भारत के बहुसंख्यक वंचितों को उत्पादन के संसाधनों एवं शासन-प्रशासन में समुचित भागीदारी दिलवाना, कांशीराम (15 मार्च, 1934 – 9 अक्टूबर, 2006) का जीवनपर्यंत प्रयास रहा। वे चाहते थे कि बहुसंख्यक समाज हिंदू धर्म के जातिगत व्यवस्था की गुलामी की जंजीरें तोड़कर एकजुट हो और अपने अधिकार हासिल करे। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर उन्होंने बामसेफ (दी ऑल इंडिया बैकवर्ड एंड मॉयनरिटी कम्युनिटीज इम्प्लाइज फेडरेशन) का गठन किया। इसके गठन का मूलस्थान था महाराष्ट्र का पुणे शहर। बाद में इसका मुख्यालय नई दिल्ली के करोलबाग में स्थानांतरित किया गया।
गहन विचार-विमर्श के बाद पड़ी थी बामसेफ की नींव
कांशीराम ने वंचित समुदायों के शिक्षित व सरकारी कर्मचारियों को जोड़ा तथा बामसेफ की नींव रखी। कांशीराम ने इसका गठन शोषित समाज के लोगों को, जिसमे वे पैदा हुए, की दासता को खत्म करने के लिए किया था। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए संगठन की संरचना को विकसित किया गया।
ध्यातव्य है कि बामसेफ वह संगठन है, जो तीव्र अभिलाषा, शोषण की आत्मपरीक्षा, श्रमसाध्य विवेचन, परखे हुए प्रयोगों एवं उनसे उत्पन्न धारा से निकला था। समता आधारित शासन व्यवस्था और आर्थिक गैर-बराबरी मिटाने के लिए व्यवस्था परिवर्तन उसका मकसद था। इसका उद्देश्य सभी शोषितों व वंचितों को एक सूत्र में बांधना था ताकि वे अपनी दशा में सुधार के साथ-साथ अपने पर होने वाले अन्याय को समूल नष्ट कर सकें और उन्हें अपने अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए खड़ा करना था। यह काम शोषित समाज के शिक्षित कर्मचारियों एवं बुद्धिजीवियों को करना था क्योंकि तत्कालीन परिस्थिति में यही आत्मनिर्भर लोग थे, जो अपने अधिकार को समझने और दूसरों को समझाने वाले थे।
वंचित व शोषित वर्ग के कर्मचारियों की सामाजिक ज़िम्मेदारी को देखते हुए पुणे में 6 दिसंबर 1973 को बामसेफ नामक संगठन बनाने की दिशा में पहल की गई। संगठन के निर्माण पर विचार-विमर्श के लिए गिने-चुने कार्यकर्ताओं की पुणे और दिल्ली में बैठकें होती रहीं। गहन विचार-विमर्श के बाद इस संगठन का गठन करना तय किया गया। फिर इसके लगभग 5 वर्षों के बाद वर्ष 1978 में डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस (6 दिसंबर) के मौके पर दिल्ली के बोट क्लब पर विधिवत बामसेफ का स्थापना दिवस महोत्सव मनाया गया। बोट क्लब पर लोगों की गोलबंदी का यह नजारा देखकर इंदिरा गांधी भी चौंक गई थीं।
संस्थापक मंडल
बामसेफ का एक संस्थापक मंडल था। कांशीराम इसके संस्थापक अध्यक्ष थे। उनके अलावा डी.के. खापर्डे, महासचिव (इसके पहले मधु परिहार, इस पद पर थे), के.एस. भगत, सचिव, एम.एम. आटे, संयुक्त सचिव, आर.आर. पाटील, संयुक्त सचिव और बी.ए. दलाल, ऑडिटर थे। कार्यकारी मंडल में कुल 51 सदस्य थे, उसमें 25 पदाधिकारी और 26 कार्यकारी सदस्य थे। इनमें 12 पदाधिकारी तथा 17 सदस्य महाराष्ट्र के विदर्भ से थे। बामसेफ के निर्माण के प्रारंभिक दौर में दीनाभाना की भी मुख्य भूमिका रही।
