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कालबेलिया आदिवासी : रहने को घर नहीं, सारा जहां हमारा

पूंजीवाद स्वयं के बहाव में तमाम संस्कृतियों को शामिल कर लेता है। कालबेलिया नर्तकियों की मांग सिनेमा से लेकर यूरोप के तमाम देशों में जरूर है, मगर उससे कालबेलिया समुदाय के आम जीवन पर कोई सार्थक असर नहीं हुआ है। बता रहे हैं जनार्दन गोंड

कालबेलिया एक नाच है, जिसकी धूम देश-विदेश तक में है। इस विधा की नर्तकी गुलाबो सपेरा को पद्मश्री मिल चुका है। यूनेस्को ने इसे दुनिया की अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की सूची में शामिल किया है। यूनेस्को की इस पहल के बाद कालबेलिया नृत्य को वैश्विक स्तर पर सांस्कृतिक उद्योग का हिस्सा बनने का मौका मिला। गुलाबो की लोकप्रियता का यह आलम है कि आज से लगभग दो दशक पहले उनके नृत्य कौशल कालबेलिया नृत्य का इस्तेमाल जे.पी. दत्ता ने अपनी दो फिल्मों – ‘गुलामी’ (1985) और ‘बंटवारा’ (1989) में बिल्कुल वैसे ही किया जैसे संजय लीला भंसाली ने ‘पद्मावत’ (2018) फिल्म में भीलों के घूमर नाच का किया है। 

कालबेलिया नृत्य कालबेलिया आदिवासियों की सांस्कृतिक पहचान है। हाल फिलहाल में इस नृत्य के देखने और सुनने वालों की संख्या में बहुत इजाफा हुआ है। भारत और विदेश इस नृत्य में कुशल लोगों की पूछ बढ़ी है। कैरोलिना रोसालेस के अलावा रूस और फ्रांस में इस नृत्य कौशल के दीवानों की संख्या बढ़ती जा रही है। फिर भले ही कालबेलिया आदिवासी मरुभूमि पर मर रहे हैं। जिंदगी की तमाम सहूलियतों से दूर हैं, मगर उनका नृत्य कौशल विदेशों में भारत की सांस्कृतिक पहचान को प्रदर्शित करने में अग्रणी भूमिका निभाता है।

कालबेलिया समुदाय के लोग नृत्य प्रेमी हैं, इसलिए यह पर्यावरण स्नेही नृत्य के रूप में स्वीकृत है। अपने प्राकृतिक रूप में यह नृत्य मरुभूमि में रात के समय सामुदायिक आनंद के लिए कालबेलिया समुदाय की औरतों द्वारा पेश किया जाता है। कालबेलिया समुदाय को सपेरा, सपेला, जोगी और जागी नाम से भी जाना जाता है। चूंकि यह आदिवासी समुदाय सांप को पकड़ कर करतब दिखा कर रोटी का जुगाड़ करता है और ख़ानाबदोश जीवन जीता है, इसलिए यूरोपीय लोग इन्हें ‘स्नेक जिप्सी ट्राइब’ कहते हैं। वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के लागू होने से उनकी आजीविका पर असर पड़ा है। यही कारण है कि जो नृत्य उनके आत्मानंद का के लिए था, वह अब पूंजी के साथ गठजोड़ करके वैश्विक हो गया है। और धूसर मरुभूमि की जगह बड़ी–बड़ी प्रदर्शन शालाओं ने ले लिया है। यूरोप की दखल के कारण अब इस नृत्य के फॉर्मेट में बदलाव भी देखने को मिल रहा है। पूरी तरह हाथ–पैर और मुखड़े के हाव-भाव वाले नृत्य में बेली डांस की शैली भी शामिल हो रही हैं। मजे की बात यह है कि विदेशी नृत्यांगनाओं द्वारा यह तो हो ही रहा, जो समझ में भी आता है, क्योंकि उन्होंने सांपों की गति-यति के अनुकरण से इसे नहीं सीखा है, मगर आश्चर्य तब होता है, जब सांप की गति-यति को जांचने-परखने वाली कालबेलिया समुदाय की औरतें भी विदेशी नर्तकियों की नकल करने लगती हैं। 

कालबेलिया नृत्य प्रस्तुत करती एक कलाकार

कालबेलिया नाच का गुरु और प्रणेता सांप है। सांप कालबेलिया आदिवासी समुदाय के लिए कामधेनु की तरह हैं। वह उनके लिए उतना ही आदरणीय हैं जितना कि होरी के लिए गाय। कालबेलिया किसी भी परिस्थिति में सांप को मारते नहीं। काला नाग और गेहुअन दोनों उनके लिए जीविकोपार्जन का आधार हैं। इसलिए वे उनसे उतना ही प्रेम करते हैं, जितना किसान खेत से। 

