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हिन्दू राष्ट्र के लिए अनशन की नौटंकी क्यों?

तथाकथित परमहंसों को दिक्कत भारत के संविधान से भी है। ये इसे डा. आंबेडकर का संविधान समझते हैं, देश का नहीं। इसलिए उसके प्रति इनमें रत्ती भर सम्मान नहीं है। ये इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इस संविधान के रहते उत्तर प्रदेश क्या, भारत में भी रामराज्य नहीं आ सकता। बता रहे हैं कंवल भारती

अयोध्या में कोई परमहंस साधु हैं, जो भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए अनशन पर बैठ गए हैं। इनके पूरे माथे पर चंदन का लेप है, भगवाधारी हैं। अद्भुत है कि ये कर्महीन नर हैं, पर इसके बावजूद इन्हें सकल पदार्थ उपलब्ध हैं। इसी तरह कोई प्रबुद्ध नन्द गिरि हैं, जो रामराज्य लाने के लिए रथयात्रा निकालने जा रहे हैं, उनका कहना है कि अगर वर्णव्यवस्था टूट गई, तो देश टूट जायेगा। संपन्नता में जीने वाले ये अकेले प्राणी नहीं हैं, ऐसे और भी बहुत से साधु-सन्यासी हैं, जो रामराज्य में जीने-मरने के अभिलाषी हैं।

आइए, देखते हैं कि इनकी असली समस्या क्या है? इनमें से शायद ही किसी को पता हो कि राष्ट्र का मतलब क्या है? जब ये हिन्दू राष्ट्र कहते हैं, तो इसका मतलब इनके लिए हिन्दू देश होता है, जैसे नेपाल कभी हिन्दू राष्ट्र था, जो अब नहीं है, जैसे, पाकिस्तान आज मुस्लिम राष्ट्र है। ये लोग राष्ट्र का मतलब देश समझते हैं, जबकि इसका मतलब है कौम। जब हम मुस्लिम राष्ट्र कहते हैं, तो यह बात सही हो सकती है, क्योंकि मुसलमान एक कौम है। पर क्या हिन्दू एक कौम है? चार वर्णों और हजारों जातियों में विभाजित हिन्दू समाज किधर से एक कौम है? क्या ब्राह्मण और ठाकुर एक कौम हैं? क्या ब्राह्मण और वैश्य एक कौम हैं? क्या ब्राह्मण और शूद्र एक कौम हैं? जब हिन्दू एक कौम नहीं हैं, तो वे एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? अब रहा सवाल भारत का, तो जब भारत के निवासी एक कौम के नहीं हैं, तो भारत हिन्दू राष्ट्र कैसे हो सकता है?

लेकिन भारत के ये साधन-संपन्न और कर्महीन नर, जिन्हें सकल पदार्थ उपलब्ध हैं, हिन्दू राष्ट्र की बात करते हैं, तो दूसरे शब्दों में वे यह कहना चाहते हैं कि भारत को लोकतंत्र की नहीं, रामराज्य की जरूरत है। मतलब, उनका असल मकसद लोकतंत्र को खत्म करके रामराज्य लाना है। यहां दो सवाल विचारणीय हैं – (एक), ये रामराज्य क्यों चाहते हैं? विष्णु के 24 अवतारों में केवल राम का ही राज्य क्यों चाहते हैं, कृष्ण का राज्य क्यों नहीं चाहते? और (दो), ये रामराज्य किन लोगों के लिए चाहते हैं? इन दोनों सवालों पर गौर करना जरूरी है। 

भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग को लेकर अनशन करते परमहंस नामक साधु