बामसेफ के गठन के पीछे कांशीराम की सोच
स्वाभिमान का आंदोलन स्वावलंबन के बिना नहीं चलाया जा सकता। भारत का दलित व पिछड़ा समाज सामाजिक व्यवस्था का शिकार बन गया था। आज इन वर्गों के लोगों ने अपने स्वार्थपूर्ण हितों के लिए लगभग दस हजार संगठन बनाकर अपने झंडे के नीचे अपने आपको अलग-अलग कर लिया है। अनेक संगठन और उनके नेता उंची जातियों के लोगों की राजनीतिक पार्टियां और संगठन के दम पर तथा उनके पैसों के सहारे खड़े हैं। ऐसे में जो स्वयं दूसरों पर निर्भर हों, वे खुद के सिवा समाज का कैसे भला कर सकेंगे? ऐसे लोग दूसरों के भरोसे आंदोलन तो खड़ा कर लेंगे लेकिन यह आंदोलन केवल प्रतिक्रिया के रूप में रहेगा। वह कभी आत्मनिर्भर नहीं बन सकता। एक समय ऐसा भी आएगा कि ये लोग आपस में भिड़कर अपने उद्देश्यों को भूलकर गुलामी को ही अपनी नियति मानकर अपनी खींचीं तलवारें म्यान में वापस रख लेंगे। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सत्ता वर्ग इन्हें पदों और पैसो का लालच देकर चुप करवाता है। और जो नहीं मानेंगे उन्हें पुलिस और जेल का भय दिखाकर चुप कर लेंगे। ये शोषित वर्ग को गुलाम बनाकर रखने के सत्ता वर्ग के नए औजार हैं। बामसेफ के संस्थापकगण इससे वाकिफ थे।
कांशीराम ने बामसेफ को मुख्य संगठन यानी मातृ संगठन का दर्जा दिया था। इसके साथ ही उन्होंने कुछ और संघटनों का गठन किया जो बामसेफ के विभिन्न अंग थे। इनमें सबसे पहले था मासबेस्ड यानी बहुजन आधारित, ब्राडबेस्ड यानी कर्मचारी आधारित और कैडर आधारित ढ़ांचा। दूसरा था जिला स्तर से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर तक प्रशासनिक प्रबंधन के लिए सचिवालय। इसी प्रकार तीसरा संगठनात्मक प्रतिष्ठान, चौथा दिल्ली में नियंत्रणालय सहित लगभग एक सौ पूर्ण विकसित कार्यालयों का निर्माण, पांचवां शहरों में बामसेफ भ्रातृ-संघ, छठा वृहत्तर स्वरूप के लिए बामसेफ दत्तक-ग्रहण संघ, सातवां चिकित्सक प्रकोष्ठ, आठवां साहित्यिक स्कन्ध, नौवां परीक्षण स्कन्ध और दसवां संगठन बामसेफ स्वयंसेवक दल था। यह बामसेफ के विविध अंगो का ढ़ांचा था। इसे बामसेफ का मुख्य ढांचा कह सकते है।
कार्य प्रणाली
बामसेफ कैसे काम करेगा, इसका कोई लिखित दस्तावेज नहीं रहा। 14 अक्टूबर, 1971 को एससी, एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समाज कर्मचारी कल्याण एसोसिएशन को पुणे के चैरिटी कमिशनर कार्यालय में नोटरी के जरिए पंजीकृत किया गया था। बामसेफ इसे ही आधार मानकर काम कर रहा था। कांशीराम ने 6-11 मई, 1976 में महाराष्ट्र के देवराली में पांच दिन चले कैडर कैंप में नीतिगत सूचना एवं संगठन के विस्तार की योजना रखी थी। उन्होंने संगठन को सुचारू रूप से संचालन के लिए नियमों, विनियमों और कानूनों की जानकारी तथा, पिछड़े वर्ग की विविध परियोजनाओं, कार्यक्रमों और बजट आदि के कार्यान्वयन के लिए समर्पित कैडर के निर्माण पर ज़ोर दिया था।
