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उत्तर प्रदेश चुनाव : वर्तमान के आलोक में राजनीतिक बिसात और बहुजन समाज

हाल में मायावती का यह बयान भी गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा है, कि अगर वे सत्ता में आती हैं, तो परशुराम की विशाल मूर्ति लगवाएंगीं। इससे जाहिर होता है कि उनकी प्राथमिकता में बहुजन समाज नहीं, बल्कि ब्राह्मण समाज है। वहीं सपा सुप्रीमो भी ऐसा ही राग अलाप रहे हैं। बता रहे हैं कंवल भारती

चंद माह बाद होने वाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनावों में बहुजन समाज की राजनीतिक स्थिति क्या होगी और किस दल की सरकार बनेगी, ये अब अनसुलझे सवाल नहीं लग रहे हैं। प्रदेश के राजनीतिक हालात जितने आज साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं, इससे पहले कभी दिखाई नहीं दिए थे। परिणाम जानने के लिए अब माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। अगर मैं परिणाम बता दूं, तो शायद इस लेख को पढ़ने की रूचि आपके अंदर खत्म हो जाए। आपकी जिज्ञासा बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि वर्तमान समय की दलीय स्थिति का जायजा ले लिया जाय। 

कामयाब है भाजपा

जिस राजनीतिक उद्देश्य से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने बहुजन जातियों का विभाजन किया था, उसमें उसे पूर्ण सफलता मिली है। इस वर्ग-विभाजन के अनुसार चमार और जाटव जाति को छोड़कर अन्य सभी अनुसूचित (दलित) जातियां अति या महादलित जातियां हैं। ये महादलित जातियां भाजपा के साथ हैं। इसी तरह यादव को छोड़कर अन्य सभी पिछड़ी जातियां महापिछड़ा वर्ग में शामिल हैं। यह महापिछड़ा वर्ग भी भाजपा के साथ है। इस तरह चमार और यादव को छोड़कर लगभग संपूर्ण बहुजन समाज भाजपा के हिंदुत्व से जुड़ा हुआ है और वह एक बार फिर भाजपा को वोट देने जा रहा है। इस बहुसंख्यक वर्ग का भाजपा से मोह-भंग होने की अभी निकट भविष्य में कोई संभावना नहीं दिख रही है। इस वर्ग के मस्तिष्क को रोजी-रोटी, चिकित्सा और शिक्षा के सवाल परेशान नहीं करते हैं, बल्कि राष्ट्रवाद, मंदिर और हिंदू-मुस्लिम के सवाल ज्यादा उद्वेलित करते हैं। यही कारण है कि बेरोजगार शिक्षित युवकों के द्वारा किये गए विरोध-प्रदर्शनों के बावजूद उनमें से अधिकांश ने भाजपा को ही वोट दिया। इसका एक कारण यह भी है कि इस वर्ग का राजनीतिक नेतृत्व भाजपाई है, जो इन वर्गों में उग्र हिंदुत्व और मुसलमानों के प्रति आक्रामक नफ़रत भरने का काम करता है।

बसपा की स्थिति

बहुजन समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली उत्तर प्रदेश की दूसरी राजनीतिक पार्टी बहुजन समाज पार्टी (बसपा) है, जो तीन बार भाजपा के साथ गठबंधन करके सरकार बना चुकी है। इस प्रकार भाजपा के साथ उसका पुराना रिश्ता है। पिछले चुनावों में भी और अभी हाल के पंचायत चुनावों में भी उसने भाजपा को ही लाभ पहुंचाने की रणनीति खेली थी। हाल में मायावती का यह बयान भी गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा है, कि अगर वे सत्ता में आती हैं, तो परशुराम की विशाल मूर्ति लगवाएंगीं। इससे जाहिर होता है कि उनकी प्राथमिकता में बहुजन समाज नहीं, बल्कि ब्राह्मण समाज है। इतना ही नहीं, बसपा ने बहुजन समाज के साथ सरकार के अन्याय और सवर्णों के अत्याचारों के विरुद्ध भी कोई विरोध-प्रदर्शन नहीं किया। एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर) के खिलाफ भी कोई आवाज नहीं उठाई, जबकि उसके विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए थे। हालांकि अब बसपा के साथ बहुजन के नाम पर केवल चमार और जाटव समाज ही जुड़ा रह गया है, जो आगामी चुनावों में अगर बसपा को वोट देता है, तो वह अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा को ही वोट देगा। इस प्रकार कहना न होगा कि आगामी चुनावों में चमार और जाटवों के द्वारा बसपा को दिए गए वोटों से भाजपा का ही लाभ होने वाला है।

राम बनाम परशुराम की राजनीति : सपा प्रमुख अखिलेश यादव, परशुराम की प्रतिमा और बसपा प्रमुख मायावती