कालबेलिया समुदाय के लोग राजस्थान के पाली, अजमेर, चित्तौड़गढ़ और उदयपुर जिले में शहरों से बहुत दूर मरुस्थलों में निवास करते हैं, जहां मिट्टी के टीले, बबूल के पेड़, गोह और लाल–लाल चिवटों का रहवास होता है। ये चिंवटे भी बड़े आकार के होते हैं, जिस मिट्टी के ढूह में सांप या गोह छिपे रहते हैं, वहां डोलते रहते हैं, जिससे कालबेलिया लोगों को मदद मिलती है। गोह (सांडा) का मांस और तेल दवा–दारू बनाने तथा चमड़ा खजड़ी व ढोल बनाने के काम आता है। एक तरह गोह इनके जीवकोपार्जन में सहयोगी भूमिका अदा करते हैं। हालांकि ये अतिरिक्त गोहों का शिकार नहीं करते, बल्कि गोहों की रक्षा करते हैं, क्योंकि उन्हें पता है, इनके होने से ही उनका बचे रहना सुगम है। 

कालबेलिया बीन बजाकर सांपों को नहीं निकालते। मरुभूमि में सांप के डोलने की आकृति का छाप बालू पर पड़़ जाता है। छाप का पीछा करते–करते वे सांप के घर (बिल या मिट्टी का छोटा टीला) तक पहुंच जाते हैं। बिल को खोदकर और टीले को तोड़ कर ये लोग छटपटाते सांप की गर्दन (मुंह से चार-छ: अंगुल पीछे) पकड़ लेते हैं। छटपटाता सांप इनके हाथ को लपेट लेता है। उसी रूप में सांप को पकड़े हुए पिटारे के पास आते हैं और उसमें डालकर पिटारा (कभी–कभी ढीले-ढाले कपड़ा या झोला) बंद कर देते हैं। इस तरह एक नए सदस्य की आमद कालबेलिया परिवार में हो जाती है।

कालबेलिया लोगों के लिए सांप बहुपयोगी होता है – मसलन, ज़हर निकालना, जिससे वे सर्प दंश के उपचार की दवा बनाते हैं तथा सपेरा का खेल और सांपों से कालबेलिया नृत्य का कौशल सीखना। 

भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के हाथों पद्मश्री सम्मान ग्रहण करतीं गुलाबो सपेरा

कालबेलिया परिवार के मर्द सांप पकड़ने से लेकर विष निकालने और सपेरा का खेल दिखाने तक का काम करते हैं और औरतें उनसे नाचना सीखती हैं। दरअसल कालबेलिया नृत्य सांपों (नागों) के अंग संचालन के अनुकरण से पैदा हुआ है। पद्मश्री गुलाबो सपेरा, जिन्होंने इस नाच को वैश्विक पहचान दी है, का मानना है कि काले नाग मेरे नृत्य गुरु हैं। नाचना और डोलना मैंने उन्ही से सीखा है। बीन की धुन पर नागों को मस्त करते-करते मैं भी मस्ती में भर जाती थी। मेरी शोहरत और काबिलियत में नागों की भूमिका है। वे मेरे गुनिया, मेरे दाता और मेरे समुदाय के रोटी-रोजी का साधन हैं।  

कालबेलिया नाच सीखने के लिए काले नाग सर्वोत्तम माने जाते हैं। क्योंकि काले नाग चुस्त, फुर्तीले और लोचदार होते हैं। वे झूमते और कुंडली भी खूब मारते हैं। कालबेलिया औरतें सबसे पहला अनुकरण सांप के बदन का करती हैं। विदित है कि नागों का शरीर काला और शल्की गोटेदार हुआ करता है, इसलिए कालबेलिया नृत्य करने वाली औरतें चटख काला लंहगा और चोली पहनती हैं। लंहगे और चोली पर षटभुजाकार कांच के गोटे टांके जाते हैं, जैसे सांप की त्वचा पर चमकीले शक्ल बने होते हैं। बाहों में काली रेशमी लटकन लटकी रहती है, जैसे नाग की कटी-फटी धागेनुमा जीभ। जिस तरह से वातावरण का आकलन करने के लिए वे बार–बार जीभ निकालते हैं, उसी तरह नर्तकी अपने हाथों से हाव-भाव प्रदर्शित करती है। सांपों के बदन के रंग की पूर्ति नर्तकियां गोदना और वस्त्रों से करती हैं। हम जानते हैं कि विषधर बीन (महुअर) की धूम पर झूमता है। कालबेलिया मर्द साज पर संगत देते हैं। वे बीन (महुअर) पुंगी, डफली, खझड़ी, मोरचन और ढोलक से साज और संगीत का पक्ष संभालते हैं। इन साजों में बीन अगुआ की भूमिका निभाता है। जिन गीतों पर कालबेलिया नाचती हैं, वे गीत सांपों और कालबेलिया के आपसी तालुक्कात या लोककथाओं या श्रृंगार भाव पर आधारित होते हैं, जो मौखिक रूप एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचते रहते हैं। जैसे – 

