मैंने अपने विद्यार्थी जीवन में हिन्दी आत्मकथा को गद्य विधाओं के अन्तर्गत एक हाशिए की विधा के रूप में पढ़ा था क्योंकि द्विज लेखकों की अधिकांश आत्मकथाओं में लेखकों ने अपने जीवन के समुज्ज्वल पक्ष को ही उभारने की कोशिश की है। उन्होंने अपनी पारिवारिक गरीबी आदि को एक गुण के रूप में वर्णित किया है। बमुश्किल दो-तीन हिन्दी आत्मकथाएं अपवाद हैं, जिनमें लेखकों ने अपनी असफलताओं-खामियों तथा भूलों-गलतियों को दर्ज किया है। शेष मेें खुद का महिमामंडन किया गया है तथा कुलीन उच्चता को प्रमुखता से उकेरा गया है। ‘क्या भूलूं क्या याद करूं’ जैसी आत्मकथाओं में लेखकों ने यह छूट ले ली कि उनके और उनकी जाति के लिए जो लाभकारी है, उसे याद रखा जाए, शेष को भुला दिया जाए। जबकि आत्मकथा और डायरी में सच और केवल सच लिखने का आग्रह रहता है, चाहे वह कितना ही भयावह क्यों न हो। हिन्दी के द्विज लेखकों ने सत्य को सीमित रूप में ही समावेशित किया है। उनका अधिकांश विवरण कल्पना आधारित तथा झूठ मिलेगा। यही कारण है कि हिन्दी आत्मकथाओं को वह महत्त्व नहीं मिल सका जिसकी वे हकदार थीं।
मराठी दलित लेखकों ने जब आत्मकथाएं लिखनी आरम्भ कीं तब मराठी साहित्य जगत में एक उत्तेजना फैल गई। उनका जीवन जिन त्रासद परिस्थितियों में गुजरा और जिस तरह सवर्णों ने उन पर अत्याचार किये, उसका विवरण पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। दया पवार, लक्ष्मण गायकवाड़, प्रो. शरण कुमार लिंबाले, कौशल्या बैसन्ती आदि की आत्मकथाओं ने मराठी साहित्य और समाज में अत्यधिक सम्मान और विशाल पाठक वर्ग पाया।
आत्मकथा लिखना सबके बस की बात नहीं है क्योंकि इसके माध्यम से लेखक केवल अपनी जीवन गाथा ही नहीं लिखता है बल्कि उसमें उसके शत्रु-मित्र, नाते-रिश्तेदार, सहपाठी-सहकर्मी तथा लेखक के सम्पर्क में आए सभी जड़-चेतन शामिल होते हैं। उसके साथ किसका, किस तरह का संबंध रहा है, वह सब उसकी आत्मकथा का सहज हिस्सा होता है। मित्रों और सहयोगियों का विवरण देने में जितना बड़ा खतरा होता है, उससे भी बड़ा खतरा होता है उनके बारे में लिखना जिनका लेखक से छत्तीस का आंकड़ा रहा हो। उनकी पोल पट्टी खोलना, अपने और अपने परिवार के गुण-दोष लिखना आसान नहीं है। सत्य से जरा सा भी विचलन होने पर ही सब के सब लेखक पर टूट पड़ेंगे और उनका सारा किया-धरा मटियामेट हो जाएगा। एक-दो घटनाएं-दुर्घटनाएं छुपा लेने या उनमें घालमेल करने से पूरी आत्मकथा ही संदेह के घेरेे में आ जाएगी। इसलिए आत्मकथा लेखक को अत्यंत सतर्क, सजग और निर्भीक होकर उन्हीं घटनाओं को लिपिबद्ध करना होता है जो शत-प्रतिशत सत्य पर आधारित हों। कोई लेखक यदि बलात्कारी है या व्यभिचारी, शोषक, अत्याचारी, पाखंडी तथा दलाल प्रवृत्ति का है, तो वह कभी भी अपनी आत्मकथा नहीं लिखेगा क्योंकि इससे वह समाज तथा कानून के दायरे में फंस कर जेल चला जाएगा या फिर उसका अन्य सारा लेखन भी पाठकों की नजर में विश्वसनीय नहीं रह जाएगा। मान