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स्त्री-रंगकर्म में कथानक की समय-सापेक्षता

स्त्री जीवन की चुनौतियां क्या हैं और क्या हमारा रंगकर्म उनकी तरफ मुखातिब हैं? अभी संबंधों के अवगुंठन और देह की आज़ादी के आह्वान से बाहर हमारा स्त्री जीवन रंगकर्म के कथानकों में किस प्रकार आ रहा है? क्या स्त्री रंगकर्मियों के सामने समकालीन जीवन के ताने-बाने की जटिल बनावट और बुनावट, उसकी पतनशील मूल्य व्यवस्था का नकार और नए जीवन का कोई ब्लूप्रिंट भी है अथवा वे कहीं से काट-कपटकर एक नया और लोकप्रिय पाठ बनाने की जुगत भर है। रामजी यादव का विश्लेषण

बहस-तलब

पिछले दिनों मुंबई के रवीन्द्रालय के मिनी थियेटर में अमरीकी नाटककार ईव एन्स्लर के बहुचर्चित नाटक ‘द वैजाइना मोनोलॉग्स’ के मराठी अनुवाद ‘योनिचा मनाची गूज गोष्ठी’ को देखने का मौका मिला। ज्ञातव्य है कि यह नाटक बीसेक साल पहले लिखा गया था और अब तक तकरीबन पचास भाषाओँ में अनूदित हो चुका है। तब से यह लगातार खेला जा रहा है और माना जाता है कि अब तक दुनिया के एक सौ चालीस देशों में इसकी हज़ारों प्रस्तुतियां हो चुकी हैं और हर प्रस्तुति के बाद चर्चा-कुचर्चा और हंगामा इसके खाते में जुड़ते जाते हैं। भारत में भी यह एक सनसनी की तरह आया और कई जगहों पर तो इसके प्रदर्शन से पूर्व ही इसे प्रतिबंधित कर दिया गया। भारत में योनि एक वर्जित विषय है। इसके बावजूद कि शिव का लिंग और पार्वती की योनि अपनी समस्त अश्लीलता के साथ सार्वजनिक जीवन में मौजूद है, लेकिन चूंकि उसपर धर्म का मुलम्मा चढ़ा है इसलिए लोग उसके आगे सिर झुकाते हैं। दूध और जल चढ़ाते हैं। उसे सृष्टि का प्रतीक मानते हैं।

लेकिन यहां स्त्री अपनी योनि के बारे में बात करे तो यह तुरंत ही असहज करने वाली बात हो जाती है। बेशक अब तक पुरुष ही योनि और यौनिकता के बारे में बात करता रहा है और इसे प्रगतिशीलता माना जाता रहा है, क्योंकि यह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के भीतर काम करते माइंडसेट के हिसाब से कम खतरनाक रहा है। जबकि यही बात स्त्री कहे तो वह अधिक खतरनाक हो उठती है। असल में यह बात इस ओर इशारा करती है कि पुरुष अपनी सुविधा के अनुसार सामान्य अथवा अकादमिक दायरे में कोई बात कहे तो उसे जदीद और वाजिक तो माना जा सकता है, लेकिन उसका अनुसरण नहीं किया जा सकता। जबकि एक स्त्री अगर अपनी पीड़ा, अभाव, दुःख और अतृप्ति की बात करे तो दूसरी स्त्री या स्त्रियां बड़ी आसानी और भरोसे से उसका अनुसरण कर सकती हैं। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जहां धर्म ही स्त्री के लिए सबसे बड़ी बेड़ी हैं, वहां नियंता वर्ग इस बात से बखूबी वाकिफ है। इसके अनेक उदाहरण हैं। 

मसलन ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया में बीसवीं सदी के विश्वयुद्धोत्तर काल में जब पूंजीवादी समाज के लिए मातृत्व भार से मुक्त ‘सोसाइटी गर्ल्स’ की आवश्यकता हुई तो कंट्रासेप्टिव पिल्ज़ यानी बर्थ कंट्रोल टिकिया का अविष्कार हुआ। सत्तर के दशक में गर्ली ब्राऊन नामक अमरीकी स्त्री मातृत्व-मुक्ति का प्रतीक बनकर उभरी और जल्दी ही वह पूरी दुनिया पर छा गई। फिर तो अनचाहे गर्भ से बचने और अपनी योनि पर अपना अधिकार जताने की एक परंपरा ही चल पड़ी। इस परंपरा को स्त्रियों ने फलीभूत किया और इसने ‘लेडी चैटरली के प्रेमी’ वाली स्थिति से कुलीन वर्ग को काफी हद तक उबार लिया। अब कोनी चाहे तो कई प्रेमियों के साथ समय बिता सकती है, बशर्ते उसमें मातृत्व की कोई चाह न हो। लेकिन दुर्भाग्य से जैसे कोनी को अपने प्रेमी का बच्चा जनने की इच्छा है। उसी तरह अमरीकी समाज में स्त्री अपनी योनि का एकालाप भी सुनने-सुनाने पर उतर आई।