पहले सवाल का जवाब यह है कि केवल रामराज्य ही ऐसा राज्य है, जिसका राजा क्षत्रिय है, और शासन ब्राह्मण के नियंत्रण में है। यानी, रामराज्य एक ऐसा राज्य है, जो ब्राह्मण के रिमोट कंट्रोल से चलता है, जिसमें ब्राह्मण की मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता – जो वह चाहता है, वही होता है। कृष्ण के राज्य में शासन ब्राह्मण के नियंत्रण में नहीं था। कृष्ण ने ब्राह्मण के कहने पर आंख मूंदकर किसी भी निर्दोष की हत्या नहीं की। दूसरे सवाल का जवाब यह है कि ब्राह्मणों ने जनेऊ के आधार पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज बना दिया है। यह हिंदुओं का उच्च वर्ग है। शेष को ब्राह्मण ग्रंथों में अनुलोम-प्रतिलोम वर्णसंकर जातियां लिखा गया है, जिसे आज दलित-पिछड़ी जातियां कहा जाता है। ये ही अछूत और शूद्र जातियां हैं। मौजूदा दौर में इसी को राजनीतिक शब्दावली में बहुजन समाज कहा जाता है। वर्णव्यवस्था में बहुजन जातियां द्विज वर्ग के अधीन रहने वाला सेवक वर्ग है। लेकिन लोकतंत्र में यह सेवक वर्ग द्विजों के समान हैसियत वाला समाज है। वह नीचे से ऊपर उठ गया है, और द्विज वर्ग की सत्ता के लिए चुनौती बन गया है। इसी चुनौती को खत्म करने के लिए आरएसएस का ब्राह्मण वर्ग रामराज्य लाना चाहता है।

सवाल है कि लोकतंत्र में अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय भी हैं, क्या वे द्विजों के लिए चुनौती नहीं हैं? जवाब है, नहीं हैं। वह इसलिए कि उनमें मुसलमान मुख्य अल्पसंख्यक हैं, जिनकी संख्या सबसे ज्यादा है। परंतु लगभग सभी सरकारों ने उनकी इतनी उपेक्षा की है कि वे दोयम दर्जे के नागरिक बनकर रह गए हैं। शासन-प्रशासन में उनकी नगण्य भागीदारी है। शिक्षा में भी उनका ज्यादा दखल नहीं है। उनकी बड़ी आबादी किसी न किसी हुनर को सीखकर अपनी जीविका चलाती है। आरएसएस के द्वारा उनके प्रति हिंदुओं में इतनी नफरत भर दी गई है कि वे हिंदुओं की हिंसा के आसानी से शिकार हो जाते हैं। आतंक और दंगों के नाम पर उनका इतना दमन हो चुका है कि अब वे चुनौती नहीं रहे। दूसरी बात यह भी है कि मुसलमानों का उच्च वर्ग भी ब्राह्मणों की तरह ही सोचता है।

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इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि इन परमहंसों को लोकतंत्र से मुख्य शिकायत दलित-पिछड़ी जातियों के विकास की वजह से है, उनके समान स्तर पर आ जाने से है, और उनके द्वारा द्विजों के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने से है। इसे हाथरस की घटना और दलित अत्याचार निवारण के लिए बने क़ानून के संदर्भ से समझा जा सकता है। 

आपको याद होगा कि दो साल पहले इस कानून के खिलाफ साधु-सन्यासियों ने प्रदर्शन किया था और सुप्रीम कोर्ट ने भी इसको निष्प्रभावी कर दिया था। परिणामत: प्रतिरोध में दलितों ने देश व्यापी आंदोलन चलाया था। आज हाथरस की घटना से आरएसएस के ब्राह्मण-ठाकुर ज्यादा दुखी हैं। वे दलित समाज की बेटी के साथ हुए बलात्कार से दुखी नहीं हैं, वे उसकी हत्या से भी दुखी नहीं हैं, यहां तक कि वे इस कांड से भी दुखी नहीं हैं कि हिन्दू संस्कृति के विरुद्ध उसकी लाश को रात के अंधेरे में प्रशासन ने जलवा दिया। इन सबसे वे बिल्कुल विचलित नहीं हैं, क्योंकि वे दलित को हिन्दू समझते ही नहीं हैं। वे दुखी हैं, तो दलित परिवार के इस दुस्साहस से कि उसने ‘इज्जतदार’ ठाकुरों पर आरोप क्यों लगाया? इसी घटना ने ब्राह्मणों और ठाकुरों को यह अहसास करा दिया कि जब तक लोकतंत्र रहेगा, वे दलितों के साथ मनमानी नहीं कर सकेंगे। उन्हें रामराज्य की याद आ गई, जहां द्विजों के खिलाफ बोलने की शूद्रों की औकात नहीं थी। अगर आज रामराज्य होता, तो वे इस दलित परिवार को ऐसा दंड देते कि देश भर के दलित उससे सबक लेते। इसीलिए परमहंस और प्रबुद्ध नन्द गिरि जैसे लोग द्विजों की रक्षा के लिए रामराज्य को जरूरी समझते हैं।