लीजिए कि किसी लेखक का शादी से पहले दो-चार महिलाओं से अवैध-अनैतिक संबंध रहे हों तथा शादी के बाद भी उसने ऐसे अवैध संबंधों को जारी रखा हो। अब यदि वह अपने इन संबंधों का उल्लेख करता है तो उन महिलाओं की जिन्दगी तबाह तो होगी ही लेखक की अपनी शादीशुदा जिन्दगी को भी ग्रहण लग जाएगा। और अगर वह इन घटनाओं का उल्लेख नहीं करता है, जिनके बारे में उसके नाते-रिश्तेदार पड़ोसी, शत्रु-मित्र, सब जानते हैं, तब उसकी आत्मकथा, एकांकी, अधूरी और झूठी किताब बन कर रह जाएगी।
दलित आत्मकथाकारों ने इस तरह के खतरे उठाए हैं। इसके बावजूद कि ऐसा करने से उनके पारिवारिक रिश्ते टूटे हैं, मित्रों का साथ छूटा है और उन्हें अपनी जात-बिरादरी वालों का गुस्सा तथा विरोध झेलना पड़ा है। यह सब झेलने की शक्ति और विरोधियों का मुकाबला करने का साहस सब में नहीं होता। जिस लेखक में इन खतरों को उठाने का साहस होता है, वही आत्मकथा लिख सकता है, लिखता है।
इसमें दलित, गैर-दलित का भेद नहीं किया जा सकता। यदि कोई दलित लेखक भी अवगुणी-दुर्व्यसनी या फिर बलात्कारी प्रकृति का है तो वह भी कभी अपनी आत्मकथा नहीं लिखेगा।
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बीसवीं सदी के अंतिम दशक मेें हिन्दी पट्टी में दलित लेखकों ने अपनी आत्मकथाएं लिखना आरंभ कर दिया था। एड. भगवानदास की आत्मकथा- ‘मैं भंगी हूँ’ अवश्य थोड़ा पहले, सन् 1981 में तथा मराठी में दया पवार की आत्मकथा 1962 में ‘बलुत’ (अछूत) नाम से प्रकाशित हो चुकीं थीं।
हिन्दी के दलित आत्मकथाकारों में ओमप्रकाश वाल्मीकि को सर्वाधिक सम्मान एवं स्वीकार्यता प्राप्त है। उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इस आत्मकथा के माध्यम से उत्तर भारत के वाल्मीकि समाज की सामाजिक स्थिति तथा उनकी दारूण व्यथा-कथा सबके सामने आ चुकी है। वाल्मीकि समाज के लेखकों की अन्य आत्मकथाओं में सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत’, डाॅ. सुशीला टाकभौरे की ‘शिकंजे का दर्द’, प्रो. श्यामलाल जेदिया की ‘द भंगी वाइस चांसलर’ (एक भंगी कुलपति की आत्मकथा) प्रमुख हैं।
प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा- ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ दो शीर्षकों सेे आई है। डाॅ. धर्मवीर की आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेड़िया’, प्रो. श्यौराज सिंह बेचैन की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’, प्रो. रमाशंकर आर्य की आत्मकथा ‘घुटन’, माता प्रसाद ‘मित्र’ की आत्मकथा ‘झोपड़ी से राजभवन’, रूपनारायण सोनकर की आत्मकथा ‘नागफनी’, मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा ‘अपने-अपने पिंजरे’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुकी हैैं। इन आत्मकथाओं में ‘जूठन’, ‘मुर्दहिया’ तथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ सर्वाधिक चर्चित और पठनीय हैं।