लेखिका ईव ईन्स्लर से जुड़े एक तथ्य के अनुसार जब वह किशोरी थी तो पांच वर्ष तक उसका पिता उसके साथ बलात्कार करता रहा और किसी को अपना दुःख न बता पाने की मनःस्थिति में उमड़ती-घुमड़ती उस किशोरी के सामने एक ऐसा समाज था जो योनि को लेकर अलग ही ढंग से कांशस था। एक तरह से समाज में योनि को लेकर जो नैतिकता थी, वह बहुत डरावनी थी और निजी जीवन का सच उससे भी अधिक भयावह था। कहां जाया जाए और वास्तव में क्या सच है इसके गहरे द्वंद्व ने उसे अलग-अलग स्थितियों की स्त्री के अपनी देह और यौनिकता संबंधी विचारों तक जाने को प्रेरित किया। यह एक तरह से पुरुष नियंत्रित उस समाज के भय से मुक्ति की एक कोशिश थी, जहां एक तरफ मनमुताबिक शुचिता की मांग थी तो दूसरी ओर बलात्कार था। नाटक में चार स्त्रियां हैं जो 17, 35, 50 और 50 से ऊपर हैं। असल में उम्र का यह दायरा किशोरी और पोस्ट मेनोपाज स्त्री का अपनी देह और यौनिकता के बारे में अनुभवों को दर्शक के सामने लाता है। मराठी प्रस्तुति ‘योनिचा मनाची गूज गोष्ठी’ में चारों स्त्रियां बारी-बारी से मंच पर आती हैं और इशारों तथा हाव-भाव से देश-दुनिया की तमाम बातें करती हैं, जो दरअसल यौन-व्यवहार, हिंसा और उत्पीड़न का एक वैश्विक तर्जुमा है। मसलन एक स्त्री मुस्लिम है और बताती है कि उसके धर्म में जिस तरह पुरुषों का खतना होता है, उसी तरह स्त्रियों का भी होता है। मध्यकालीन भारत में कबीर ने यह सवाल उठाया था कि मुसलमान होने के लिए खतना किया जाता है तो मुसलमानिन बनाने के लिए क्या किया जाता है? लेकिन बीसवीं शताब्दी के सामाजिक अध्ययनों में यह तथ्य सामने आया कि अफ़्रीकी देशों में औरतों का खतना होता है। किशोरावस्था से पहले ही लड़कियों के क्लिटरस अथवा भगनासा बड़ी बेरहमी से निकाल दिया जाता है, जिससे उन्हें यौनानंद की अनुभूति न हो। प्रजापिता ब्रह्माकुमारी नामक संस्था में भी कोई ऐसा उपाय किया जाता है, जो स्त्री को यौनानुभूतियों से विरत करके अध्यात्म की ओर प्रेरित करे। 

वर्ष 2017 में नोएडा में मंचित नाटक ‘द वैजाइना मोनोलॉग्स’ का एक दृश्य (तस्वीर साभार : दी हिंदू)

नाटक में एक स्त्री, जो कि मराठी निम्न मध्यवर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, का कहना है कि मैं अपनी योनि के बड़े-बड़े बालों को नहीं कटवाती हूँ क्योंकि मेरे मर्द को ऐसे ही पसंद है। यह बात वह उस स्त्री के कथन के उत्तर में कहती है जो मध्यवर्गीय है और उसको अपनी योनि साफ़-सुथरी रखना पसंद है। पूरा नाटक योनि के संबंध में स्त्री के अधिकारबोध और पुरुष साथी की पसंद के दबाव के जद्दोजहद की एक बिंदास और रंगकर्म की ‘शिष्ट’ दुनिया में एक ‘सड़कछाप भाषा और भावाभिव्यक्ति’ है।