सपा का हाल

समाजवादी पार्टी (सपा) केवल नाम से समाजवादी है, वैचारिक रूप से समाजवाद से उसके नेताओं का दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। मुलायम सिंह यादव घोषित रूप से आंबेडकर-विरोधी हैं और उनकी प्रतिमाओं को गिराने की बात करते रहे हैं। पिछले चुनावों में अखिलेश यादव ने भले ही सत्ता के लिए मायावती से गठबंधन कर लिया था, परन्तु उनकी छवि दलित-समर्थक की कभी नहीं रही। उनके साथ दलित वर्ग जुड़ा भी नहीं है। सपा का वोट बैंक यादव और मुसलमान हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की संख्या अधिक होने की वजह से राजनीतिक रूप से सपा की स्थिति बसपा के मुकाबले बेहतर है। हालांकि मायावती की तरह सपा-प्रमुख अखिलेश यादव की लालसा भी परशुराम की मूर्ति लगवाने की है। इस तरह उनकी प्राथमिकता में भी यादवों और मुसलमानों से ज्यादा ब्राह्मण हैं। सपा और बसपा दोनों दलों सुप्रीमों के दिमाग में जो बात नहीं बैठ पा रही है, वह यह है कि भाजपा के सिवा कोई दूसरी पार्टी ब्राह्मणों की अपनी नहीं हो सकती। ऐसी कोई नई चीज सपा और बसपा के पास नहीं है, जो वे भाजपा से ज्यादा ब्राह्मणों को दे सकते हैं? भाजपा ने देश का पूरा शासन ब्राह्मणों के हाथों में दे रखा है। सपा और बसपा क्या दे सकते हैं? राजनीतिक रूप से सपा की स्थिति इतनी मजबूत नहीं है कि वह सत्ता में वापसी कर ले। सपा ने महादलितों और महापिछड़ों दोनों वर्गों के हित में कोई ऐसी राजनीतिक जागरूकता का परिचय नहीं दिया, जिससे यह वर्ग सपा को वोट देने की सोचे? सपा ने भाजपा और आरएसएस के आक्रामक हिंदुत्व के खिलाफ कोई जनांदोलन खड़ा नहीं किया और ना ही उसने मुसलमानों के प्रति भाजपा की नफरती राजनीति के विरुद्ध हिंदुओं को जागरूक करने का वैचारिक अभियान चलाया। यहां तक कि उसने समाजवाद के प्रति भी गरीबों में कोई ललक पैदा नहीं की। उसने समाजवाद के हित में और पूंजीवाद के विरोध में कोई जमीनी लड़ाई नहीं लड़ी। हालांकि यह सच है कि भाजपा और सपा के बीच चुनावों में कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में कड़ा संघर्ष होगा, पर यह संघर्ष सपा को सत्ता नहीं दिला सकता।

आम आदमी पार्टी की संभावनाएं

आम आदमी पार्टी (आप) ने भी उत्तर प्रदेश में अपनी राजनीतिक शक्ति बढ़ाने की कवायद शुरू कर दी है। प्रदेश के चुनावों में इस बार अगर वह सब पर नहीं, तो कुछ सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर सकती है। प्रदेश के आप प्रभारी-सांसद संजय सिंह और आप प्रदेश अध्यक्ष सभाजीत सिंह के प्रयासों से आप की शाखाएं जिले-जिले में कायम हो रही हैं और आप की सदस्यता में भी विस्तार हो रहा है। हालांकि विधानसभा के चुनावों में उसे सरकार बनाने लायक सीटें नहीं मिलेंगी, परंतु दो-चार प्रतिशत वोट हासिल करके वह अपनी राजनीतिक उपस्थिति दर्ज करा सकती है। सवाल है कि क्या बहुजन समाज के वे लोग, जो विकल्प चाहते हैं, आप को पसंद कर सकते हैं? हालांकि आप भी एक दक्षिणपंथी पार्टी है, और उसके आने से व्यवस्था में कोई खास बदलाव नहीं होने वाला है, फिर भी हिंदू-मुस्लिम नफ़रत और आक्रामक हिंदुत्व पर वह लगाम लगा सकती है।

अभी हाल में आप प्रदेश अध्यक्ष ने घोषणा की है कि अगर उत्तर प्रदेश में आप की सरकार बनती है, तो 300 यूनिट बिजली मुफ्त दी जाएगी। यह लोक-लुभावन नारा है। मुफ्त बिजली देने का मतलब है कि आप पार्टी उस सिस्टम को ठीक नहीं करेगी, जिसकी वजह से प्रदेश में बिजली सबसे मंहगी है। वह बिजली का निजीकरण नहीं रोकेगी, जो योगी की सरकार कर चुकी है। साथ ही, जो भयंकर बेरोजगारी प्रदेश में भाजपा सरकार की नीतियों के कारण फैली है, और जो लाखों लोगों की नौकरियां कोविड काल में खत्म हुई हैं, यह समस्या भी इस मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी या अन्य सुविधाएं मुफ्त दे देने से फिर भी यथावत रहने वाली हैं।

