कोसी, महानंदा और गंगा नदी द्वारा निर्मित विशाल भूखंड यानि वर्तमान कोसी सीमांचल भागलपुर क्षेत्र की धरती ने अनेक नायकों, सामाजिक चिंतकों, जननेताओं आदि को जन्म दिया है । आज के दौर में जब राजनीतिक परिदृश्य पर धन उपार्जन, सत्ता से चिपके रहने की लालसा, धनबल, बाहुबल, नैतिक पतन, पूंजीवादी तंत्र और वैचारिक शून्यता हावी हो रहे हैं, तब समाजवादी बाबू किराय मुसहर याद आते हैं।
बाबू किराय मुसहर भागलपुर सह पूर्णिया संयुक्त सीट से प्रथम निर्वाचित सांसद थे। वे समाजवादी विचारधारा के अनुयायी थे और डॉ. राममनोहर लोहिया के अत्यंत प्रियजनों में से एक थे। हमेशा जनता के साथ रहकर उनके हक-हुकूक का सवाल उठाने वाले बाबू किराय मुसहर ने अपने विचारों से कभी समझौता नहीं किया। वे डॉ. आंबेडकर से भी खासा प्रभावित रहे और हमेशा प्रयासरत रहे कि वर्णवादी व्यवस्था के चंगुल में जकड़ा भारतीय समाज उससे बाहर निकले।
उनका जन्म उस दौर में हुआ था जब देश अंग्रेजों का गुलाम था। वर्ण व्यवस्था भी बहुत मज़बूत थी। बिहार प्रांत के उत्तर पूर्वी भाग यानी भागलपुर जनपद के उत्तर मध्य में स्थित मधेपुरा अनुमंडल (अब मधेपुरा जिला) के मुरहो गांव में एक साधारण दलित खेतिहर मजदूर के घर बालक किराय का जन्म 17 नवंबर, 1920 को हुआ था।
बाबू किराय के माता-पिता बाबू महावीर प्रसाद मंडल की जमींदारी में रहकर मेहनत मजदूरी कर जीविकोपार्जन किया करते थे। उनकी स्कूली शिक्षा ना के बराबर हुई थी परंतु उनकी व्यवहारिक सूझबूझ और तार्किक, जिज्ञासु मन मस्तिष्क का विकास उनके परिवार व सामाजिक परिवेश में बेहतर ढंग से हुआ। वे बचपन से ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने बुद्ध के सूत्र वाक्य “अप्पो दीपो भव:” को अपने आचरण व व्यवहार से परिभाषित किया। उनकी पत्नी अजनासी देवी साहसी और सूझबूझ वाली गृहिणी थीं।
वे समाजवाद के प्रति आजीवन प्रतिबद्ध रहे। बाबू किराय मुसहर ने स्वतंत्रता संग्राम में भी भाग लिया। स्वराजी बाबू शिवनंदन प्रसाद मंडल, बाबू भूपेंद्र नारायण मंडल, बाबू अंबिका प्रसाद सिंह दादा, शहीद चुल्हाय प्रसाद यादव के साथ मिलकर उन्होंने आंदोलनों में भाग लिया। इस दौरान उन्होंने वंचितों के लिए भी लड़ाई जारी रखी जिनमें किसान, मजदूर, दलित, सौतार यानी आदिवासी आदि शामिल थे।
इस क्रम में 1942 में अगस्त क्रांति के दौरान असहयोग आन्दोलन एवं गुरिल्ला माध्यमों से जन आंदोलनों की अगुवाई उन्होंने अपने इलाके में की। इसके तहत रेल की पटरियां उखाड़ने से लेकर सरकारी कार्यालयों पर तालाबंदी तक की गयी।
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जब देश में आजादी की लड़ाई परवान पर थी, तब कांग्रेस के अंदर एक गुट जातिवाद और वर्चस्ववाद की मुखालिफत करने लगा था। कांग्रेस के प्रगतिशील गुट के नेताओं ने सोशिलिस्ट ग्रुप का गठन किया, जिसमें जेपी, अच्युत पटवर्धन, युसूफ़ मेहर अली, नरेन्द्र देव, डॉ. राममनोहर लोहिया आदि प्रमुख थे। भारत के विभाजन के मुद्दे पर यह गुट 1948 में कांग्रेस पार्टी से अलग हो गया।
