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पश्चिम बंगाल में भाजपा का मतलब

डॉ. रामविलास शर्मा के विचारों को विस्तार देते हुए कंवल भारती मानते हैं कि भारत में यदि फासिस्ट तानाशाही कायम होती है, तो इसकी एकमात्र जिम्मेदारी, कम्युनिस्ट पार्टी में मौजूद, ऊंची जाति पर होगी, और ऊंची जाति में भी सबसे ज्यादा ब्राह्मण वर्ग पर

डॉ. रामविलास शर्मा ने अपने एक लेख “फासिस्ट तानाशाही का खतरा” में लिखा है, “भारत में यदि फासिस्ट तानाशाही कायम होती है, तो इसकी जिम्मेदारी सबसे पहले वामपंथी पार्टियों पर होगी, और इन वामपंथी पार्टियों में सबसे ज्यादा कम्युनिस्ट पार्टी पर।” 

अपनी बात को स्पष्ट करते हुए उन्होंने आगे लिखा है, “फासिस्ट तानाशाही का खतरा इस बात से है कि एक राष्ट्रीय साम्राज्य-विरोधी मोर्चे के रूप में कांग्रेस भीतर से टूट रही है। पिछले 20 साल में उसका लोकप्रिय आधार बराबर संकुचित होता गया है। इस स्थिति से लाभ उठाकर वामपंथी दल एक नए साम्राज्य-विरोधी मोर्चे के रूप में अखिल भारतीय पैमाने पर कांग्रेस की जगह लेने नहीं आए। भारत में फासिस्ट तानाशाही का खतरा विश्व पूंजीवाद के संकट से, अमरीका की युद्धवादी नीति से, भारत पर अमरीका के दबाव से और भारत में अमरीकापरस्त दक्षिणपंथी गुटों के बढ़ते हुए प्रभाव से उत्पन्न होता है। तानाशाही का रास्ता रोकने की ताकत वामपंथी दलों में है, लेकिन वे अपनी ऐतिहासिक भूमिका पूरी नहीं कर रहे हैं। इस अर्थ में वे भी तानाशाही लाने  के लिए जिम्मेदार होंगे।”

डॉ. शर्मा का कहना सही है कि वामपंथी दल कांग्रेस के संकुचन से न लाभ उठा पाए और ना ही कांग्रेस की जगह ले पाए। बल्कि हुआ यह कि मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने संकुचन के दौर में बराबर अपने समर्थन से कांग्रेस शासन को मजबूत किया। इसके विपरीत भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कांग्रेस का स्थान लेने में सफल हो गयी, जो दक्षिणपंथी, अमरीकापरस्त और फासिस्ट भी है। हैरान करने वाली बात यह है कि तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल में शासन करने के बाद भी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी न सिर्फ कमजोर हो गई है, बल्कि उसके अधिकांश नेता ‘तृणमूल कांग्रेस’ में चले गए, और अब वे भाजपा में शामिल हो रहे हैं।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी व केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह

सवाल है कि क्या कारण है कि तीस साल तक कम्युनिस्ट पार्टी का एकछत्र राज्य होने के बावजूद वह जनता के बीच कम्युनिस्ट विचारधारा स्थापित नहीं कर सकी? क्या कारण है कि एक दक्षिणपंथी पार्टी ‘तृणमूल कांग्रेस’ को कम्युनिस्ट शासन को उखाड़ पाने में सफलता मिल गई? और, क्या कारण है कि ‘तृणमूल कांग्रेस’ के सांसद और विधायक अब भाजपा में शामिल हो रहे हैं? इन तीनों सवालों का एक ही जवाब है और वह यह कड़वा सच है कि कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व ब्राह्मण वर्ग के हाथों में रहा, जिनका कम्युनिस्ट विचारधारा से कोई संबंध नहीं था। 

