h n

हड़प्पा से लेकर आज तक : एक विहंगावलोकन

सन् 1931 की जनगणना के अनुसार, शूद्र आबादी का लगभग 52 प्रतिशत थे और दलित 18 प्रतिशत। वैश्यों, क्षत्रियों और ब्राह्मणों की कुल आबादी लगभग सात प्रतिशत थी। शेष आबादी मुसलमानों, सिक्खों, ईसाईयों और आदिवासियों की थी। आज भी देश की कृषि को शूद्र और दलित ही संभाल रहे हैं। कांचा इलैया शेपर्ड द्वारा संपादित नई किताब में उनके लेख 'शूद्रज एंड डेमोक्रेटिक इंडिया' का एक अंश

हड़प्पा की कृषि-आधारित सभ्यता के नष्ट हो जाने के बाद उसका स्थान ऋग्वेदिक पशुपालक अर्थव्यवस्था ने लिया। यह समझने के लिए बहुत बुद्धि की आवश्यकता नहीं है कि हड़प्पा सभ्यता के वासी इतने विशाल शहरों का निर्माण तब तक नहीं कर सकते थे जब तक कि उनकी अर्थव्यवस्था में कृषि और पशुपालन दोनों का योगदान नहीं रहा हो। वैदिक सभ्यता, नागरी नहीं थी। उसकी अर्थव्यवस्था पशुपालन पर आधारित थी और उसका समाज असमान वर्णों में विभाजित था। 

शूद्र पशुओं को चराते थे और वैश्य, संभवतः, उनके पर्यवेक्षक थे। तत्समय शायद कुछ वैश्य भी श्रमजीवी संस्कृति के भाग थे, परंतु बाद में उन्होंने भी कृषि उत्पादन से जुड़े कार्यों में भागीदारी बंद कर दी। ब्राह्मण और क्षत्रिय खेती, पशुपालन और अन्य उत्पादक कार्यों से पूरी तरह से दूर बने रहे। 

कांचा इलैया शेपर्ड व उनके द्वारा सह-संपादित पुस्तक द शूद्राज – विज़न फॉर ए न्यू पाथ’ का कवर पृष्ठ

परंतु इन तीनों जातियों, जो द्विज कहलाती हैं, को हिंदू धर्म में कुछ विशेष अधिकार प्राप्त हैं। हिंदू समाज में शूद्रों को मूल अधिकार भी प्राप्त नहीं हैं यद्यपि वे हिंदू धर्म का हिस्सा कहे जाते हैं। दूसरे शब्दों में, उन्हें हिंदू धर्म की आध्यात्मिकता और उसके दार्शनिक विमर्श में कोई स्थान प्राप्त नहीं है।

शूद्रों की इतिहास के विभिन्न कालों में क्या स्थिति थी, इसके बारे में कोई अध्ययन उपलब्ध नहीं है। परंतु इस लेख में हमारा सरोकार मुख्यतः शूद्रों की वर्तमान स्थिति से है। विशिष्टतः हम यह देखना चाहते हैं कि हिन्दुत्व की विचारधारा  से वे अब तक किस हद तक प्रभावित हुए हैं और भविष्य में यह विचारधारा उन पर किस तरह का प्रभाव डालेगी।

ऋग्वैदिक और उसके बाद के काल में शूद्रों की जो सामाजिक स्थिति थी, उसमें समय के साथ परिवर्तन आया है।

कृषि क्षेत्र में उनके कार्य के आधार पर उन्हें विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जाता था। वे हजारों वर्षों तक जमीन जोतने से लेकर पशुपालन तक के विभिन्न कार्य करते रहे। उन्हें अनेक शिल्पी समुदायों में वर्गीकृत किया जाता था जैसे जुलाहे, बढ़ई, लुहार, कुम्हार, मछुआरे, फल एकत्रित करने वाले, ईंट बनाने वाले, नाई, धोबी इत्यादि। प्रत्येक गांव में शूद्रों के भी नीचे दलित थे। उन्हें सभी जातियां और समुदाय अछूत मानते थे। वे मुख्यतः गांव की साफ-सफाई और चमड़े से जुड़े व्यवसायों में रत थे।

यह भी पढ़ें – मंडल कमीशन : मैं कहता आंखन देखी

समय के साथ क्षत्रियों, ब्राह्मणों और कुछ मुसलमानों की तरह कुछ शूद्र भी भूस्वामी और सामंत बन गए। बनियों ने अपने आप को शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में व्यवसाय तक सीमित रखा। सन् 1931 की जनगणना के अनुसार, शूद्र आबादी का लगभग 52 प्रतिशत थे और दलित 18 प्रतिशत। वैश्यों, क्षत्रियों और ब्राह्मणों की कुल आबादी लगभग सात प्रतिशत थी। शेष आबादी मुसलमानों, सिक्खों, ईसाईयों और आदिवासियों की थी। आज भी देश की कृषि को शूद्र और दलित ही संभाल रहे हैं।

आज कुछ राज्यों में शूद्र समुदायों जैसे कम्मा, रेड्डी, मराठा, जाट, यादव, कुर्मी, लिंगायत इत्यादि ने अपने-अपने क्षेत्रीय राजनैतिक दलों का गठन कर लिया है। 

इनमें शामिल हैं तेलगु देशम पार्टी, वायएसआर कांग्रेस, तेलंगाना राष्ट्र समिति, जनता दल (सेक्युलर), समाजवादी पार्टी, डीएमके, एआईएडीएमके, राजद, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इत्यादि। धीरे-धीरे इन पार्टियों ने देश की राजनीति पर राष्ट्रीय दलों, विशेषकर कांग्रेस, की पकड़ को कमजोर किया। 

नतीजे में शनैः शनैः भाजपा का एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में उदय प्रारंभ हुआ। 

(कांचा इलैया शेपर्ड के लेख ‘शूद्रज एंड डेमोक्रेटिक इंडिया’ का यह अंश उनकी अनुमति से यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। यह लेख पेंगुइन इंडिया द्वारा प्रकाशित  पुस्तक ‘द शूद्राज – विज़न फॉर ए न्यू पाथ’ का भाग है, जिसका संपादन  कांचा इलैया शेपर्ड और कार्तिक राजा करुप्पसामी ने किया है )

 (संपादन : नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

संबंधित आलेख

व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
दुनिया नष्ट नहीं होगी, अपनी रचनाओं से साबित करते रहे नचिकेता
बीते 19 दिसंबर, 2023 को बिहार के प्रसिद्ध जन-गीतकार नचिकेता का निधन हो गया। उनकी स्मृति में एक शोकसभा का आयोजन किया गया, जिसे...
आंबेडकर के बाद अब निशाने पर कबीर
निर्गुण सगुण से परे क्या है? इसका जिक्र कर्मेंदु शिशिर ने नहीं किया। कबीर जो आंखिन-देखी कहते हैं, वह निर्गुण में ही संभव है,...
कृषक और मजदूर समाज के साहित्यिक प्रतिनिधि नचिकेता नहीं रहे
नचिकेता की कविताओं और गीतों में किसानों के साथ खेतिहर मजदूरों का सवाल भी मुखर होकर सामने आता है, जिनकी वाजिब मजदूरी के लिए...