इस नाटक को लेकर इतनी बातें करने का मेरा आशय सिर्फ इतना है कि यह जिस समस्या को अपने कथानक का आधार बनाता है, क्या वह किसी दूसरी युक्ति से लोगों में ऐसी ही उत्तेजना व्यक्त करती है? इस नाटक के अन्तर्निहित विषय में उत्पीड़न और हिंसा के अलावा स्त्री देह के स्त्री-विरोधी इस्तेमाल का एक प्रतिकार है, लेकिन चार वय की जो स्त्रियां हैं, वे अपने को योनि का रूपक बना कर पेश करती हैं। जाहिर है अगर स्त्रियां योनि जैसे रूपक में ढलेंगी तो भाषा और हाव-भाव भी बदलेंगे। ऐसे में क्या वे अंतर्कथाएं दर्शकों की संवेदना को उसी तरह छू सकती होंगी जो किन्हीं चरित्रों के बीच की रस्साकसी और द्वंद्वों से निकलकर छू सकतीं? यह नाटक मुंबई में प्रायः खेला जाता है और कतिपय मराठी दैनिकों में इसका विज्ञापन निकलता है। तमाम नाक-भौं सिकोडू प्रतिक्रियाओं और बंदिशों के यह काफी लोकप्रिय होता गया है? तो क्या मान लेना चाहिए कि स्त्री रंगकर्म की यह एक नई रंगत है और कथानकों और रंग-युक्तियों में गैरमामूली फेरबदल का समय आ चुका है? क्या दूर-दराज शहरों में होने वाले रंगकर्म, जहां स्त्री मंच पर अभी भी अपनी इच्छाओं को दिमाग से बाहर निकालते हुए बहिष्करण से भयभीत है, को गए-बीते समय की बात मान लेनी चाहिए? 

मुंबई में ही मीता वशिष्ठ कश्मीरी कवयित्री लालडेढ़ या लल्द्यह अथवा लल्लेश्वरी के जीवन पर सोलो करती रही हैं। लुबना सलीम और सीमा बिस्वास रविन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी ‘स्त्रीर पत्र’ को मंच पर लेकर आती रही हैं, लेकिन इन प्रस्तुतियों की वैसी चर्चा कभी नहीं हुई जैसी ‘योनिचा मनाची गूज गोष्ठी’ की सहज रूप से होती रही है। जबकि उपरोक्त दोनों ही नाटक अपने कथानकों में स्त्री जीवन और आज़ादी की उसकी चाह के मार्मिक बयान हैं। एक में समाज का बहिष्कार है तो दूसरे में घर से निष्क्रमण। लेकिन पितृसत्तात्मक व्यवस्था में चेरी बनकर अन्याय को बर्दाश्त करना नागवार है। रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कहानी तो सौ साल पहले लिखी गई थी, लेकिन आज भी वह मृणाल के रूप में स्त्री जीवन का एक मेटाफर बनी हुई है। मृणाल ही क्यों, उसकी जेठानी और उनकी छोटी बहन बिंदु का भी। आज भी जब उसका मंचन होता है तो ऐसी औरतें के बारे में एक बहस पैदा हो आती है जो गरीब माता-पिता की संतान होने के कारण एक साधारण खाते-पीते घर में गुलाम की तरह असूर्यस्पर्शा बनी रहती हैं और जिनकी कोई इच्छा नहीं बची रहती। जो भी बचा रहता है सिर्फ पति-पुरुष और पितृसत्ता। दुर्भाग्य से मृणाल बची रहती है और इसकी परिणति उसके घर से निकलने में होती है। श्रीक्षेत्र में निकली मृणाल के पत्र से मालूम होता है कि वह कविताएं लिखती है, लेकिन पंद्रह साल के वैवाहिक जीवन में उस घर का कोई भी यह नहीं जानता।

वह बस घर की मंझली बहू है और चूंकि सुन्दर है, इसलिए दूर-दुर्गम देहात से उसे ढूंढ कर लाया जाता है। लेकिन उसकी सुन्दरता भी भुला दी गई और यह तो किसी को पता ही नहीं कि मृणाल बुद्धिमान भी है। वह सोचती है और कुछ निर्णय भी ले सकती है। इस कथानक में सबसे बेधक प्रसंग बिंदु का है जो अपने चचेरे भाइयों के अत्याचार से त्रस्त बड़ी बहन के यहां आ गई, जो स्वयं रूपहीन है, लेकिन कुलीन है। जेठानी की रूपहीनता के कारण ही मृणाल को तलाशा गया है। बिंदु अपनी बड़ी बहन से भी अधिक रूपहीन है। काली-कलूटी लेकिन मृणाल से उसका स्नेह संबंध कुछ इतना प्रगाढ़ है कि उसे दशक भर दाम्पत्य के बीतने के बाद समझ में आता है कि मन में भी बसंत आता है। लेकिन अपनी बहन के घर में लोगों, यहां तक कि स्वयं अपनी सगी बड़ी बहन का व्यवहार अमानवीयता का चरम है। एक पागल से शादी कराये जाने और बचकर भाग आने की दो-तीन कोशिश के बाद एक दिन जलकर मर जाने वाली बिंदु को लेकर अपने परिवार और पति का व्यवहार मृणाल के लिए वह घर असह्य बना देता है। और अंततः वह घर से निकल पड़ती है। फिर कभी नहीं लौटने के लिए। 