ब्राह्मण के बारे में कटु सत्य यह है कि वह भारतीय समाज में ऐसा प्राणी है, जिसके सामाजिक सरोकार नहीं होते, बल्कि वह अपने धर्म के प्रति समर्पित होता है। कुछ अपवादों को अगर हम छोड़ दें, जो नियम का रूप नहीं ले सकते, ब्राह्मण वर्ग से किसी सामाजिक क्रांति की आशा नहीं की जा सकती। डॉ. आंबेडकर के शब्दों में ब्राह्मण वर्ग में वाल्टेयर का पैदा होना मुश्किल है। वरना क्या कारण है कि कांग्रेस के ब्राह्मण भाजपा में गए, समाजवादी दलों के ब्राह्मण भाजपा में गए, आम आदमी पार्टी के ब्राह्मण भाजपा में गए, और अब तृणमूल कांग्रेस के ब्राह्मण भाजपा में जा रहे हैं? डॉ. रामविलास शर्मा का मत सही है, परंतु वह ब्राह्मणवाद पर विचार नहीं कर सके। इसलिए सही शब्द ये होने चाहिए कि ‘भारत में यदि फासिस्ट तानाशाही कायम होती है, तो इसकी एकमात्र जिम्मेदारी, कम्युनिस्ट पार्टी में मौजूद, ऊंची जाति पर होगी, और ऊंची जाति में भी सबसे ज्यादा ब्राह्मण वर्ग पर।”

एक नजर पश्चिम बंगाल की सामाजिक-राजनीतिक आबोहवा पर

अब बात करते हैं पश्चिम बंगाल में भाजपा की राजनीति पर। तृणमूल कांग्रेस के दस विधायक और एक सांसद को भाजपा में शामिल कराकर अमित शाह ने ममता बनर्जी को झटका दिया है। पर, राजनीति में यह बात अब बहुत ज्यादा मायने नहीं रखती, क्योंकि अपनी मुक्ति के लिए अवसरवादी नेताओं का पार्टियों में आना-जाना एक आम चलन बन चुका है। पर, जरूरी नहीं है कि जिन नेताओं ने पार्टी छोड़ी है, उन्हें उनके क्षेत्र की जनता का भी समर्थन मिले। विचार करने का प्रश्न यह है कि वाम दलों के भी कई नेता भाजपा में शामिल हुए हैं। उनका वाम चिंतन और समाजवादी सरोकार कहां हवा हो गया? कहना न होगा कि वे विचार से कम्युनिस्ट बने ही नहीं थे। वे अपनी धार्मिक वर्ण-व्यवस्था में जो थे, उससे कभी मुक्त नहीं हुए। इसलिए भाजपा उनको अपनी ही पार्टी लगती है, जो ब्राह्मणवादी है, और हिंदू राज्य कायम करना चाहती है।

पश्चिम बंगाल एक ऐसा प्रदेश है, जहां भाजपा और आरएसएस की हिंदू वैचारिकी के लिए पर्याप्त जमीन है। वहां काली का मंदिर है, जहां हर समय निम्न जातियों का शोषण करने के लिए ब्राह्मणवाद का तंत्र सक्रिय रहता है; दुर्गा-पूजा का विशाल उन्माद है, जो जहां से पूरे देश में फैला; वहां रामकृष्ण हुए, विवेकानंद हुए, जिन्होंने वेदांत की धारा प्रवाहित की; और सबसे बड़ी बात यह कि वहां राजा राममोहन राय हुए, जिन्होंने वेद-आधारित हिंदू-पुनर्जागरण का आरम्भ किया। 

मुझे तो हैरत होती है कि ब्राह्मणवाद की इतनी सख्त धरती पर मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने तीस सालों तक शासन कैसे कर लिया? मुझे इससे भी ज्यादा हैरान करने वाला सवाल ब्राह्मणवादी बंगाल में मार्क्सवादी विचारकों का होना लगता है।

