h n

रामपुर में कंवल भारती के साथ एक दिन

कंवल भारती जिनके विचारों और लेखन से असहमत हैं या जिनकी वैचारिकी एवं संवेदना को खारिज करते हैं, उन्हें भी अपने अध्ययन में शामिल रखते हैं। उनकी लाइब्रेरी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह जैसे लेखकों की किताबें आपको मिल जाएंगीं, जिन्हें कंवल भारती ने पढ़ रखा है। बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ व अनिल वर्गीज

उत्तर प्रदेश का रामपुर अपनी भव्य और ऐतिहासिक रज़ा लाइब्रेरी के लिए जाना जाता है परन्तु इस छोटे-से शहर की हमारी यात्रा (जिसमें फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार भी शामिल रहे) में हमने अपना अधिकांश समय कंवल भारती की छोटी-सी लाइब्रेरी में बिताया। यह लाइब्रेरी उनका अध्ययन कक्ष भी है और यहीं वे मिलते हैं अपने मेहमानों से, जिनमें से अधिकांश उनकी तरह लेखक होते हैं। लाइब्रेरी में चारों ओर पुस्तकों और फाइलों के ढेर हैं और वहीं हैं उनके उन शोधों के नतीजे, जो कई पुस्तकें का आधार बन सकते हैं। यही वह जगह है, जहां से उनका विपुल लेखन उपजता है और जहाँ समाज, राजनीति, संस्कृति और लेखन की दुनिया पर उनकी तीखी टिप्पणियां जन्म लेतीं हैं।

वे अपने दिन का बड़ा हिस्सा लेखन कर्म में बिताते हैं। परन्तु इसके बीच भी उनकी बीमार पत्नी, सबसे बड़े पुत्र और उनका परिवार, जिसमें उनके एक पोता और एक पोती शामिल हैं, से वे दूर नहीं होते। लाइब्रेरी को घर के बाकी हिस्सों से जोड़ने वाले दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है। कंवल भारती घुटने में दर्द के कारण चलने-फिरने में परेशानी अनुभव करते हैं। जब भी उन्हें कोई काम होता है, वे लाइब्रेरी से ही अपने पुत्र और घर के बच्चों को पुकारते हैं और तुरंत उनकी सेवा में कोई न कोई हाज़िर हो जाता है। शायद परिवार और समाज और उनकी खुशियों और ग़मों से उनका जुड़ाव ही उनके लेखन को वास्तविकता के इतने नज़दीक बनाता है। 

उनका बचपन रामपुर के कैथ का पेड़ नामक एक दलित मुहल्ले में बीता, जहां मजदूर रहते थे। वे न तो अपने पिता भगवानदास और ना ही अपने दादा छोटेलाल जाटव से कभी यह पूछ पाए कि वे लोग मूलतः कहाँ से रामपुर आये थे। एक नाले के दोनों तरफ फैली इस बस्ती की तन्हाई में पुस्तकें उनकी अच्छी दोस्त बन गईं। परन्तु जिस दुनिया की बातें वे किताबें करतीं थीं, उनमें कंवल भारती और उनके लोगों की थी ही नहीं। उन्होंने अपनी आवाज की तलाश की, परन्तु उन्हें वह आवाज नहीं मिली और तब उन्होंने स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए लिखना शुरू कर दिया। एक लेखक और अध्येता बनने में कंवल भारती की रामपुर ने काफी मदद की। उनके स्कूल शिक्षक मुसलमान थे और उन्होंने उनके साथ कभी छुआछूत का व्यवहार नहीं किया। पत्रकारिता में उनके शुरूआती दिनों में महेंद्र प्रसाद गुप्ता उनके पथ-प्रदर्शक थे। गुप्ता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े हुए थे परन्तु रामपुर के मुसलमानों के साथ मिलते-बैठते उन्हें यह अहसास हुआ कि जाति और छुआछूत से मुक्त दुनिया का निर्माण संभव है और उन्होंने संघ को अलविदा कह दिया। 

अपने अध्ययन कक्ष में कंवल भारती

साहित्यिक समालोचना और सामाजिक विषयों पर लेखन शुरू करने के बाद भी कंवल भारती मूलतः पत्रकार ही बने रहे और जातिवादी तथा सामंती समाज को जानना-समझना उन्होंने बंद नहीं किया, चाहे फिर वह उत्तर प्रदेश सरकार के समाज कल्याण विभाग में उनका कार्यकाल रहा हो या सेवानिवृत्ति के बाद का काल। जातिवाद और सामंतवाद के पीड़ित के बतौर इन सामाजिक बुराईयों का उनसे बेहतर समालोचक भला कौन हो सकता था।  