रे काळ्यो कूद पड्यो मेला में – 2

साईकिल पंचर कर ल्यायो (वृंदगान)

हो दो दिन ढब जा रे डोकरिया – 2

छोरी म्हारो बाजारियो काढ़े (वृंदगान)

छोरी तने लेबाले लायो…

कालबेलिया समुदाय के लोगों का इतिहास राजपुताने से जुड़ा हुआ बताया जाता है। मान्यता है कि मध्यकाल में ये लोग राजपूत राजाओं की सेना में सेवा देते थे। राजपूत राजाओं की पराजय से उनकी जाति का ओहदा नहीं बिगड़ा, मगर सेना में सेवा देने वाले आदिवासी समुदायों जैसे भीलों, लंबाड़ों (बंजारों) और कालबेलिया आदि के दुर्दिन शुरू हो गए। चूंकि कालबेलिया मध्यकाल में भी ख़ानाबदोश रूप में सैन्य सेवा दिया करते थे, इसलिए दुर्दिन में भी ख़ानाबदोशी नहीं छूटी। दूसरे आदिवासी समुदायों की तरह ये खेती–किसानी से नहीं जुड़े और सांप को अपना साथी  मरुभूमि को अपना रहवास बना लिया, जिसे डेरा भी कहा जाता है।  

ख़ानाबदोशी ने इनके जीवन को कथाओं-गीतों और अपार धीरज से जरूर भर दिया मगर बहुत कुछ हर भी लिया। खेती–किसानी से दूर रहने के कारण ये लोग आज भी भूमिहीन हैं। स्थायी होने से जिस तरह की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान निर्मित होती है, उससे ये लोग आज भी कोसों दूर हैं। फलस्वरूप इनकी पहचान भले सर्प मित्र के रूप में, पर्यावरण प्रेमी इंसान के रूप में हो मगर धार्मिक और आम नागरिक के रूप में ये लोग अब तक चिह्नित नहीं हो पाए हैं। 

मध्यकाल से लेकर अब तक समाज का स्वरूप बहुत कुछ बदल चुका है। मगर कालबेलिया नहीं बदले उनमें जाति और धर्म का दुराग्रह नहीं पनपा। कालबेलिया समुदाय हिंदू और मुसलमान दोनों धर्मों में बंटा हुआ है। कभी–कभी तो एक भाई हिंदू रीति–रिवाज़ को मानता है, तो दूसरा मुस्लिम रीति-रिवाज को। एक भाई शिव पूजा करता है, तो दूसरा नम़ाज अदा करता है। ख़ानाबदोश जीवन और मुस्लिम धर्म को मानने के कारण इनकी नागरिकता संशय में आ चुकी है, जिधर बहुत कम लोगों का ध्यान गया है। कालबेलिया समुदाय के पास न जमीन है और ना ही न पट्टा। गांव-शहर के बाहर तंबू और अस्थाई झोपड़ियों में रहने के कारण इनके पास जन्म प्रमाण-पत्र, निवास प्रमाण पत्र और अनुसूचित जनजाति के प्रमाण पत्र का टोटा है। इसके कारण ये लोग तमाम सरकारी योजनाओं के परिसर से बाहर हैं। 

पूंजीवाद स्वयं के बहाव में तमाम संस्कृतियों को शामिल कर लेता है। कालबेलिया नर्तकियों की मांग सिनेमा से लेकर यूरोप के तमाम देशों में जरूर है, मगर इससे कालबेलिया समुदाय के आम जीवन पर कोई सार्थक असर नहीं हुआ है। यह कैसी विडंबना है जिनसे विदेशों में भारतीय संस्कृति की पहचान बनी है, उनकी खुद की पहचान संदेह के दायरे में आ चुकी है। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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