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रंगकर्मियों/अभिनेत्रियों का ध्यान लगातार खींचने वाले इस कथानक में संपत्ति और प्राधिकार से वंचित संवेदनशील स्त्री का पलायन अथवा निष्क्रमण हमारे संवेदनहीन और स्वार्थी समाज और उसकी मूल्य व्यवस्था को अधिक तीव्रता से ख़ारिज करता है। केवल एक चिट्ठी को पूरी नाटकीयता से उसमें निहित सभी पहलुओं के साथ अभिव्यक्त करना एक बड़ी चुनौती है। 

सुषमा देशपांडे, सीमा भार्गव, सीमा कपूर, हीबा शाह, आशिमा भट्ट, नादिरा ज़हीर बब्बर, सरिता जोशी और रोहिणी हट्टंगड़ी जैसी मुंबई में सक्रिय रंगकर्मियों ने भी देश-विदेश के लेखकों की कृतियों को मंचन के लिए चुना और अनेक की प्रस्तुतियां लाजवाब हैं। सीमा भार्गव का एकल परफारमेंस ‘साग-मीट’ ऐसा ही एक जबर्दस्त चाक्षुस अनुभव है। 

लेकिन इन सब बातों के बावजूद कुछ सवाल ऐसे हैं जो इन तमाम चमकती हुई प्रस्तुतियों के बावजूद लगातार खड़े होते हैं कि फ़िलहाल स्त्री जीवन की चुनौतियां क्या हैं और क्या हमारा रंगकर्म उनकी तरफ मुखातिब हैं? अभी संबंधों के अवगुंठन और देह की आज़ादी के आह्वान से बाहर हमारा स्त्री जीवन रंगकर्म के कथानकों में किस प्रकार आ रहा है? क्या स्त्री रंगकर्मियों के सामने समकालीन जीवन के ताने-बाने की जटिल बनावट और बुनावट, उसकी पतनशील मूल्य व्यवस्था का नकार और नए जीवन का कोई ब्लूप्रिंट भी है अथवा वे कहीं से काट-कपटकर एक नया और लोकप्रिय पाठ बनाने की जुगत भर है। जिंदगी चारों ओर बिखरी हुई है और हर तरफ जीवन-विरोधी और षड्यंत्रकारी सत्ताएं भी सक्रिय हैं। स्वयं स्त्री जीवन में दलित और डायन होने की यातना और अपने मानवीय अधिकारों के लिए लड़ती हुई स्त्री को नेस्तनाबूद किये जाने की कथाएं हमारे रंगकर्म में कहां हैं? अभी तक चुप्पी के खिलाफ अनेक कथानक हैं, लेकिन ढेरों विपरीतताओं में लड़ने के लिए उठने और धधक कर ध्वस्त करने वाले कितने कथानक हैं? यहां एक और सवाल लाजिम है कि आज रंगकर्म अपने दर्शकों से कितना वाबस्ता है? उसका काम महज़ मनोरंजन है या झटका देकर उसे जगाना भी है?

बेशक संसाधन की किल्लत ने रंगकर्म को एक निराशाजनक माहौल में खड़ा कर दिया है फिर भी इस विशाल देश में अनेक भाषाओं और शहरों में बहुत सी रंगकर्मी सक्रिय हैं। अवसरानुकूल भूमिका बदल लेने वाले और डटकर अपनी प्रतिबद्धता के साथ रंगकर्म करने वाले दोनों तरह के लोग मौजूद हैं। फिर भी रंगकर्म और खासकर स्त्री रंगकर्म में एक लोकप्रियतावादी भटकाव साफ़ दीखता है। विषय में अन्तर्निहित मुद्दों और कहन की युक्तियों के बीच तालमेल को बिगाड़ने में सनसनीखेज मनोवृत्तियां बहुत घातक भूमिका निभा रही हैं। लगता है ज़िन्दगी का देखा हुआ दृश्य कहीं पीछे छूट गया है और आरोपित जीवन मंच पर विराजमान है। अब तक के अनुभवों से मुझे लगता है कि जब साधनसम्पन्न स्त्री सपने देखती है तो बाज़ार की ओर मुखातिब होती है और निम्नवर्गीय स्त्री सपने देखती है तो खेतों, खदानों और जंगलों में फ़ैल जाती है। इसे देखते हुए स्त्री-रंगकर्म के सामने एक कड़ी चुनौती है कि वह किस वर्ग की स्त्री के साथ खड़ा होना चाहेगा?

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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