के लिए सरयू नदी का नाम गंडक रखने का प्रस्ताव किया है। और इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है। योगी आदित्यनाथ ऐतिहासिक शहरों को नया नाम देने की पुरानी ब्राह्मणवादी चाल ही तो चल रहे हैं।

बौद्धों के विरुद्ध सामूहिक हिंसा शुंग के हमले से समाप्त नहीं हुई। आने वाली सदियों में भी बौद्ध धर्म, ब्राह्मणवाद के निशाने पर बना रहा। इस हिंसा का विवरण इतिहास में तो उपलब्ध नहीं है परन्तु यह सर्वज्ञात है कि हूणों (छठी शताब्दी) और शशांक (सातवीं शताब्दी) जैसे शासकों ने भी बौद्धों का खून बहाया। परन्तु बौद्ध धर्म, संस्कृति और सभ्यता की जडें भारत के निवासियों के मानस में इतनी गहरी थीं कि उन्होंने आसानी से और स्वेच्छा से इन्हें त्याग कर ब्राह्मणवाद को नहीं अपनाया होगा। इस बिंदु की भी द्विज इतिहासकारों ने उपेक्षा की। केवल मुद्राराक्षस[iii] और गेल ऑम्वेट[iv] ऐसे दो अध्येता हैं जिन्होंने इस ओर लोगों का ध्यान आकर्षित किया।

ब्राह्मणों की सबसे बड़ी समस्या यह थी कि उनके पास कोई ऐसा नायक नहीं था जो बुद्ध की व्यापक लोकप्रियता के आगे ठहर सके। बौद्ध स्थलों को नष्ट कर और बौद्ध आमजनों और बुद्धिजीवियों का सामूहिक नरसंहार कर ब्राह्मणवादी यह तो साबित कर सकते थे कि वे सैन्य शक्ति में बौद्धों से बढ़कर हैं। परन्तु इससे ब्राह्मणवाद को सामाजिक स्वीकृति हासिल नहीं हो सकती थी।

अतः अपनी श्रेष्ठता और जन स्वीकार्यता स्थापित करने के लिए ब्राह्मणवादियों ने नयी चालें चलीं। स्थानीय रहवासियों के दिलो-दिमाग से उनके नगरों की बौद्ध विरासत की स्मृति को मिटाने के लिए उन्होंने साकेत (अयोध्या) को राम से जोड़ दिया और एक अन्य बौद्ध नगरी मथुरा को कृष्ण से। विक्रमादित्य (स्कंदगुप्त) ने राम को अयोध्या में स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक मनगढ़ंत आख्यान को रचने के लिए उन्होंने उन सभी स्थानों की यात्रा की जो बुद्ध से जुडी हुईं थीं और जहां बुद्ध की स्मृति को संरक्षित रखने के लिए सम्राट अशोक गए थे। साकेत, जिसका नाम पहले ही अयोध्या रख दिया गया था, को राम के रंग में रंग दिया गया।

नगर की बौद्ध पहचान को छुपाने के लिए तीन बड़े स्तूपों के मलबे को ढंक कर टीलों का रूप दे उन्हें मणि पर्वत, कुबेर पर्वत और सुग्रीव पर्वत का नाम दे दिया गया। कई और मंदिर बनाये गए और उन्हें राम से जोड़ने के लिए मनगढ़ंत कथाएं प्रचारित की गईं। अशोक ने देश भर में 84,000 स्तूप बनाये थे। उनकी बराबरी करने के लिए स्कन्दगुप्त ने अकेले अयोध्या में ही 360 मंदिरों का निर्माण करवाया। परन्तु तत्समय यह रणनीति बहुत कारगर नहीं हुई। इसका कारण यह था कि तब तक रामकथा लोकप्रिय नहीं हुई थी। आमजन ब्राह्मणवादी देवताओं के मंदिरों में माथा टेकने के आदी नहीं थे। वे बौद्ध थे और स्तूपों की यात्रा करना पसंद करते थे। नतीजा यह हुआ कि मंदिर और अन्य ढांचे बनाकर राम को जन देवता बनाने के विक्रमादित्य के प्रयास विफल हो गए।

अलेक्ज़ैंडर कनिंघम लिखते हैं, “सातवीं सदी तक विक्रमादित्य द्वारा निर्मित 300 मंदिर गायब हो गए थे और हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि इसके पहले से ही उनका क्षय हो रहा था। परन्तु बौद्ध स्मारक अच्छी स्थिति में थे और भिक्षुकों की संख्या लगभग उतनी ही थी जितनी कि प्रख्यात बौद्ध नगरी बनारस में।”

