इसमें कोई दो राय नहीं है कि जाति व्यवस्था की संरचना ने कुलीनों को सिंहासन उपलब्ध करवाया और बहुसंख्यक दलित-बहुजनों को हाशिये पर ले जाने में अहम भूमिका निभाई । इसकी अभिव्यक्ति साहित्य में अलग-अलग रूपों में हुई है। मसलन, दलित साहित्य बताता है कि इक्कीसवीं सदी में आधुनिक चेतना से लैस होने पर भी सवर्ण समाज, जाति के जामे को पहनना-ओढ़ना छोड़ नही सका है। दलित साहित्यकारों के पास जितने बौद्धिक औजार थे उनका उपयोग उन्होंने जाति व्यवस्था के भयंकर उत्पातों को सामने लाने के लिए किया है। हालांकि नई कहानी आंदोलन से जाति का प्रश्न काफी हद तक नदारद रहा है। उसमें मध्यमवर्गीय समाज की आकांक्षाओं, इच्छाओं और संत्रास की अभिव्यक्ति को तरजीह दी गई है। जाति व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी का तेजी से उभार दलित साहित्य की देन है आ। इस आलेख में दलित साहित्य के मील के पत्थर कहे जानेवाले लेखकों की उन कहानियों को केन्द्र में रखा गया है जो सामाजिक भेदभाव और जातिवादी मानसिकता की पड़ताल करती हैं। इस आलेख श्रृंखला के पहले भाग में पढ़ें ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों के बारे में
ओमप्रकाश वाल्मीकि : हाशियाकृत समाज के प्रतिनिधि कथाकार
- सुरेश कुमार
दलित साहित्य के मौजूदा स्वरूप की बात करें तो ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून, 1950-17 नवंबर, 2013) दलित साहित्य के विलक्षण और विरले कहानीकार रहे। इस कथा लेखक के ‘सलाम’ (2000), ‘घुसपैठिये’ (2003) और ‘छतरी’ (2013) तीन महत्वपूर्ण कहानी संग्रह प्रकाशित हुए हैं। जाति व्यवस्था की विद्रुपताओं और दलित अधिकारों की नुमाइंदगी ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियों के केंद्रीय विषय हैं। ‘सलाम’, ‘घुसपैठिये’, ‘यह अन्त नहीं, ‘मैं ब्राह्मण नहीं हूं’, ‘दिनेश जाटव उर्फ दिग्दर्शन’ और ‘ब्रह्मास्त्र’ ऐसी कहानियां हैं, जिनमें जातिवादी तंत्र और उसके रक्षकों की मानसिकता का रेशा-रेशा समाज के कैनवास पर रखा गया है।