ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून, 1950- 17 नवंबर, 2013) पर विशेष
हिंदी दलित साहित्य के भीतर पिछली सदी से दलित जीवन की दुश्वारियों के साथ ही जातिवादी गतिविधियों को बड़ी सूक्ष्म तरीके से दर्ज़ किया जा रहा है। आधुनिक हिंदी दलित साहित्य को भारतीय स्तर पर प्रतिष्ठा दिलाने वाले लेखकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि (30 जून, 1950- 17 नवंबर, 2013) का नाम अग्रणी पंक्ति में शुमार है। पिछली सदी के आठवें दशक से दलित साहित्य के निर्माण में उनकी अहम भूमिका रही है। उन्होंने अपनी रचनाशीलता और विमर्श के हवाले से अस्मितावादी वैचारिकी को गति देकर भारतीय समाज में दलित की स्थिति और उपस्थिती को बड़े ही शिद्दत से रेखांकित किया है। उनकी रचनाशीलता के विविध पहलुओं में सवर्ण पृष्ठभूमि के लोगों की जातिवादी मानसिकता को विभिन्न कोणों से रखने का प्रयास हुआ है। उनके लेखन ने बुद्धिजीवियों और समाज विज्ञानियों का ध्यान इस ओर खींचा हैं कि आजादी के बाद सवर्ण पृष्ठभूमि के बुद्धिजीवियों की ओर से जातिवाद को मिटाने के लिए जिन पहलक़दमियों और कवायदों को अंज़ाम दिया गया, वह नाकाफी साबित हुई हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि दलित साहित्य के भीतर आत्मकथा ‘जूठन’ और कविताओं के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। उनकी आत्मकथा ‘जूठन’ सन् 1999 में प्रकाशित हुई थी। यह आत्मकथा आजादी के बाद दलितों पर क्या गुजरी है और दलितों के प्रति सवर्णों का व्यवहार कितना असंवेदनशील रहा है, उस आख्यान को अनुभव और प्रमाणिकता के साथ प्रस्तुत करती है और आजादी की पहली किरण के बाद दलितों के साथ जो जातिगत और सामाजिक अन्याय हुआ, उसकी जीवंत दस्तावेज़ ‘जूठन’ है। ओमप्रकाश वाल्मीकि जिस दलित समुदाय से आते हैं, वह भारतीय समाज के सबसे अंतिम पायदान पर स्थिति है। इस समाज का पुश्तैनी पेशा सवर्ण समाज की जूठन और मल- मूत्र उठाना था।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जब छोटे थे तब उनकी मां सवर्णों के घर जूठन कमाने जाया करती थीं। उनके इस काम में हाथ बटाने के लिए वाल्मीकि जी के बड़े भाई और भाभी भी जाया करते थे। वे बताते हैं कि इसी जूठन को भंगी समुदाय के लोग दावत समझते थे। ओमप्रकाश वाल्मीकि बताते हैं कि दिन-रात-मर-खपकर हमारे पसीने की कीमत मात्र जूठन, फिर भी किसी को कोई शिकायत नहीं है। यह आजादी के बाद दलित समुदाय के जीवन का खौलता हुआ सामाजिक यथार्थ है, जिसको हिंदी साहित्य में लक्षित ही नहीं किया गया। ‘जूठन’ आत्मकथा बताती है कि आजादी के पूर्व और संविधान निर्माण की प्रक्रिया में दलित उत्थान के लिए जो तमाम वायदे किए गए थे, वे दिवास्वप्न और छलावा साबित हो रहे हैं।
जब आजादी मिली तब कहा गया था कि अब जातिवाद अंतिम सांसे गिन रहा है, और लोकतांत्रिक प्रणाली में किसी भी व्यक्ति के साथ सामाजिक और जातिगत भेदभाव नहीं होगा। यह बड़ी अफ़सोस की बात है कि संविधान प्रक्रिया में तमाम प्रावधानों के बावजूद सवर्ण पृष्ठभूमि के लोग जातिवाद की श्रेष्ठता से अभी भी मुक्त नहीं हो पाये हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी आत्मकथा में बताते हैं कि उनके एक मित्र कुलकर्णी थे, जो भ्रमवश उनको ब्राह्मण समझते थे। एक दिन ओमप्रकाश वाल्मीकि अपने मित्र कुलकर्णी के घर गए। वहां प्राध्यापक कांबले पहले से मौजूद थे। जब कुलकर्णी की मिसेज चाय लेकर आयीं तो ओमप्रकाश वाल्मीकि ने नोटिस किया कि कांबले के प्याले और कुलकर्णी के प्याला में समानता नहीं थी। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने लौटते समय कांबले से पूछा कि तुम्हारे लिए अलग प्याले में चाय क्यों आई थी? कांबले ने जवाब में देते हुये बताया कि मराठी ब्राह्मण वह भी पूना के ब्राह्मण महारों को अपने बर्तन छूने नहीं देते, इसलिए उनके अलग बर्तन रखे जाते हैं। उच्च कुलीन संविधान और विज्ञान की रोशनी में भी अपनी जातिगत श्रेष्ठता से मुक्त नहीं हुए है। सवर्ण पृष्ठभूमि की जातियों के लिए छुआछूत का बर्ताव करना उनके जीवन की शैली बन गई है। शास्त्रों और स्मृतियों से संचालित होने वाले वर्णधारी संविधान और लोकतंत्र वाली व्यवस्था में बहुजनों को हिकारत भरी दृष्टि से देखता है। इस आत्मकथा में प्रगतिशीलता की चादर ओढ़े कुलीन समाज को बेनकाब करते हैं।
दरअसल, भारतीय समाज का उच्च कुलीन तबका अपने स्वभाव में दलितों को लेकर काफी संकीर्ण और जातिवादी किस्म का होता है। उसे प्रगतिशील बनने के लिए अपने आचरण और व्याहर में काफी बदलाव लाने की जरूरत है।
दलित लेखन के भीतर यह बात बड़ी शिद्दत से आई है कि सामाजिक संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का बंटवारा सर्वसमावेशी मूल्यों के आधार पर नहीं, बल्कि जाति श्रेष्ठता को ध्यान में रखकर हुआ है। प्राय: देखने में अधिकांश संस्थाओं में निर्णायक की भूमिका में उच्चकुलीन लोग होते हैं, जिनका बहुजनों के प्रति नजरिया पूर्वाग्रह से भरा होता है। इसलिए शिक्षण संस्थानों के परिसरों में दलितों के साथ खूब भेदभाव किया जाता है। स्कूलों के भीतर वर्णधारी अध्यापक बहुजन छात्रों को बड़ी हिकारत भरी नज़र से देखते हैं। ‘जूठन’ में ऐसे अनेक प्रसंग है जिसमें वर्णधारी अध्यापकों का स्वभाव मानवीय और सर्वसमावेशी मूल्यों वाला नहीं रहा है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि की जितनी प्रसिद्भि आत्मकथाकार के तौर पर है, उतनी ही प्रतिष्ठा उन्हें कवि के तौर पर भी प्राप्त है। उन्होंने हिंदी दलित कविता को अपनी रचनाशीलता से असीम ऊंचाई और प्रतिष्ठा प्रदान की है । ‘सदियों का संताप’, ‘बस्स! बहुत हो चुका’ और ‘अब और नहीं’ कविता संग्रह दलित साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इन कृतियों की कवितायें दलित विमर्श के आलोक में जातिवाद के जोख़िम ग्रस्त इलाकों की खदबदाती और बजबजाती व्यवस्था के यथार्थ को बड़ी सूक्षमता के साथ रेखांकित करती है। ‘सदियों का संताप’ संग्रह में दलित जीवन की दुश्वारीयों का चित्रण करते हुए उन्होंने वर्ण-व्यवस्था पर बड़े ही मारक सवाल उठाए हैं। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी चर्चित कविता ‘ठाकुर का कुआं’ में सवाल उठाते हैं कि देश के भीतर दलित-बहुजन अब भी तमाम संसधनों और मूलभूत सुभिधाओं से वंचित हैं। सवर्ण पृष्ठभूमि की जातियों का अधिकांश संसधनों पर कब्जा और वर्चस्व है, जिसके चलते जमीन से लेकर संस्थाओं का लोकतांत्रिकरण नहीं हो पाया है। इसलिए बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में ओमप्रकाश वाल्मीकि को अपनी कविता के भीतर कहना पड़ा कि “बहुजनों के लिए इस देश में क्या?”