कम्युनिस्ट पार्टी की हार के कारण

यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि ऐसा क्या हुआ कि तीन दशकों का कम्युनिस्ट शासन एक ही झटके में ममता बनर्जी ने उखाड़ फेंका? यह बात तो साफ़ हो गई कि कम्युनिस्ट राज ने बंगाल की जनता को, खासतौर से सर्वहारा समाज को मार्क्सवाद की विचारधारा से जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया था, वरना उनका पतन नहीं होता। फिर वह कौन सा आधार था, जिस पर कम्युनिस्ट राज तीन दशकों तक बना रहा? जाहिर है कि वह आधार हिंसा और आतंक का ही हो सकता है। यह पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट शासन के दौर का भयानक सच है कि वह नेताओं और कार्यकर्ताओं की हिंसक तानाशाही पर चल रहा था। वे  विचारधारा से नही, आतंक से शासन चला रहे थे। जनता उनसे प्रभावित होकर नहीं, बल्कि उनके आतंक से डर कर उन्हें वोट देती थी। वहां चुनाव-पूर्व का ही नहीं, बल्कि चुनाव-बाद का माहौल भी तनावपूर्ण होता था। चुनाव से पूर्व वे वोट देने के लिए धमकाते थे, और चुनाव के बाद, वे अपनी हार का बदला उन लोगों के साथ हिंसा करके लेते थे, जिनके बारे में उन्हें पता चल जाता था कि उनका वोट उन्हें नहीं मिला था। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन ने पश्चिम बंगाल में जनता में आतंक पैदा किया था, जिससे मुक्ति की आशा उन्हें ममता बनर्जी में दिखाई, और उन्होंने वोट के आधार पर तीन दशकों का कम्युनिस्ट तानाशाही का राज उखाड़ फेंका। पश्चिम बंगाल में खूनी राजनीति का खेल ममता बनर्जी के शासन ने ही खत्म किया।

अब अगर भाजपा तृणमूल कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं के बल पर पश्चिम बंगाल में अपना राज कायम करने में कामयाब हो जाती है, तो वहां तानाशाही का दौर लौट सकता है।

मुस्लिम कारक

आरएसएस और भाजपा की राजनीति सिर्फ मंदिर की राजनीति नहीं है, बल्कि वह मुस्लिम-विरोध की राजनीति भी है। पश्चिम बंगाल में उनका मुख्य आकर्षण वहां की 25 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जो उनकी आक्रामक हिन्दुत्ववादी राजनीति का सबसे बड़ा मसाला बन सकता है। पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी भाजपा के लिए उसी तरह का चारागाह है, जैसे पशुओं के लिए सूखे मैदान में दूर दिखाई देती हरी-हरी घास। वहां भाजपा नागरिकता का हिन्दूवादी अजेंडा चलाकर बहुत आसानी से पश्चिम बंगाल को गुजरात का फासीवादी माडल बना सकती है। अगर पश्चिम बंगाल में इतनी बड़ी मुस्लिम आबादी न होती, तो भाजपा वहां के चुनावों को इतनी गंभीरता से शायद नहीं लेती। 

बंगाल में भाजपा के मायने 

अगर भाजपा पश्चिम बंगाल को साध लेती है, तो वहां जो हिन्दुत्ववादी फासिस्ट तानाशाही कायम होगी, वह न केवल बांग्लादेशी मुसलमानों के लिए कहर बनेगी, बल्कि लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्षतावादी मूल्यों में विश्वास करने वाले लोगों के लिए भी एक बहुत बड़ी त्रासदी होगी। वहां फिर एक ही विचारधारा का राज स्थापित होगा, और वह विचारधारा होगी राष्ट्रवाद की। जो इस विचारधारा के साथ नहीं होंगे, उन्हें भाजपा राज में देशद्रोह का आरोप झेलना होगा, और भगवा राष्ट्रवादियों का आतंक। कम्युनिस्ट राज की गुंडागर्दी भाजपा राज में ‘राज्य-आतंकवाद’ में बदल जाएगी।

(संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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