इन आत्मकथा लेखकों ने अपने आत्मवृत्त के साथ ही अपनी-अपनी जाति और समाज की कड़वी सच्चाई को सबके सामने उजागर किया है। दलित आत्मकथाओं में लेखकों ने पूरी ईमानदारी के साथ खुद के जीवन को प्रस्तुत करने की कोशिश की है। कुछ आत्मकथाओं में लेखकों ने अपनी पत्नियों के अन्य पुरुषों के साथ अवैध संबंधों को भी उजागर करने से भी गुरेज नहीं किया है। अपनी जिन्दगी को जस का तस चित्रित करने में अधिकांश दलित आत्मकथा लेखक पूरी तरह सफल रहे हैं। लेखकों ने खुद पर हुए अत्याचार, हमले तथा अपमानजनक त्रासद हादसों को इन आत्मकथाओं में प्रस्तुत कर, सवर्ण समाज को आईना दिखाया है। यही कारण है कि हिन्दी में दलित आत्मकथाओं ने केन्द्रीय विधा के रूप में अपनी दावेदारी पुख्ता की है। इन आत्मकथाओं में से कुछ का अन्य भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद भी हो चुका है। ये अनुवाद इन आत्मकथाओं की वैश्विक स्वीकृति का प्रमाण हैं। मराठी की ही तरह हिन्दी दलित आत्मकथाओं को भी पाठकों तथा अकादमिक हलकों ने हाथोें-हाथ लिया है। इन आत्मकथाओं पर अनेक विश्वविद्यालयों में शोध हो रहे हैं तथा इन्हें अब एम.ए. के पाठ्यक्रमों में शामिल कर पढ़ाया जाने लगा है।
मेरा मानना है कि ऐसे सवर्ण लेखक, जिनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि सामंती तथा अत्याचारी-दुराचारी रही है, वे तो कभी भी आत्मकथा नहीं लिख सकते क्योंकि आत्मकथा में उन्हें अपने बाप-दादाओं, चाचा-ताऊ, दादी-नानी और मां-बहनों के विवरण भी देने होंगे। यदि उनका कुनबा दुराचारी और उनका आचरण भ्रष्ट है तब उसके लिए यह विकट चुनौती होगी कि वह इनका उल्लेख करें या न करें। यदि उल्लेख करते हैं, तो उनकी सात पीढ़ियों को लांछित तथा तिरस्कृत होते देर न लगेगी और यदि छिपाते हैं तब उसकी आत्मकथा, आत्मकथा नहीं रह जाती है। अब तक गैर-दलितों में ऐसे लेखक हिन्दी में तो एक भी नहीं हुए हैं। एक अपवाद अवश्य हैं – रमणिका गुप्ता – जिन्होंने ‘आपहुदरी’ और ‘हादसे’, शीर्षक अपनी आत्मकथाओं में अपने अपने पर पुरुषोें से संबंधों का खुलासा किया है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने जरा-सा संकेत भर दिया था कि प्रेमचंद के किसी अन्य स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध रहे थे। इस पर डाॅ. धर्मवीर ने प्रेमचंद को ज़ार (तानाशाह) घोषित कर दिया था। इसलिए दर्जनों खतरे हैं आत्मकथा लेखकों के लिए।
हिन्दी के द्विज लेखकों को मेरी यह चुनौती है कि वे आत्मकथा लिखकर दिखाएं। हां, वे आत्मकथा के नाम पर ‘आत्मप्रशस्ति’ अवश्य लिख देंगे। पहले भी आत्मकथा के नाम पर आत्मप्रशस्ति लिखी गई हैं और अब भी लिखीं जा रही हैं तथा आगे भी लिखी जाती रहेंगीं। परंतु वे दलितों की तरह ‘अक्खरमासी’, ‘उचक्का’, ‘तिरस्कृत’ तथा ‘मेरी पत्नी और भेडिया’ जैसी आत्मकथाएं नहीं लिख पाएंगे।
