अगले वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना में आदिवासियों के लिए अलग धर्म कोड को लेकर आंदोलन में अब झारखंड विधानसभा शामिल हो गई है। इस कड़ी में बीते 11 नवंबर को झारखंड विधानसभा के विशेष सत्र में अलग धर्म कोड की मांग पर सभी की सहमति बनी और सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित हो गया। इसे एक महत्वपूर्ण पहल माना जा रहा है क्योंकि इसे धुर विरोधी भाजपा का भी समर्थन मिला। हालांकि भाजपा का स्टैंड अंतिम दिन तक पूरी तरह स्पष्ट नहीं था परंतु विरोध का मतलब था आदिवासियों का विरोध। मजबूरन भाजपा को भी समर्थन में तर्क-वितर्क के साथ हामी भरनी पड़ी। खुद भाजपा के भी अनेक विधायक आदिवासी समुदाय से हैं ऐसे में अंदरूनी दबाव भी था।
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि आरएसएस आदिवासियों को हिंदू मानता है। इसी साल की शुरूआत में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने रांची में कहा था कि जनगणना के कॉलम में आदिवासी खुद को हिंदू लिखें इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाया जाएगा।
झारखंड सरकार के विधायी प्रस्ताव से इतर आदिवासी नेताओं में अलग धर्म कोड में नाम को लेकर कई तरह की विसंगतियां पैदा हो गईं। कोई सरना कॉलम पर तो कोई आदिवासी कॉलम पर सहमत हैं। कोई सरना को धर्म नहीं, बल्कि धर्म स्थल बताते हैं, तो कोई आदिवासी को एक जाति बताता है। एक पक्ष का मानना है कि जैसे मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारा के नाम पर धर्म कोड नहीं है, तो सरना के नाम पर धर्म कोड कैसे हो सकता है? वहीं दूसरे पक्ष का मानना है कि जब किसी जाति दलित, सवर्ण, ओबीसी, अंसारी, शेख, सैयद, पठान के नाम पर धर्म कोड नहीं है तो आदिवासी के नाम पर धर्म कोड कैसे हो सकता है?

बताते चलें कि देश की प्रथम जनगणना 1872 में हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी, यहूदी की गणना हुई। 1891 में आदिवासियों को प्रकृतिवादी के रूप में जनगणना में जगह दिया गया। वहीं बाद के जनगणना (1941 तक) में ‘ट्राईबल रिलिजन‘ कोड था, जिसे आदिवासी धर्म भी लिखवाया जाता रहा था। 1951 में आदिवासी धर्म को अन्य की श्रेणी में अंकित किया गया, जिसमें आदिवासी धर्म अंकित किया गया। परंतु 1961 में अधिसूचित धर्मों (हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध) के संक्षिप्त नाम को कोड के रूप में लिखा गया, और जनजातीय समुदाय को अन्य धर्म की सुविधा को भी समाप्त कर दिया गया। वर्ष 1971 में सिर्फ अधिसूचित धर्मों की ही रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। जबकि 1980 के दशक में तत्कालीन कांग्रेसी सांसद कार्तिक उरांव ने सदन में आदिवासियों के लिए अलग धर्म ‘आदि धर्म’ की वकालत की, मगर तत्कालीन केंद्र सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। बाद में उक्त मांग को भाषाविद्, समाजशास्त्री, आदिवासी बुद्धिजीवी, समाजसेवी व साहित्यकार रामदयाल मुण्डा ने आगे बढ़ाया। लेकिन केंद्र की तत्कालीन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।
1981 में धर्म के पहले अक्षर को कोड के रूप में अंकित किया गया, आदिवासी या ट्राईबल को गायब कर दिया गया। 2001 और 2011 में अधिसूचित धर्मों को 1 से 6 का कोड दिया गया, जनजातियों को अन्य धर्म की श्रेणी में रखा तो गया लेकिन कोड प्रकाशित नहीं किया गया।
2011-12 की जनगणना में जो 1961-62 की जनगणना प्रपत्र में अन्य का विकल्प था, उसे भी हटा दिया गया। तर्क यह दिया गया कि सभी धर्मों की अपनी पहचान के तौर पर उसके देवालय हैं। जैसे हिन्दुओं के मंदिर, मुसलमानों के मस्जिद, सिखों के गुरूद्वारा आदि, जबकि आदिवासियों का कोई देवालय नहीं हैं, वे पेड़–पौधों की पूजा करते हैं जिस कारण उनका कोई धर्म नहीं माना जा सकता।