क्या मुफ्त सुविधाएं बहुजन समाज की जरूरत है? बिल्कुल नहीं। बहुजन समाज की जरूरत उसका सशक्तिकरण करना है। आरएसएस और भाजपा की ब्राह्मणवादी और समरसतावादी नीतियों ने बहुजन समाज के शैक्षिक और आर्थिक विकास को रोक कर उनको कमजोर करने का काम किया है। इसलिए आप पार्टी को बहुजनों के सशक्तिकरण के लिए काम करने का आश्वासन देना होगा।

कांग्रेस की उम्मीदें 

उत्तर प्रदेश में निस्संदेह कांग्रेस की स्थिति सबसे कमजोर है। जबसे कांशीराम ने बहुजनों को बसपा का विकल्प दिया, तभी से उसका द्विज वोट भाजपा में चला गया, मुसलमान सपा में चले गए और बहुजनों का वोट बसपा से जुड़ गया। अब कांग्रेस के पास कोई अपना वोट बैंक नहीं है। हालांकि विपक्ष के रूप में राहुल गांधी एक साहसी और दमदार नेता हैं। वे एक मात्र नेता हैं, जो आरएसएस और भाजपा की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लगातार बोलते रहते हैं। परंतु वे सफल इसलिए नहीं हो पा रहे हैं, कि उनके सलाहकार ब्राह्मणवादी और सामंतवादी विचार के कांग्रेसी हैं, जो उन्हें चुनावों में मंदिर-मंदिर घुमाते हैं, गंगा में डुबकियां लगवाते हैं और उनका जनेऊ दिखवाते हैं, ताकि द्विज वर्ग खुश होकर कांग्रेस में लौट आए। इस कर्मकांडी आडंबर का मतलब ब्राह्मणों को यह बताना होता है, कि अगर वे कांग्रेस में आते हैं, तो कांग्रेस ब्राह्मणवाद की ही नीतियों पर चलेगी, और उन्हें निराश होना नहीं पड़ेगा। लेकिन यह कर्मकांड बहुजन समाज को क्या दे सकता है? बहुजन क्यों इससे प्रभावित होने लगे? कुछ प्रतिशत द्विज अगर कांग्रेस में लौट भी आए, तो भी कांग्रेस सत्ता में नहीं आने वाली। कांग्रेस को सही कामयाबी तभी मिलेगी, जब उससे मुस्लिम और बहुजन समाज जुडेगा। यह तब होगा, जब ये नेता बहुजन समाज में नेतृत्व पैदा करेंगे और भाजपा के आक्रामक हिंदुत्व के शिकंजे से बहुजनों को निकालने के लिए उन्हें जागरूक करेंगे।

बहुजन समाज को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि उनके सशक्तिकरण का बेहतर काम कांग्रेस की सरकारों ने ही किया था। आज जो दलित-पिछड़ी जातियों में एक सुशिक्षित और संपन्न मध्यवर्ग दिखाई देता है, वह कांग्रेस की सरकारों की ही देन है। याद कीजिए, अगर कांग्रेस की सरकार प्रोफ़ेसर थोरात को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का अध्यक्ष न बनाती, तो क्या बहुजन छात्रों के लिए एमफिल और पीएचडी करने का रास्ता खुल पाता और क्या वे विश्वविद्यालयों में प्रोफ़ेसर बन पाते? क्या भाजपा की सरकार ने बहुजनों के लिए वह रास्ता बंद नहीं कर दिया? यह भी उल्लेखनीय है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) का निर्माण भी कांग्रेस की सरकार ने गरीब और कमजोर वर्गों के परिवारों के बच्चों को कम फीस में उच्च शिक्षा सुलभ कराने के मकसद से किया था। कमजोर परिवारों के हजारों बच्चों ने इस विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा का लाभ उठाया है। आज भाजपा सरकार कमजोर वर्गों के लिए बने इसी विश्वविद्यालय को समाप्त करने पर आमादा है, और सिर्फ इसलिए कि यह विश्चविद्यालय बहुजन समाज को सशक्त बनाने का काम करता है।

एक विकल्प चन्द्रशेखर आज़ाद की पार्टी का भी है। उस पर भी विचार किया जा सकता है। लेकिन चन्द्रशेखर अगर कांग्रेस से गठबंधन करते हैं, तो यह ज्यादा सार्थक कदम होगा। बहुजन समाज को उससे जुड़ने की जरूरत है। 

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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