यह तय किया गया था कि बामसेफ अनिवार्य रूप से किसी धार्मिक, संघर्षात्मक एवं राजनीतिक गतिविधियों में भाग नहीं लेगा। यह मुख्य तौर पर कर्मचारियों का संगठन था, इसीलिए उस पर कुछ बंधन थे। उसके दृष्टिकोण और गतिविधियों को देखते हुए संगठन का धर्मनिरपेक्ष रहना उचित था। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं था कि संगठन का कैडर या कार्यकर्ता किसी धर्म में आस्था नहीं रख सकता। वास्तव में इसके सभी सदस्य तथा कार्यकर्ता उनके जन्मजात या उनकी व्यक्तिगत पसंद के चयन किए हुए किसी भी धर्म में आस्था रख सकते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने जन्मजात अन्य धार्मिक संगठन के सक्रिय सदस्य या कार्यकर्ता भी हो सकते हैं। लेकिन वे अपना धार्मिक विश्वास या आस्था संगठन के किसी दूसरे कार्यकर्ता पर नहीं थोपेंगे।
बामसेफ के कार्यकर्ताओं की इस प्रकार की धार्मिक स्वतंत्रता का आशय यह भी कभी नहीं रहा कि वे ब्राह्मणवाद के विषमतावादी विचारों का प्रसार करें या फिर दूसरे को ऐसा करने का प्रयास करने दें। इसके सभी सदस्यों का यह प्रयास होगा कि वह भारत में विषमताओं की जड़ ब्राह्मणवाद को समूल उखाड़ फेंकें। कांशीराम एवं सदस्य मंडल का यह निर्णय रणनीतिक एंव कूटनीतिक था।
संगठन की अंत:प्रेरणा
किसी भी संगठन को चलाने को एक अंत:प्रेरणा आवश्यक होती है। प्रारंभ में बामसेफ की अंत:प्रेरणा में डॉ. आंबेडकर के विचार रहे। बाद में उसमें अन्य बहुजन महापुरुषों के विचार शामिल किए गए। लेकिन मूल प्रेरक डॉ. आंबेडकर और जोतीराव फुले ही रहे।
डॉ. आंबेडकर ने राजनैतिक शक्ति को महत्वपूर्ण माना था। जाहिर तौर पर किसी भी राजनीतिक सफलता के लिए आंदोलनात्मक संघर्ष अनिवार्य होते हैं। डॉ. आंबेडकर का संकेत भी यही था कि सामाजिक प्रगति के लिए संघर्षात्मक और राजनीतिक गतिविधियों के लिए वंचित व शोषित समाज अपने आपको तैयार रखे। इसीलिए बामसेफ ने अपने कुछ मार्ग बना लिए। उसमें एक, बामसेफ, अपने विभिन्न अंगों के माध्यम से अपने कैडर आधारित कार्यकर्ताओं द्वारा शोषित समाज की गैर-राजनीतिक जड़ों को मजबूत करना था। दूसरा, जातिविहीन समाज का निर्माण। तीसरा, समता आधारित सामाजिक जड़ों को ऊर्जित करने और उसमे सफलता पाने के बाद बहुसंख्यक समाज को राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए संघर्षात्मक प्रक्रिया को उत्साहित करना था।
बामसेफ के सह संगठन
पिछड़ों एवं वंचित समाज को संघर्ष के लिए उद्दीपित करने हेतु बामसेफ के दस सह संगठनों का निर्माण किया गया। इनमें जागृति जत्था, बामसेफ सहकारिता, समाचार पत्र एवं प्रकाशन, संसदीय संपर्क शाखा, विधिक सहयोग एवं सलाह, विद्यार्थी संघ, युवा संघटन, महिला संघ, औद्योगिक श्रमिक संघटन और खेतिहर श्रमिक संघटन शामिल थे।
डीएस-4 का गठन