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ये ऐसे मारक सवाल हैं जिन पर अधिकांश नियंता और बुद्धिजीवी चुप्पी साध लेते हैं। दलित समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक क्षेत्र को सवर्ण पृष्ठभूमि की जातियां सीधे तौर पर नियंत्रित कर उन्हें केंद्र की भूमिका के बजाय हाशिये पर धकेलने के प्रयास में उनसे सामाजिक मनुष्य होने के रुतबा भी छीन लेती हैं। वर्णधारियों ने दलित समाज के हिस्से में घृणित पेशे भी जोड़ दिये थे। भंगी समुदाय के हिस्से में मैला उठाने और चमार जातियों के हिस्से में मेरे हुए पशुओं को उठाने काम आया था। ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी कविता ‘बस्स! बहुत हो चुका’ में मैला उठाने वाली प्रथा को चुनौती देकर वर्ण-व्यवस्था के खिलाफ़ विद्रोह करते नज़र आयें। इस कवि की अधिकांश कविताओं में मारक प्रतिरोध की गरमाहट आकार लेती है और इसी प्रतिरोध की ऊर्जा के बल पर वर्णवाद की बुनियाद को चुनौती पेश की जाती है। पिछली सदी के सवर्ण पृष्ठभूमि से आए कवियों ने नई कविता के भीतर दलित जीवन के परिसर को अलक्षित छोड़ दिया था। दलित जीवन की दुश्वारियाँ, उनकी छटपटाहट और उनकी पीड़ा को नई कविता-आंदोलन के भीतर समझने का प्रयास नहीं हुआ। पिछली सदी के आठवें दशक में ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में दलित जीवन के अनुभवों का विराट संसार प्रकट होता है, जिसमें दलित जीवन के तमाम अलक्षित पहलुओं को बड़ी सिद्द्त के साथ सामाजिक पटल पर रखा गया। ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविताओं के भीतर जातिवादी परिसरों के विरुद्ध रोष और प्रतिरोध प्रकट करने में कभी भी कोताही नहीं बरती। वे अपनी कविताओं के भीतर सवर्णवादी मानसिकता को बहुकोणीय तरीके से सामने लाने का प्रयास करते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि ने कविता, कहानी और आत्मकथा के अतिरिक्त आलोचनात्मक और वैचारिक लेखन भी किया था। उन्होंने ‘दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र’,‘मुख्यधारा और दलित साहित्य’ और ‘दलित साहित्य : अनुभव संघर्ष और यथार्थ’ दलित साहित्य और चिंतन को गति देने के लिए आलोचनात्मक किताबें लिखी। उन्होंने दलित साहित्य की पद्धति और अनुशासन को नया आयाम देने के लिए दलित साहित्य का सौंदर्य शास्त्र लिखा। इस किताब में उन्होंने दलित रचनाशीलता की कसौटी और प्रतिमान को निर्धारित करने का प्रयास किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि का मानना था कि दलित साहित्य दलित साहित्य के बिम्ब, प्रतीक, भाषा और शिल्पगत प्रवृत्तियां मुख्यधारा के सौंदर्य शास्त्र की तर्ज पर नहीं हो सकती हैं। उनका मत था कि मुख्यधारा के साहित्यिक सौंदर्य शास्त्र में सौंदर्य, कल्पना, बिंब और प्रतीक को प्रमुख माना गया है, जबकि सौंदर्य के लिए सामाजिक यथार्थ एक विशिष्ट घटक है। दलित साहित्य में सामाजिक यथार्थ, सामाजिक विसंगतियां, अनुभव की विराटता और भोगे हुये यथार्थ को रचना प्रक्रिया के केंद्र में रखा जाता है। इसीलिए दलित साहित्य की भाषा, बिम्ब प्रतीक भावबोध मुख्यधारा साहित्य से अलग नज़र आते हैं।
ओमप्रकाश वाल्मीकि का वैचारिक लेखन दलित साहित्य की चौहद्दी का विस्तार करता है। उनके लेखन में दलित समाज की संवेदना और पक्षधारिता बड़ी गहरी और साफ़ तौर पर दिखाई देती है और उनके साहित्य के दर्पण में दलित, शोषित और वंचित जनों की धड़कनें बड़ी शिद्दत से सुनी जा सकती हैं। इस प्रकार, ओमप्रकाश वाल्मीकि अनुपस्थित होकर भी हमारे बीच अपने लेखन और मारक विमर्श के हवाले से उपस्थित हैं। उनका लेखन और विमर्श हाशिये पर खदेड़ दिए गए नागरिकों के हकों की लड़ाई में हमें रोशनी दिखाने का काम करता है ।
(संपादन : नवल/अनिल)
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