बीते 22 अगस्त, 2020 की दोपहर जब न्यूज चैनलों के स्क्रीन सुशांत सिंह राजपूत मामले की सीबीआई जांच से संबंधित फुटेज से गुलजार थे, तभी झारखंड के मुख्यमंत्री कार्यालय के मीडिया व्हाट्सएप ग्रुप पर एक विज्ञप्ति सार्वजनिक की गई। इसमें लिखा था कि हेमंत सोरेन सरकार ने झारखंड में बीसी (बैकवार्ड कास्ट) -1 और बीसी – 2 कोटि की 36 जातियों को केंद्रीय ओबीसी की सूची में शामिल कराने के लिए केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय से अनुरोध किया है। इसके लिए सरकार एक चिट्ठी लिखने जा रही है, ताकि झारखंड मे पिछड़ी जातियों में शामिल इन जातियों को केंद्र द्वारा अधिसूचित पिछड़ी जातियों की सूची में शामिल कर लिया जाय। केंद्र सरकार की उस सूची में शामिल नहीं होने के कारण इन जातियों के युवाओं को केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण नहीं मिल पाता था। भारत सरकार ने अगर झारखंड सरकार का यह प्रस्ताव मान लिया, तो इन जातियों के युवाओं को भी केंद्र सरकार की नौकरियों में आरक्षण मिलने का रास्ता साफ हो जाएगा। इससे हजारों युवाओं को फायदा होगा। इसमें कुड़मी जैसी जाति भी शामिल है, जिसकी झारखंड में न केवल अच्छी खासी संख्या है बल्कि इसके प्रतिनिधि सियासत में भी उल्लेखनीय प्रभाव डालते हैं।
इससे पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने भाषण में भी आरक्षण की चर्चा की और कहा कि झारखंड सरकार की नौकरियों में अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) के साथ ही अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के लिए आरक्षण का दायरा बढ़ाने के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाई जाएगी। उन्होंने कहा कि ऐसी ही एक कमेटी झारखंडी भावना के अनुरुप स्थानीय नीति (डोमिसाइल) बनाने संबंधित सुझाव देगी, ताकि इसे नए सिरे से परिभाषित किया जा सके। उन्होंने यह भी कहा कि स्थानीय लोगों को निजी क्षेत्र की कंपनियों में भी कम से कम 75 फीसदी आरक्षण दिलाने के लिए भी नियम बनाया जाएगा।
उनके इस भाषण के बाद से झारखंड में आरक्षण का मुद्दा फिर से चर्चा में आ गया है। यहां यह बताना जरुरी जान पड़ता है कि झारखंड में पिछड़ी जातियों के लिए मंडल कमीशन की सिफारिशों के मुताबिक 27 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था नहीं है। मौजूदा वक्त में यहां पिछड़ा वर्ग अनुसूची-1 के लिए सिर्फ 8 फीसदी और पिछड़ा वर्ग अनुसूची-2 के लिए 6 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है। इसके अलावा अनुसूचित जनजाति को 26 फीसदी, अनुसूचित जाति को 10 फीसदी और आर्थिक रुप से पिछड़े लोगों को 10 फीसदी आरक्षण मिलता है। इससे पहले साल 2001 में मंत्रिमंडलीय उपसमिति ने राज्य में 73 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की थी। उसके तहत अनुसूचित जनजाति को 32 फीसदी, अनुसूचित जाति को 12 फीसदी, अत्यंत पिछड़ा वर्ग को 18 फीसदी और पिछड़ा वर्ग के लिए 9 फीसदी आरक्षण की अनुशंसा की गई थी। इसके बाद झारखंड हाईकोर्ट ने रजनीश मिश्र बनाम झारखंड सरकार और दिनेश नीरज शर्मा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामलों की सुनवाई के बाद झारखंड में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी रखने का अंतरिम आदेश पारित किया था। तबसे झारखंड में उसी अनुरुप आरक्षण दिया जाता है। इस कारण पिछड़े वर्ग की जातियों को 27 फीसदी आरक्षण नहीं मिल पा रहा है। जबकि गाहे-बेगाहे इसकी मांग होती रही है। लेकिन, पूर्ववर्ती सरकारों ने इसे लेकर कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई और न कोई कानूनी लड़ाई लड़ी गई। इस वजह से पिछड़ा आरक्षण का मामला यहां अभी तक फंसा हुआ है।