बामसेफ की केंद्रीय कार्यकारी समिति की पहली मीटिंग नागपूर में 12-13 फरवरी, 1979 को कांशीराम की अध्यक्षता में हुई। डॉ. आंबेडकर और जाेतीराव फुले के विचारों से लैस यह संगठन ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ जंग के लिए तैयार था। यदि बामसेफ को पूर्णतया कार्यान्वित किया गया होता, तब उसका स्वरूप राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जैसा दिखाई देता। कांशीराम द्वारा 6 दिसंबर, 1981 को दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (डीएस-4) का गठन सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्ष के लिए किया गया था, क्योंकि राजनीतिक आंदोलन बामसेफ के कार्यक्षेत्र में नहीं था। हालांकि राजनीतिक सत्ता मे भागीदारी उसका एक उद्देश्य अवश्य था। कांशीराम द्वारा 1984 में बहुजन समाज पार्टी का गठन किया गया।
इसके पहले कांशीराम ने बामसेफ को सफल बनाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। अपने मिशन को सफल बनाने के लिए उन्होंने आजीवन शादी नहीं करने की, खुद का बैंक अकाउंट न रखने, अपने रिश्तेदारों से संबंध न रखने और किसी भी मनोरंजन के समारोह में नहीं जाने की शपथ ली थी। उनका यह त्याग साहसी और दूसरों के लिए प्रेरणादायी था। इसी कारण बहुजन समाज के अनेकानेक कर्मचारियों ने कांशीराम की प्रतिज्ञा को सामने रखकर अपनी सरकारी नौकरियां छोड़कर सामाजिक एंव राजनीतिक आंदोलन में अपनी भूमिका अदा की।
यह व्यवस्था परिवर्तन के लिए प्रतिक्रांति का आगाज था। लेकिन क्या यह आगाज अपने अंजाम को प्राप्त कर सका? यह एक अनुत्तरित सवाल है।
कांशीराम के राजनीतिक प्रयोग
सवाल है कि क्या कांशीराम बामसेफ के संबंध में अपने उद्देश्यों में सफल हुए? कांशीराम के प्रयासों से बसपा ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक सत्ता हासिल कर ली थी। पंजाब, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ से बसपा के लोग संसद में निर्वाचित होने लगे थे। लेकिन, क्या यह एक बड़े आंदोलन की सफलता को ज्ञापित करने वाली पर्याप्त उपलब्धि थी? केवल संख्या के तौर पर राजनीतिक सफलता के बाद क्या कांशीराम अपने कार्य और उसूलों में सफल हुए? क्या उन्होंने स्वयं सामाजिक एवं व्यवस्था परिवर्तन के मायने बदल दिए थे? क्या उन्होंने अपने ही आदर्शों को खारिज कर दिया था?
कांशीराम ने बामसेफ के साथ अन्य संगठनों में केंद्रीकृत व्यवस्था को लागू किया। वे सभी संघटनाें (बामसेफ, डीएस-4, बसपा इत्यादि) के अध्यक्ष बन गए थे। उन्होंने संघटनों का विकेन्द्रीकरण नहीं किया। बामसेफ को मातृसंघटन बनाने और बामसेफ द्वारा संचालित सभी संघटनों पर नियंत्रण रखने का उनका इरादा था। कांशीराम चाहते तो आजीवन बामसेफ के सर्वेसर्वा बने रहकर आरएसएस के जैसे संघटनों का विकेंद्रीकरण कर ढांचागत विस्तार पर ज़ोर दे सकते थे। लेकिन यह नहीं हो सका। बसपा की स्थापना के बाद उन्होंने अपने ही मुल उद्देश्यों से किनारा कर लिया। अपने ही संगठन बामसेफ को भूलाकर उन्होंने ‘पे बॅक टू सोसायटी’ नामक नया अलिखित अदृश्य फ़ंड रेजिंग टूल बना दिया। कांशीराम की आंखों के सामने ही मुंबई में 22 दिसंबर, 1985 को बामसेफ के विभाजन की रेखा खींच ली गई थी। इस दिन उन्होंने अपने बामसेफ के साथी डी.के. खापर्डे, डब्लू.डी. थोराट, बी.डी. बोरकर, एस.आर. सपकाले, एम के चांदूरकर, वामन मेश्राम, श्याम तागड़े, शिंगाड़े, मधुकर आटे, बी.डी.मानवटे, एस.के.पाटील, सोनोने, उबाले और डॉ. अमिताभ के साथ पहले से ही तय रखी थी। सब मौजूद भी थे। लेकिन मीटिंग नहीं हो सकी। मीटिंग के बगैर ही कांशीराम मुंबई से चले गए। अगले दिन अन्य भी अपने-अपने कार्यक्षेत्र में निकल गए।