आजादी के पश्चात देश में संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली स्थापित हुई और 1952 में प्रथम आम चुनाव की घोषणा की गई। कांग्रेस तब देश को आजादी दिलवाने का श्रेय लेकर मैदान में उतरी थी परंतु नीयत से सामंती कांग्रेस ने पूंजीवादी गठजोड़ बनाए। सीमित संसाधनों के बावजूद सोशलिस्ट पार्टी एक सशक्त विपक्ष के रूप में कांग्रेस के सामने उभरी। भागलपुर-पूर्णिया संयुक्त संसदीय क्षेत्र में तब दो सीटें थीं – एक सामान्य और दूसरी आरक्षित। सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के बीच गठबंधन था। सामान्य सीट से भूपेंद्र नारायण मंडल समाजवादियों की पहली पसंद थे और सुरक्षित सीट के लिए उम्मीदवार खोजने का जिम्मा डॉ. लोहिया द्वारा भूपेंद्र नारायण मंडल को दिया गया। तब बाबू भूपेंद्र नारायण मंडल ने स्वेच्छा से अपनी सीट तत्कालीन प्रख्यात समाजवादी नेता जे. बी. कृपलानी के लिए छोड़ दी। वहीं पार्टी संगठन के कार्यक्रमों और आंदोलन में बढ़ चढ़ के हिस्सा लेने के कारण बाबू किराय मुसहर, भूपेन्द्र नारायण मंडल की पहली पसंद बने।
पार्टी आलाकमान द्वारा बाबू किराय मुसहर को पार्टी के निशान बरगद पर चुनाव लड़ने का आदेश दिया गया। चुनाव लड़ने के लिए धन और अन्य संसाधनों की आवश्यकता पड़ती है। ऐसी आवश्यकता बाबू किराय मुसहर को भी हुई। धन की कमी पूरी करने के कलिए पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं द्वारा आम लोगों व जमींदारों से चंदा इकट्ठा कर किया गया। तब चुनावी प्रचार के लिए समाजवादी कार्यकर्ताओं द्वारा भोंपू बाजा का इस्तेमाल किया जाता था। भोंपू, जो कि टीन से बनता था, उसे लेकर समाजवादी कार्यकर्ता बाबू मुक्तिनाथ यादव और बाबू बिन्देश्वरी यादव व अन्य दिन-रात मेहनत करते। बैलगाड़ी का इस्तेमाल प्रचार के दौरान एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा कर के लोगों से संवाद स्थापित करने में किया जाता था। कार्यकर्ताओं की मेहनत रंग लाई। बाबू किराय मुसहर व जे. बी. कृपलानी दोनों समाजवादी उम्मीदवार संयुक्त सीट से विजयी हुए। इन दोनों गैर-कांग्रेस उम्मीदवारों की यह विजय पूरे देश के लिए एक चमत्कार था।
लोकसभा में रचनात्मक विपक्ष की भूमिका बाबू किराय मुसहर ने बखूबी निभायी। संसद में उन्होंने नेहरू सरकार की उन नीतियों का पुरजोर विरोध किया जिनके केंद्र में केवल एक खास जाति व वर्ग था। इस वर्ग का वर्चस्व शासन-प्रशासन से लेकर न्यायपालिका तक में कायम था।
बाबू किराय मुसहर सच्चे अर्थों में समाजवादी थे। वे उन नीतियों को लागू करवाना चाहते थे जो समाजवादी विचारधारा की बुनियाद में शामिल थे। मसलन, मुल्क में व्यवस्थित दाम नीति हो।उत्पादनकर्ता यानी किसान, मजदूर एवं उपभोक्ता के बीच उत्पाद के दाम को लेकर एक सामंजस्य कायम हो। बिचौलियों द्वारा की जा रही कालाबाजारी पर अंकुश लगे। किसान-मजदूरों को उनके उत्पादों फल, फसल, सब्जी, दूध, मछली आदि का उचित मूल्य मिले और उन्हें बाजार की सुलभता सुनिश्चित हो।
वहीं समाजवादी विचारक यह मानते थे कि हिन्दुस्तान की वर्णवादी व्यवस्था ने सामाजिक संरचना में शोषण का एक जाल विकसित कर दिया है। पहले आदिवासियों का शोषण किया गया, उनके अधिकार छीने गए, उनके जल, जंगल और जमीन छीने गए। उसके बाद शूद्रों का शोषण हुआ, तत्पश्चात जाति में उप जातियों का श्रेष्ठता बोध के आधार पर। किसी के एक खास जाति में पैदा होने पर उस पर बंधन लगाये गए जिसने बंधुत्व का भाव धूमिल किया और जीवन के उच्च मानकों के विकास में अवरोध पैदा किया।एक ऐसी प्रणाली जिसने अंतर्गत लोगों को जबरदस्ती गरीबी, भुखमरी, बेगारी, बंधुआ मजदूरी की तरफ धकेला। समाजवादियों की सोच थी कि भारतीय समाज में जिन जातियों व वर्गों का सबसे पहले अमानवीय तरीके से शोषण हुआ है, उन्हें आरक्षण प्रदान करके मुख्यधारा में लाने का प्रयास सबसे पहले होना चाहिए। यही समाजवादी विचारधारा की जाति नीति के मूल में है। तब डॉ. लोहिया ने यह नारा भी दिया था – “संसोपा ने बांधी गांठ, पिछड़ा पावै सौ में साठ”।