हो सकता है कि भविष्य में कोई द्विज लेखक इस तरह का साहस करे भी परंतु उसके लिए एक नहीं, सैकड़ों खतरे और जोखिम रहेंगे। वैसे मैं प्रतीक्षा करूंगा कि कोई द्विज लेखक अपने खुद के और अपने सगे-संबंधियों के ऐबों तथा अत्याचारों का खुलासा करे। यदि वह नहीं करेगा तब भी उनके बाप-दादाओं की अत्याचारी और अन्यायी छवि दलितों की आत्मकथाओं में तो लगातार आ रही है। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने ‘जूठन’ में अपने अध्यापकों तथा सगे-संबंधियों के मनुवादी चरित्र को उजागर कर ही दिया है। अन्य दलित आत्मकथाओं में भी ठाकुर-ब्राह्मण तथा अन्य वर्चस्वशाली जातियोें के काले कारनामे तथा दलित उत्पीड़न की सच्ची घटनाएं अब समाज तथा पाठकों के बीच आ ही रहीं हैं। दलित साहित्य, खासकर दलित आत्मकथाओं, से द्विज इसलिये नफरत तथा घृणा करते आए हैं क्योंकि वे उनके षड्यंत्रों और अत्याचारों को उजागर करतीं हैं। वे और उनके पुरखे कितने अमानवीय, बर्बर तथा क्रूर थे, यह सब उजागर हो चुका है। सहृदय द्विज पाठक और विद्यार्थी दलित आत्मकथाओं को पढ़कर खुद पर और अपने पुरखों के कुकर्मों पर लज्जित तथा शर्मिंदा होते हैं। परंतु, जो अपने पुरखों की ही तरह क्रूर और धूर्त हैं, वे इन प्रसंगों को पढ़कर आगबबूला हो जाते हैं। वे दलित लेखकों पर तमाम तरह की अतार्किक टिप्पणियां करते हैं। कुछ तो दलित साहित्य को साहित्य ही नहीं मानते। वे इसे शिकायती साहित्य कहकर इसका उपहास उड़ाते हैं। पर दलित लेखक, पूरी हिम्मत और साहस के साथ आत्मकथा लेखन कर रहे हैं।
मेरी राय है कि दलितों की जितनी उपजातियां हैं, उन सबके सदस्यों की आत्मकथाएं अवश्य आनी चाहिए क्योंकि हर दलित जाति का अलग पेशा तथा अलग सामाजिक स्थिति है। धोबी जाति की सामाजिक स्थिति, वाल्मीकि से पृथक है। वाल्मीकि की सामाजिक स्थिति चमारों से अलग है। इसी तरह कोरी जाति की सामाजिक हैसियत, चमारों और खटीकों से अलग है।
कहने का आशय यह कि दलितों की जितनी उपजातियां हैं वे सब अलग-अलग सामाजिक हैसियत रखती हैं। उनके प्रति अत्याचार और शोषण भी अलग-अलग तरह से होते हैं। इसीलिए मेरा आग्रह है कि धोबी, पासी, मुसहर, बसोर, धरिकार, हेला, कठेेरिया जैसी तमाम अन्य दलित जातियों के लेखकों को भी अपनी आत्मकथाएं लिखकर अपने सामाजिक तथा साहित्यिक दायित्व को पूरा करना चाहिए। अभी तक चमार, जाटव, वाल्मीकि तथा खटीक जातियों की आत्मकथाएं ही प्रकाश में आई हैं। इनसे चमारों और सफाईकर्म करने वाली अन्य जातियों का सामाजिक सच, पेशेगत परेशानियों तथा उनके शोषण-दमन का विवरण ही भारतीय समाज के सामने उजागर हुआ है। जिस दिन दलितों की तमाम जातियों की दारूण कथा और उन पर हुए अत्याचारों का विवरण साहित्य में आ जाएगा, उस दिन से एक नई साहित्यिक और सामाजिक क्रान्ति की शुरूआत होगी। मुझे विश्वास है कि निकट भविष्य में हमें और हमारे समाज को दलितों की विभिन्न जातियों की दलित आत्मकथाएं पढ़ने को मिलेंगी। सरकारी अफसरों, चिकित्सकों, प्रोफेसर-शिक्षकों, वकीलों, आईएएस–आईपीएस अधिकारियों, नेताओं तथा अन्य जनप्रतिनिधियों को भी अपने जीवन की मुख्य घटनाओं-दुर्घटनाओं को अवश्य ही लिपिबद्ध करना चाहिए। खासकर, जिनमें लेखकीय गुण हैं उन्हेें तो आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाना ही चाहिए।