इस घटना को देखें तो यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कांशीराम ने खुद को बामसेफ से अलग करने का मन बना लिया था। इसके लिए उन्होंने खुद एक वातावरण बना लिया था। उन पर कार्यकर्ताओं द्वारा बसपा, डीएस-4, बीआरएसी, बीवीएफ आदि संगठनों के लिए नए अध्यक्ष की नियुक्ति के लिए दबाव बनाया जा रहा था। कांशीराम खुद कहते थे कि बामसेफ बुद्धिजीवियों का संगठन है। बामसेफ ही व्यवस्था परिवर्तन का केंद्र होगा। बामसेफ ही मातृ संगठन के रूप में अन्य संघटनों पर नियंत्रण रखेगा। फिर भी कांशीराम ने बामसेफ से अलग होने का कदम उठाया। उस समय बामसेफ का सामाजिक अंकुरण हुआ ही था। बसपा के अलावा बामसेफ के किसी भी दूसरे अंग ने अपना कार्य करना शुरू नहीं की थी। कांशीराम ने बामसेफ को पूर्ण तरीके से विकसित नहीं होने दिया।
आखिर ऐसा क्यों हुआ? क्या वे बसपा का अध्यक्ष बनकर प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे थे? शायद, उन्हें महसूस हुआ कि बामसेफ का सर्वेसर्वा बनकर वे राजनीतिक फायदा नहीं उठा सकते। इसीलिए बामसेफ छोड़कर वे बहुजन समाज पार्टी के अध्यक्ष बन गए। इसके लिए डॉ. आंबेडकर का “राजनीतिक सत्ता ही सब प्रश्नों की मास्टर चाबी है” यह वाक्य प्रचारित किया गया। उन्होंने आर्थिक जरूरतों के लिए “पे बॅक टू सोसायटी” की थीम बना ली। राजनीतिक सफलता के लिए कांशीराम ने अपनी जान लगा दी। कड़ी मेहनत की। उसका राजनीतिक फल भी मिलने लगा। लेकिन उनकी यह उपलब्धि अधूरी थी। उत्तर प्रदेश में सत्ता के बावजूद पिछड़ो एंव वंचितों के विकास के लिए वंचितों के खुद के शिक्षण संस्थाएं, सांस्कृतिक केंद्र, आर्थिक संसाधनों के केंद्र और औद्योगिक संरचनाएं नहीं बन सकीं। यह इसीलिए हुआ क्योंकि कांशीराम के पास विजनरी और मिशनरी लोग नहीं बचे थे। जो थे, वे अपने हितों को साधने के लिए उनसे जुड़े थे। इसी कारण आज बसपा बेहाल स्थिति में आखिरी सांस ले रही है। मूल्यों, निरंतरता, त्याग, प्रणाली और संरचना के अभाव में उसका नेतृत्व कमजोर और असहाय बन गया है।
आज बामसेफ कहां है? कांशीराम ने जिन परिस्थितियों में बामसेफ छोड़ा था, उसे उन परिस्थितियों के बाद कौन चला रहा है? रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया जैसे बामसेफ के अनेक गुट बन गए हैं? सबकी विचारधारा आंबेडकरवाद है, फिर भी वे बंटे हुए हैं। क्या ऐसे बंटे हुए संगठन बहुसंख्यकों के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक क्रांति ला पाएंगे? हमें याद रखना चाहिए कि बंटे हुए लोगों का विनाश ही हुआ है।
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)
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