वहीं भाषा को लेकर समाजवादी नीति यह थी कि हिंदुस्तान ने 200 वर्षो की गुलामी के पश्चात अंग्रेजी हुकूमत से आजादी प्राप्त की। इन 200 वर्षों में अंग्रेजी भाषा को हम पर थोपा गया। हिंदी को राजकीय भाषा का दर्जा प्राप्त हुआ परंतु अंग्रेजी को बढ़ावा दिया जाने लगा। समाजवादी मानते थे कि अंग्रेजी मुल्क की सेहत के लिए ठीक नहीं है। यह हमारी भाषाई संस्कृति के अनुरूप नहीं है। इसकी बजाय बंगाली, असमिया, उड़िया, मलयालम, उर्दू, कन्नड़, तेलुगू, मैथिली आदि भाषाओं के विकास व शोध कार्य पर जोर दिया जाय।
इन्हीं मुद्दों पर जन समर्थन से सड़क से सदन तक राजनैतिक संघर्ष की बुनियाद रखी गयी, जो आज भी समाजिक न्याय के लिए संघर्षरत नौजवानों को प्रोत्साहन देती है। 1962 में पार्टी ने अपनी भाषा नीति के अंतर्गत अंग्रेजी हटाओ आंदोलन का कार्यक्रम बनाया। इस आंदोलन में सरकारी नाम पद पर अंकित अंग्रेजी शब्दों पर डामर पोतना और हर प्रकार से अंग्रेजी का बहिष्कार शामिल था। पूरे देश में बड़ी संख्या में सोशलिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया जाने लगा था। बाबू किराय मूसहर, बाबू भूपेंद्र नारायण मंडल को भी उनके 115 साथियों के साथ गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। उनके साथ पार्टी के कई अन्य महत्वपूर्ण नेता भी जेल में थे, उनमें विनायक यादव, राधा कांत यादव, परमेश्वर कुंवर, शशिनाथ झा, पूर्व मंत्री अनुपलाल यादव के साथ अंबिका प्रसाद सिंह, उर्मिलेश झा, सच्चिदानंद यादव, बैधनाथ मेहरा, राम कृष्ण यादव, सुरेन्द्र यादव, शिवनंदन राय, ब्रह्मदेव साहब, सहदेव गुप्ता आदि प्रमुख थे।
बाबू किराय मुसहर ने सदैव अपनी मातृभाषा “ठैठी” का उपयोग संवाद स्थापित करने में किया।
बाबू किराय मुसहर के पोते उमेश ऋषि देव के मुताबिक, “जब दादा जी चुनाव जीतने के पश्चात, सांसद बनकर अपने गांव मुरहो आए तो गांव वालों ने उनसे कहा कि हमें आपके खेत को पार कर जाना पड़ता है। तब बाबू किराय मुसहर ने कहा कि आपके वोट से जीत करके हम पार्लियामेंट पहुंचे हैं। जाइये हमारी जमीन के बीच से सीधी सड़क बना लें।”
एक दफा बाबू किराय मूसहरलाल बहादुर शास्त्री के साथ गाड़ी में सवार होकर सहरसा से अपने निजी गांव मुरहो आ रहे थे। रास्ते में शास्त्री जी ने लोगों को देखा कि वे धरती से कुछ निकालकर खा रहे थे। उन्होंने तुरंत पूछ लिया कि किराय जी, यह क्या खा रहे हैं? तो उन्होंने बताया कि सर आप नहीं जानते? ये अलुहा “स्वीट पोटेटो” उखाड़कर खा रहे हैं। फिर पेड़ से कुछ तोड़ते देखा तो शास्त्री जी ने जिज्ञासावश पूछ लिया कि यह क्या तोड़ रहे हैं? किराय जी ने कहा कि यह जलेबी का पेड़ है, जिसमे जलेबी फला है। ये उसी को तोड़ रहा है। हम लोग यही सब खाकर बड़े हुए हैं।
ऐसे थे बाबू किराय मुसहर। उनका निधन 18 अगस्त, 1965 को हो गया। उन्होंने हमेशा लोगों की चिंता की। जनप्रतिनिधि के रूप में उन्होंने तमाम मसले सदन में उठाए। समाजवादी आंदोलन का हिस्सा बने रहे। लेकिन यह दुर्भाग्य ही है कि इस महान जननेता को कोई आज याद नहीं करता। जबकि वंचितों के लिए उन्होंने जो किया, उससे यह समुदाय कभी भी उनके ऋण से मुक्त नहीं हो सकता।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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