परन्तु वे सब में दोष निकालने वाले व गुस्से से भरे व्यक्ति नहीं हैं। वे उन लोगों के योगदान की भी सराहना करने में कोई संकोच नहीं करते, जिनके वे कटु निंदक हैं – जैसे रामपुर के समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान, जो इन दिनों भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों में जेल में हैं। कुछ वर्षों पहले भारती को खान का कोपभाजन बनना पड़ा था क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया पर यह दावा किया था कि खान ने एक मदरसे की ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया है। आज़म खान ने रामपुर पर अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने वहां सडकें बनवाईं, एक विश्वविद्यालय की स्थापना की और एक मॉल और एक रिसोर्ट भी बनवाया। उन्होंने शहर के ऐतिहासिक दरवाज़ों को भी बदल दिया। लेकिन इसके साथ कंवल भारतीय तहेदिल से यह स्वीकार करते हैं कि मुस्लिम नाई जाति के आज़म ने स्थानीय राजनीति की लगाम नवाबी कुलीनों के बीच से निकाल कर आम जनता के बीच लाए।

वे नई कहानी आंदोलन के आलोचक हैं। परन्तु वे इस आंदोलन के पुरोधाओं में से एक राजेंद्र यादव की ‘हंस’ का प्रकाशन पुनः शुरू करने के लिए प्रशंसा करते हैं। उनका कहना है कि ‘हंस’ के संपादक के रूप में राजेंद्र यादव का योगदान अविस्मरणीय है।  

दरअसल, कंवल भारती जिनके विचारों और लेखन से असहमत हैं या जिनकी वैचारिकी एवं संवेदना को खारिज करते हैं, उन्हें भी अपने अध्ययन में शामिल रखते हैं। उनकी लाइब्रेरी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल, महावीर प्रसाद द्विवेदी, राम विलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह जैसे लेखकों की किताबें आपको मिल जाएंगीं, जिन्हें कंवल भारती ने पढ़ रखा है। साथ ही, वे विश्व साहित्य पर भी अपनी निगाह बनाए रखते हैं। इन सबका प्रभाव उनकी समालोचनाओं, विमर्शों, अनुवादों तथा रागिनियों में भी अनायास परिलक्षित होता है। 

लंबे समय से कंवल भारती को पढ़ते हुए, सुनते हुए और कुछ मुलाकातों में यह धारणा बनी थी कि उनका जीना-मरना और ओढ़ना-बिछौना सबकुछ लेखन ही है। बीते 8 अगस्त, 2021 की लंबी मुलाकात और निरंतर संवाद के बाद इस धारणा की पूरी तरह पुष्टि हुई। उनकी समृद्ध लाइब्रेरी, किताबों के प्रति अटूट प्यार और लिखने की इतनी योजनाएं (जिसके लिए कई जिंदगी कम पड़े) सबकुछ इसकी गवाही दे रहे थे।

कंवल भारती के लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनके लेखन के केंद्र में हर तरह के अन्याय, शोषण-उत्पीड़न का प्रतिवाद और प्रतिरोध है और अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की जड़ों की तलाश की निरंतर कोशिश। फुले, पेरियार और डॉ. आंबेडकर की तरह अन्याय का कोई भी रूप उन्हें स्वीकार नहीं है। वे साफ शब्दों में कहते हैं कि “ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद इस देश के सबसे बड़े दुश्मन हैं और अन्याय के सभी रूपों की जड़ें इसी में निहित हैं और इन दोनों का विनाश करके ही न्याय, समता और बंधुता आधारित भारत का निर्माण किया जा सकता है।” वे एक लोकतांत्रिक और समाजवादी भारत का स्वप्न देखते हैं। हमारी आठ घंटे की मुलाकात में भी उन्होंने इसे पुरजोर तरीके से रेखांकित किया।

खास बात यह कि एक तरफ वे गद्य के जरिए गंभीर वैचारिक लेखन करते हैं, तो दूसरी तरफ खुद को लोक विधा रागिनी में निरंतर अभिव्यक्त करते रहते हैं। रागिनी एक पद्यात्मक लोक विधा है। अपनी रागिनियों में भी वह समतामूलक समाज का ताना-बाना बुनते हैं। 