लेकिन इन परमहंसों को दिक्कत भारत के संविधान से भी है। ये इसे डा. आंबेडकर का संविधान समझते हैं, देश का नहीं। इसलिए उसके प्रति इनमें रत्ती भर सम्मान नहीं है। ये इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इस संविधान के रहते उत्तर प्रदेश क्या, भारत में भी रामराज्य नहीं आ सकता। इसलिए जब ये हिन्दू राष्ट्र और रामराज्य की बात करते हैं, तो इनका मतलब संविधान पर ही आघात करना होता है। अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार में संविधान बदलने के लिए एक समीक्षा समिति बना दी गई थी। हालांकि यह विचार अब भी आरएसएस के विचाराधीन है, संभवत: इसकी पृष्ठभूमि तैयार की भी जा रही हो।

लेकिन भारत में संविधान के रहते हुए ही, एक मिनी रामराज्य या हिन्दू राष्ट्र कब का कायम हो चुका है, क्या यह परमहंस और प्रबुद्ध नन्द गिरि नहीं जानते हैं? दिल्ली में दंगे करवाकर उनका आरोपी दलितों और मुसलमानों को बनाया गया। क्या यह हिन्दू राष्ट्र नहीं है? कोरेगांव में उपद्रव करवाकर उसके आरोप में निर्दोष सामाजिक विचारकों और दलित लेखकों को जेल में डाल दिया गया, क्या यह मिनी रामराज्य नहीं है? गोरखपुर के डाक्टर कफील खान को बिना किसी अपराध के रासुका में बंद रखा गया, क्या यह रामराज्य नहीं है? सहारनपुर में ठाकुरों ने दलितों पर जानलेवा हमला किया और उसके आरोप में दलित नेता चन्द्रशेखर को साल भर जेल में रखा, क्या यह हिन्दू राष्ट्र नहीं है? हाथरस कांड में दलित बेटी की हत्या के लिए उसके परिवार को ही दोषी बताना, क्या रामराज्य नहीं है? झूठ की बुनियाद पर बाबरी मस्जिद गिरा दी गई, झूठ की बिना पर ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा वहां रामलला विराजमान का स्थान बता दिया गया, बाबरी मस्जिद तोड़ने वाले सभी आरएसएस के अराजक नेता अदालत द्वारा बरी कर दिए गए, क्या यह हिन्दू राष्ट्र का प्रमाण नहीं है? इस देश में सब कुछ वही हो रहा है, जो आरएसएस चाहता है। क्या यह मिनी रामराज्य कायम होने का सबूत नहीं है?

हाँ, यह जरूर है कि अभी सवर्णों के अत्याचारों के खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने का दलितों का अधिकार समाप्त नहीं हुआ है। दलितों और पिछड़ों का आरक्षण भी अभी खत्म नहीं हुआ है। द्विजों के साथ दलितों की समान हैसियत भी संविधान के रहते बनी हुई है। भारत के साधन संपन्न कर्महीन नरों की मुख्य समस्या यही है। वे जानते हैं कि जब तक संविधान है, तब तक भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना कठिन ही नहीं, असम्भव भी है। इसलिए उनके हर कदम को संविधान समाप्त करने की दिशा में समझना होगा। वे अब भी शासक हैं, अब भी प्रशासक हैं, अब भी विधि-निर्माता और जज हैं। मगर संविधान भी है। जब संविधान के रहते वे मनुष्य नहीं बन पा रहे हैं, तो मनुस्मृति के विशुद्ध रामराज्य में वे बर्बरता की किस सीमा तक जा सकते हैं, इसकी कुछ लोमहर्षक झलक हमें मनुस्मृति के पन्नों से ही मिल जाती है।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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