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उल्लेखनीय है कि 20 नवंबर, 2015 को गृह मंत्रालय के निर्देश पर जनगणना महारजिस्ट्रार ने जवाब में एक पत्र जारी कर बताया कि जनगणना 2001 में 100 से अधिक जनजातीय धर्मों की जानकारी मिली थी तथा देश की प्रमुख जनजातीय धर्म सरना (झारखंड), सनामही (मणिपुर), डोनिपोलो (अरुणाचल प्रदेश), संथाल, मुण्डा, ओरासन,गोंडी, भील आदि थे। इसके अतिरिक्त इस श्रेणी में अन्य धर्म और धारणाओं के अन्तर्गत सरना सहित कुल मिलाकर 50 धर्म पंजीकृत किए गए थे। इनमें से 20 धर्मों के नाम संबंधित जनजातियों पर हैं, इनमें से प्रत्येक के लिए पृथक श्रेणी व्यावहारिक नहीं है। इस प्रकार भारत के गृह मंत्रालय के निर्देश पर जनगणना महारजिस्ट्रार ने सरना धर्म कोड की मांग को खारिज कर दिया।

बताते चलें कि आदिवासी धर्म कोड की मांग को लेकर 18 फरवरी 2020 को राष्ट्रीय स्तर पर दिल्ली के जंतर मंतर पर एक दिवसीय धरना दिया था और देश के सभी राज्यों के राजभवन के समक्ष धरना—प्रदर्शन किया गया था।
बहरहाल, पूर्व सांसद सालखन मुर्मू कहते हैं कि किसी मांग का विरोध करने की बजाय हमें आपसी समन्वय की संभावनाओं को जीवित रखना चाहिए। वे आगे कहते हैं कि चूंकि हमने अनुच्छेद 342 के तहत आदिवासी की अलग जाति की मान्यता प्राप्त कर ली है तब धार्मिक मान्यता की मांग करना तर्क संगत है।
नरेगा वाच झारखण्ड संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं कि सरना कोड की मांग धार्मिक पहचान के दृष्टिकोण से तो तर्कसंगत हो सकती है, लेकिन देशभर के आदिवासी समुदाय को एक बड़ी छतरी के नीचे आने के लिए आदिवासी कोड की मांग करना ज्यादा समीचीन होगा। तभी हम संख्या बल के हिसाब से आदिवासी नीतियों को प्रभावित कर सकेंगे।
अखिल भारतीय आदिवासी विकास परिषद के कोल्हान प्रमंडल प्रभारी बिरसा सोय कहते हैं कि सृष्टि काल से ही आदिवासी धर्मावलंबी काल्पनिक एवं बनावाटी मान्यताओं से परहेज करते हुए प्रकृति को आधार मानकर अपने जीवन पद्धति को परंपरा का स्वरूप प्रदान किया। कालांतर में यही रूढ़ि परंपरा, संस्कृति, रीति-रिवाज विधि–विधान में परिणित हुई। आदिवासी प्रकृति को आस्था का केंद्र बिंदु मानकर उपासना करते हैं। हम आदिवासी धर्म कोड की मांग को लेकर राष्ट्रीय स्तर से आंदोलन कर रहे हैं। कुछ लोग धर्मस्थल के नाम पर सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं, इन लोगों को मालूम होना चाहिए कि दुनिया के किसी भी देश में धर्मस्थल के नाम पर कोई धर्म नहीं होता है।
राष्ट्रीय आदिवासी–इंडिजीनस धर्म समन्वय समिति, भारत के मुख्य संयोजक अरविंद उरांव का मानना है कि आगामी जनगणना 2021 में समस्त भारत देश के आदिवासियों के लिए आदिवासी काॅलम लागू किया जाना चाहिए। 2011 की जनगणना को देखा जाए तो अन्य के काॅलम में लगभग 83 प्रकार के धार्मिक मान्यताओं की जानकारी मिलती है, जिसमें उरांव, मुण्डा, संथाल, भील, खांसी आदि, कई आदिवासी समुदायों के नाम भी अंकित किया गया है। हेमंत सोरेन की सरकार आदिवासी काॅलम के मसले पर गंभीर है। यह बेहद सकारात्मक है।
दिल्ली विश्वविद्यालय की असिस्टेंट प्रोफेसर नीतिशा खलखो बताती हैं कि आदिवासियों के बीच हिन्दू मुस्लिम, या दलित ब्राह्मण जैसे मुद्दे व दूरियां नहीं लाई जा सकती। द्विज सत्ता के द्वारा सरना समाज को संचालित होने से बचने की जरूरत है। आदिवासी समाज को हिंदुत्व से सचेत रहने की आवश्यकता है।
(संपादन : नवल/अमरीश)