झारखंड की सियासत हमेशा से आदिवासियों के मुद्दों पर चलती रही है। इसके बावजूद आदिवासियों को भी अभी तक उनका वाजिब हक नहीं मिल सका है। शायद इसी कारण हेमंत सोरेन अपने कार्यकाल में इन मुद्दों को हल कर देना चाहते हैं। इसी कारण उन्होंने स्वाधीनता दिवस के मौके पर अपने भाषण में इन मुद्दे की विस्तार से चर्चा की। पिछले वर्ष दिसंबर में सरकार बनाने के बाद से हेमंत सोरेन ने कई मसलों पर तार्किक और स्पष्ट निर्णय लिए हैं। ऐसे में आरक्षण और स्थानीय नीति के मसलों के सुलझने की उम्मीदें बढ़ गई हैं। झारखंड में आदिवासियों के सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी पिछड़ा आरक्षण का मुद्दा उठा चुकी है। तब भी हेमंत सोरेन इस मसले पर काफी मुखर रहे थे।
पिछले वर्ष हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में वह पहला मौका था, जब ओबीसी आरक्षण का मुद्दा इतने जोरदार तरीके से उठाया गया था। इससे पहले के चुनाव आमतौर पर आदिवासियों-मूलवासियों के मुद्दों पर ही होते रहे थे। कभी-कभार कुछ पार्टियों ने ओबीसी को सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी आरक्षण देने की बात कही भी, लेकिन उसका कोई असर नहीं हो सका। इस मुद्दे पर कोई चुनाव संपूर्ण तरीके से नहीं लड़ा गया। लेकिन, साल 2019 के विधानसभा चुनाव मे इस मामले को न केवल विपक्ष बल्कि सत्ता पक्ष ने भी अपने-अपने घोषणापत्र का हिस्सा बनाया।
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चुनाव के दौरान हेमंत सोरेन द्वारा इस मुद्दे को उठाए जाने के बाद भाजपा ने भी इसे अपने प्रचार का हिस्सा बना लिया। पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष अमित शाह ने झारखंड में अपनी पहली ही चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पिछड़ा बताकर ओबीसी कार्ड खेला और कहा कि उनकी पार्टी की सरकारें हमेशा से आरक्षण की पक्षधर रही हैं। अगर झारखंड में फिर से उनकी सरकार बनी, तो वह पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान कराएगी। ओबीसी आरक्षण उनकी सरकार की प्राथमिकता में शामिल रहेगा। यह अलग बात है कि भाजपा यहां सरकार नहीं बना सकी, क्योंकि वर्ष 2014 से 2019 तक यहां की सत्ता पर काबिज भाजपा और पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री (जो स्वयं पिखड़ी जाति से थे) रघुवर दास बुरी तरह अलोकप्रिय हो चुके थे। जनता ने उन्हें बहुमत से काफी दूर रखा और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में काग्रेस-राजद और झारखंड मुक्ति मोर्चा की गठबंधन सरकार ने झारखंड की सत्ता संभाल ली।

हालांकि, आजसू पार्टी के प्रमुख और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुदेश महतो कभी इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने हमेशा से पिछड़ा आरक्षण का मामला उठाया। पिछले चुनाव में भी उन्होंने इस मुद्दे को अपनी पार्टी के घोषणा पत्र में शामिल किया लेकिन उन्हें गिनती के सीटों पर सफलता मिली। अब वे एनडीए के साथ विपक्ष में बैठे हैं। ऐसे में झारखंड के मौजूदा मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन द्वारा पिछड़ा आरक्षण का दायरा बढ़ाए जाने की बात ने राज्य का सियासी पारा तो गरमाया ही है, पिछड़ों में उम्मीद भी जगायी है। वर्ष 1931 में हुए जातिगत जनगणना के आंकड़ों के आधार पर झारखंड की आबादी में करीब 52 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाली पिछड़ी जातियां इस पहल से काफी आशान्वित हैं। उनमें आरक्षण की उम्मीद जगी है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाली सरकार आरक्षण का क्या फार्मूला लेकर आती है। हालांकि, अभी कमेटी का बनाया जाना बाकी है और इसमें वक्त लगेगा लेकिन सरकार की इस पहल ने ओबीसी आरक्षण के मुद्दे को सतह पर तो ला ही दिया है।
(संपादन : नवल)
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