ब्राह्मणवादियों की समस्या केवल यह नहीं थी कि वे बुद्ध के स्थान पर राम को श्रद्धा का पात्र नहीं बना पा रहे थे। ब्राह्मणवाद के प्रसार में दूसरी बड़ी बाधा थी यज्ञ – जो ब्राह्मणवादियों का पारंपरिक और आवश्यक कर्मकांड था। इसमें पालतू जानवरों, विशेषकर गायों और बैलों, की बड़ी संख्या में बलि दी जाती थी। यज्ञों से ब्राह्मणों को तो लाभ होता था क्योंकि वे मेहनतकशों के खून-पसीने की आमदनी से मौज उड़ा सकते थे, परन्तु इससे मेहनतकशों को नुकसान ही नुकसान था।

इन हालातों में ब्राह्मणवादियों के पास इसके सिवा कोई चारा नहीं था कि वे बौद्ध धर्म की नक़ल करें। जन शिक्षा और सामाजिक कल्याण अशोक के बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उसकी नक़ल करना ब्राह्मणवादियों को मंज़ूर न था। सामाजिक जागरूकता और समाज कल्याण, ब्राह्मणवाद के विरोधाभासी थे। परन्तु बौद्ध धर्म के महायान पंथ में ऐसा बहुत कुछ था जिसकी ब्राह्मणवादी नक़ल कर सकते थे। इनमें शामिल था बुद्ध की मूर्ति की पूजा, बोधिसत्व की अवधारणा, मंत्रोचार, बुद्ध की महिमा के गीतों का गायन (जो थेरवाद परंपरा में भी लोकप्रिय था) और शाकाहार। इन सबसे संबंधित रीति-रिवाजों को ब्राह्मणवादी कुछ परिवर्तनों के साथ अपना सकते थे।

उन्होंने महायान के लगभग हर रीति-रिवाज़ से कुछ न कुछ उधार लिया और उसमें ब्राह्मणवाद का तड़का लगा कर अपना लिया। यह काम आसान नहीं था। बुद्ध का मुकाबला करने के लिए उन्हें अपने वैदिक देवों ब्रह्मा, इंद्र, अग्नि, वायु, मित्र, निसत्य इत्यादि के स्थान पर मनुष्य जैसे दिखने वाला देवता आगे लाने पड़े। उन्हें खानपान की अपनी आदतें भी बदलनी पडीं। उन्होंने बीफ, जो उनका सबसे प्रिय भोजन था, खाना बंद कर दिया और एक कदम और आगे बढ़ कर वे शुद्ध शाकाहारी बन गए।

धीरे-धीरे उन्हें समझ में आया कि राम के चरित्र का सीमित प्रभाव पड़ रहा है। इसके बाद उन्होंने राम की जीवनगाथा गढ़ी। पहले उसका प्रचार केवल समाज के अभिजात तबके में किया गया। शायद उन्हें लगता था कि वहां से वह समाज के निचले तबकों तक पहूंच जाएगी। ब्राह्मणवादी ग्रंथों के सृजन का सबसे अनुकूल समय था गुप्त काल (320-350 ईस्वी)। यही कारण है कि आधुनिक द्विज इतिहासविद गुप्त काल को भारतीय इतिहास का “स्वर्ण काल” बताते हैं। राम को सबसे अधिक लोकप्रियता मिली मुग़ल बादशाह अकबर के शासनकाल में जब अयोध्या के एक ब्राह्मण तुलसीदास ने स्थानीय बोली में राम की जीवनी रामचरितमानस की रचना की। इस महाकाव्य में तुलसीदास ने अन्य लोगों पर ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का दावा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

इस तरह, बुद्ध के स्थान पर राम को रखने में कई सदियां लग गयीं। इतिहासकार जूलिया शॉ[v] के अनुसार, राजपूत काल (12वीं सदी) से राम की लोकप्रियता बढ़नी शुरू हुई। एच.टी. बेकर के एक अध्ययन के हवाले से वे कहतीं हैं, “राम की कथा का काल्पनिक चरित्र 15वीं और 16वीं शताब्दियों में पुराने स्थलों के “रामकरण” के बाद ग्रंथों के नए, पुनरीक्षित संस्करणों के जरिए सामने आया।”

बेकर लिखते हैं, “एक-दो अपवादों को छोड़कर, पुरातात्विक और लिखित साक्ष्यों से यह स्पष्ट ज्ञात होता है  कि 11वीं-12वीं सदी के पहले तक (अयोध्या को छोड़ कर) देश के अन्य स्थानों में राम के संप्रदाय की व्यापक और स्वतंत्र उपस्थिति नहीं थी। अतः आश्चर्य नहीं कि जन्मभूमि स्थल पर 10वीं सदी का मंदिर होने के अब तक अपुष्ट प्रमाणों के अलावा, 11वीं और 12वीं सदी के पहले तक ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है को राम को अयोध्या से जोड़ता हो। अयोध्या की ख़्याति बढ़ी उस क्षेत्र में बड़ी संख्या में राजपूतों के बसने के बाद से। इसके बाद से लेकर 18वीं सदी तक हिन्दू मंदिरों के पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलते क्योंकि मुगलों ने उनके निर्माण को प्रतिबंधित कर रखा था। इसके बावजूद इसी काल में अयोध्या ‘अखिल भारतीय’ स्तर का राम से जुड़ा तीर्थस्थल बनी।”[vi]