डाॅ. धर्मवीर, जो कि एक आईएएस अधिकारी थे, ने अपनी सरकारी नौकरी के अनुभव साझा नहीं किए हैं। काश वे ऐसा कर पाते तो हमारी नई पीढ़ी को बहुत प्रेरणा मिलती। उनकी आत्मकथा ‘मेरी पत्नी और भेडिया’ एकांकी बन कर रह गई है। इसी तरह प्रो. तुलसीराम की आत्मकथा में उनके जेएनयू में नियुक्त होने तथा वहां के उनके संघर्ष और अनुभव दर्ज नहीं हो पाए हैं। हो सकता है कि उन्हें वहां नौकरी के लिए और नौकरी करते हुए कोई बड़ा संघर्ष करना ही न करना पड़ा हो क्योंकि जेएनयू का परिवेश और शैक्षिक माहौल, दलितों के लिए उतना दुखदायी नहीं है जितना कि देश के अन्य विश्वविद्यालयों का है। लखनऊ विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास विभाग के प्रो. अँगनेलालजी के पास अपने विश्वविद्यालयीन जीवन के कई कटु अनुभव थे पर वे आत्मकथा लिखने से चूक गए। यदि उनकी आत्मकथा आई होती तो निश्चय ही बड़ा हंगामा खड़ा होता। परंतु वे लेखक होने के बावजूद ऐसा नहीं कर पाए। जबकि प्रो. श्यामलाल जेदिया (जोधपुर, राजस्थान) और प्रो. रमाशंकर आर्य (पटना, बिहार) अपनी आत्मकथाएं लिखकर कुछ हद तक विश्वविद्यालयों का सच बाहर लाने में सफल हुए हैं। डाॅ. डी. आर. जाटव की आत्मकथा ‘मेरा सफर मेरी मंजिल’ इस दृष्टि से बहुत ही उपयोगी और प्रेरक आत्मकथा है।
आत्मकथा लेखक को अपने जीवन की किन घटनाओं का आत्मकथा में शामिल करना है इसके चयन का पूरा अधिकार उसी को है। परंतु, मेरा मानना है कि अन्य घटनाओं के अलावा आत्मकथा में वे सब घटनाएं शामिल अवश्य होनी चाहिए, जिनसे हमारे समाज और राष्ट्र को मजबूती मिलती हो। जिन घटनाओं से पाठकों को कोई प्रेरणा या सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिलती यदि ऐसी घटनाओं को वे शामिल न भी करते तब भी आत्मकथा के कथ्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। हां, पर यहां यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसी बड़ी सच्ची घटना को छिपाया नहीं जाना चाहिए। फिर भले ही उसका प्रभाव कुछ भी पड़े। यह पाठकों के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए कि वे उसे किस रूप में ग्रहण करते हैं। यदि कोई लाभ-हानि का गुणा-भाग लगाकर आत्मकथा लिखेगा तो वह सच्ची आत्मकथा नहीं होगी। लेखक के जीवन की भूल-गलतियां-शैतानियां तथा शरारतें भी आत्मकथा में दर्ज होनी चाहिए क्योंकि उन्हें पढ़कर हमारी नयी पीढ़ी खुद को तराशने में सफल होगी। आत्मप्रशस्ति और आत्मप्रवंचना में संतुलन बिठाना जरूरी है। अब तक लिखी जा चुकी दलित आत्मकथाओं ने हमें निराश नहीं किया है बल्कि समाज को गहरे तक प्रभावित और प्रेरित किया है।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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