सच है कि आधुनिक हिंदी साहित्य में जिन लोगों ने हिदुत्वादी या यूरोपीय नकल आधारित साहित्य के बरक्स हिंदी में भारतीय जड़ों की जनपरक साहित्य की नींव को मजबूत किया है, आगे बढ़ाया उसके शीर्ष नामों में एक कंवल भारती भी हैं। वे बहुजन-श्रमण पंरपरा के एक बड़े लेखक हैं, जो भारत की एकमात्र जनपधर परंपरा है। उन्हें सतहीपन पसंद नहीं हैं, वे जिनके विचारों के घोर विरोधी हैं और जिनकी संवेदना को खारिज करते हैं, उनके भी गहन और व्यापक अध्ययन की तारीफ करते हैं, चाहे प्रछन्न हिंदुत्ववादी वामपंथी रामविलास शर्मा ही क्यों न हों।

वे देश-दुनिया के उन लेखकों की परंपरा में हैं, जिनके लिए लेखन ही जिंदगी है। शेष सबकुछ इस जिंदगी को चलाने का साधन मात्र है। वे उन लेखकों में नहीं है, जिनके लेखन के केंद्र में शोहरत, व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और कई बार पैसा होता है। वे न ही पुरस्कार पाने के लिए लिखते हैं और ना ही किसी व्यक्ति विशेष या समूह विशेष की खुशामद करने के लिए ।

फिर भी एक लेखक जब अपने लेखन की समुचित सराहना हासिल नहीं होती है, तो कभीकभी उसके भीतर आक्रोश और नैराश्य की भावना भी जन्म लेती है, जो कभीकभी उसे व्यक्तिगत तौर पर कटु और प्रतिक्रियावादी भी बना देती हैयह कभीकभी कंवल भारती में भी दिखता है, लेकिन फिर भी वे खुद को समय रहते संभाल लेते हैंयह बड़ी बात है।

बहरहाल, कंवल भारती जैसे लेखक की एक सबसे बड़ी कमजोरी है यह है कि वे उस दक्खिन टोले के हैं, जिस टोले के डॉ. आंबेडकर थे। जब डॉ. आंबेडकर जैसे महान दार्शनिक-चिंतक और लेखन को स्वीकार करने में उत्तर टोले वाले आज तक तैयार नहीं है, फिर कंवल भारती को वे कैसे आसानी से स्वीकार कर लेंगे, क्योंकि आज भी उत्तर टोले का दक्खिन टोले पर पूरा वर्चस्व है। भले ही दक्खिन टोला प्रतिवाद और प्रतिरोध कर रहा हैं और हिंदी का श्रेष्ठतम साहित्य रच रहा है।

(संपादन : नवल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

फारवर्ड प्रेस की किताबें किंडल पर प्रिंट की तुलना में सस्ते दामों पर उपलब्ध हैं। कृपया इन लिंकों पर देखें 

मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया

बहुजन साहित्य की प्रस्तावना 

दलित पैंथर्स : एन ऑथरेटिव हिस्ट्री : लेखक : जेवी पवार 

महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

सिद्धार्थ/अनिल

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है। अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक हैं।

संबंधित आलेख

कुठांव : सवर्ण केंद्रित नारीवाद बनाम बहुजन न्याय का स्त्री विमर्श का सवाल उठाता उपन्यास
अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास ‘कुठांव’ हमें यही बताता है कि बहुजन और पसमांदा महिलाओं का संघर्ष सिर्फ पुरुषों से नहीं है, बल्कि वह उस...
‘जाति का विनाश’ में संतराम बीए, आंबेडकर और गांधी के बीच वाद-विवाद और संवाद
वर्ण-व्यवस्था रहेगी तो जाति को मिटाया नहीं जा सकता है। संतराम बीए का यह तर्क बिलकुल डॉ. आंबेडकर के तर्क से मेल खाता है।...
यात्रा संस्मरण : जब मैं अशोक की पुत्री संघमित्रा की कर्मस्थली श्रीलंका पहुंचा (अंतिम भाग)
चीवर धारण करने के बाद गत वर्ष अक्टूबर माह में मोहनदास नैमिशराय भंते विमल धम्मा के रूप में श्रीलंका की यात्रा पर गए थे।...
जब मैं एक उदारवादी सवर्ण के कवितापाठ में शरीक हुआ
मैंने ओमप्रकाश वाल्मीकि और सूरजपाल चौहान को पढ़ रखा था और वे जिस दुनिया में रहते थे मैं उससे वाकिफ था। एक दिन जब...
When I attended a liberal Savarna’s poetry reading
Having read Om Prakash Valmiki and Suraj Pal Chauhan’s works and identified with the worlds they inhabited, and then one day listening to Ashok...