इस तरह, ब्राह्मणवाद के शातिराना और हिंसक सांप्रदायिक एजेंडे ने चौदह सदियों में बौद्ध धर्म और अन्य छोटे-छोटे मूलनिवासी धर्मों को इस धरती से गायब करने में सफलता प्राप्त कर ली। बौद्ध काल में, विशेषकर अशोक के शासनकाल के दौरान, आमजन शिक्षित और साक्षर बन गए थे। ब्राह्मणवाद के उभार का उल्टा प्रभाव पड़ा। बौद्ध मठों का विध्वंस, आम लोगों को शिक्षित करने के प्रयासों के लिए एक बड़ा धक्का था। इसने अतंतः भारत को अशिक्षित लोगों का देश बना दिया।

हाल में अयोध्या के विवादस्पद स्थल में हुए उत्खनन में बौद्ध अवशेष मिलने से यह फिर से साबित हो गया है कि राम का अयोध्या का कोई लेना-देना नहीं था। इसमें तनिक भी संदेह नहीं कि वहां मिले धम्मचक्र, कमल के फूल का चिन्ह, स्तंभऔर अन्य कलाकृतियां, बौद्ध प्रतीक हैं। तथाकथित राम जन्मभूमि के नीचे इन अवशेषों का मिलना यही साबित करता है कि इस स्थल पर बौद्ध स्मारक था जिस पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने कब्ज़ा कर लिया और उसे नष्ट कर दिया। इससे यह भी लगता है कि मीर बकी ने संयोगवश उसी स्थान को मस्जिद बनाने के लिए चुना जहां सदियों पहले बौद्ध विहार था।

इस उत्खनन के नतीजों से रामजन्मभूमि आन्दोलन और भाजपा और उसके संगी-साथियों के मुस्लिम विरोधी प्रचार की व्यर्थता और झूठ भी साबित होता है। इस खोज ने धर्मनिरपेक्ष ताकतों को हिन्दू राष्ट्रवादियों के झूठे आख्यानों का पर्दाफाश करने का एक अवसर भी दिया है। इस स्थल का ऐतिहासिक महत्व है – परन्तु एक बौद्ध विरासत, एक वैश्विक विरासत के रूप में। यह दिलचस्प है कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद, दक्षिणपंथी तत्वों ने एक नारा दिया था, “अभी तो एक झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है।” बौद्ध अवशेषों के मिलने के बाद इस नारे ने एक नया अर्थ ले लिया है। अगर काशी और मथुरा में उत्खनन किया जाता है तो हिन्दू धर्म के अनेक मिथक धराशायी हो जायेगें।


[i] (1) काटजू, मार्कंडेय (2019). अयोध्या वर्डिक्ट इज बेस्ड ऑन स्ट्रेंज फीट ऑफ़ लॉजिक, द वायर, 11 नवम्बर. https://thewire.in/law/the-ayodhya-verdict-is-based-on-a-strange-feat-of-logic से 5 मई 2020 को डाउनलोड किया गया.

[ii] कनिंघम, अलेक्ज़ैंडर (2000) सन 1862-63-64-65 की चार रपटें, खंड 1, महानिदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, नयी दिल्ली. मूलतः इसी शीर्षक से 1871 में गवर्नमेंट प्रेस, शिमला से प्रकाशित

[iii] मुद्राराक्षस. (2009). धर्मग्रंथों का पुनर्पाठ. इलाहाबाद: इतिहासबोध प्रकाशन

[iv] ऑम्वेट, गेल. (2003). बुद्धिज़्म इन इंडिया: चेलेंजिंग ब्राह्मणनिस्म एंड कास्ट. नयी दिल्ली. सेज पब्लिकेशन.

[v] शॉ, जूलिया. (2000). अयोध्यास सेक्रेड लैंडस्केप: रिचुअल मेमोरी, पॉलिटिक्स एंड आर्ककियोलॉजिकल फैक्ट. एंटिक्विटी 74: 693-700.

[vi] बेकर, एच. टी. (1986). अयोध्या: हिस्ट्री ऑफ़ अयोध्या फ्रॉम 17टीन्थ सेंचुरी बीसी टू मिडिल ऑफ़ 18 टीन्थ सेंचुरी: एग्बेर्ट फोर्स्तें

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया संपादन : नवल/गोल्डी)


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रत्नेश कातुलकर

रत्नेश कातुलकर सामाजिक अध्ययन संस्थान, नई दिल्ली में समाज विज्ञानी हैं। वह दलित आंदोलन में सक्रिय रहे हैं तथा हाल ही में इनकी किताब 'बाबासाहब डॉ. आंबेडकर और आदिवासी प्रश्न?' प्रकाशित हुई है

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