देश में इन दिनों जनसंख्या नीति को लेकर बहस चल रही है। सामान्य तौर पर जनसंख्या वृद्धि के लिये अमूमन अशिक्षा, अंधविश्वास और धार्मिक मान्यताओं को जिम्मेदार ठहराया जाता है, लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण दलित-बहुजनों में असुरक्षाबोध है। खास बात यह कि कानून से पहले सरकारों को उन हालात पर विचार करना चाहिए जिनके कारण उनके मन में यह बोध कायम रहता है।
दरअसल, जैव उद्विकास का चार्ल्स डार्विन का सिद्धांत ‘प्रजातियों का प्राकृतिक चयन’ और ‘स्वस्थतम की उत्तरजीविता’ (सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट) पूरी तरह से दलित-बहुजन समाज के लोगों पर लागू होती है। यही कारण है कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों, समुदायों में अधिक बच्चे पैदा करने का चलन है। जहाँ पैदा होने के साथ ही बच्चे का प्रकृति के साथ संघर्ष शुरु हो जाता है और उचित इलाज और ज़रूरी जीवनरक्षक संसाधनों के अभाव में प्रकृति द्वारा यह चयन किया जाता है कि कौन-सा बच्चा जिंदा रहेगा, कौन नहीं। जैसे कि दलित बहुजनों वर्ग के बहुतायत बच्चे ‘न्यूमोनिया’ और ‘लू’ से मर जाते हैं। जो बच जाते हैं वो आगे कुपोषण की आग में झुलसते हैं।
जिनके अस्तित्व के लिए जरूरी है दाे से अधिक बार प्रसव पीड़ा झेलना
उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले की ढेलहा पहसीं निवासी 36 वर्षीय अनारकली बताती हैं कि उनके चार बच्चे जन्म लेने के बाद मर गये। इनमें से तीन बच्चे एक साल के भीतर मर गये। जबकि चौथा बच्चा 8 साल का होकर बीमारी से मर गया। कमजोरी के कारण अनारकली को तीन बार गर्भपात हो गया। वर्तमान में उनके तीन बच्चे हैं, जिनमें दो बेटियां और एक बेटा है।
वहीं कटेहरी गांव हँड़िया जिला इलाहाबाद निवासी राधा (30 वर्ष) (अनारकली की सगी बहन) बताती हैं कि उनके दो बच्चे तो मरे हुये ही पैदा हुये। जबकि तीन बच्चे जन्म के बाद नहीं जी पाये। अनारकली की चचेरी बहन आरती (उम्र 25 वर्ष) के पिछले साल एक बेटा पैदा हुआ। जो पैदा होने के चार महीने बाद मर गया। अनारकली की बड़ी भावज (ताऊ के बेटे दयाराम की बीबी) की भी तीन संतानें पैदा होने के बाद मर गयी। जबकि छोटे भाई राजेंद्र ही बीबी के दो बच्चे पैदा होने के बाद मर गये।
राजेंद्र की भान्जी उषा (20 वर्ष), जिसका ब्याह मुंगरा बादशाहपुर, जिला जौनपुर हुआ है, ने पिछले साल एक बेटे को जन्म दिया था। जो एक महीने का होकर मर गया। अनारकली के पहले की पीढ़ी यानि उनकी मां, चाची, ताई मामी, बुआ की भी कई संतानें कोख से लेकर 10 साल की आयु तक मरी हैं। खुद अनारकली और उसके सभी सगे संबंधी रिश्तेदार कृषि मजदूर हैं। बच्चों और बड़ों की बीमार होने पर वो झोलाछाप डाक्टरों औऱ ओझाओं के पास लेकर जाते हैं।

गौरतलब है कि कृषि मजदूरों को पूरे साल में सिर्फ़ गिने चुने दिन ही काम मिलते हैं ऊपर से मजदूरी भी बहुत कम मिलती है।
बर्द्धमान पश्चिम बंगाल की झूमा मंडल की 10 वर्षीय बिटिया जन्मजात सेरेब्रल पल्सी नामक न्यूरोलॉजिकल बीमारी से ग्रस्त है। उनकी बिटिया के ट्रीटमेंट के सिलसिले में दो वर्ष पूर्व दिल्ली कड़कड़ड़ुमा स्थित अमर ज्योति और दीन दयाल उपाध्याय इंस्टीट्यूट जाना हुआ। वहां मैंने पाया कि अधिकांश विकलांग बच्चे आर्थिक, समाजिक रूप से कमोजर वर्गों के थे। शारीरिक और मानसिक रूप से अपंग बच्चे भी सबसे ज़्यादा दलित बहुजन और हाशिये के समुदाय के थे।
इलाहाबाद जिले के फूलपुर कस्बे में ‘प्रयाग नर्सिंग होम’ चलाने वाली स्त्रीरोग विशेषज्ञ डॉ. अपर्णा बताती हैं कि एक स्त्री के पास ठीक-ठाक 15 वर्ष होते हैं बच्चे पैदा करने के लिये। वो बताती हैं उनके यहां हर वर्ग समुदाय की स्त्रियां आती हैं। लेकिन फिर भी अनुपातिक तौर बहुजन दलित और मुस्लिम समाज की स्त्रियां ज़्यादा आती हैं। वो बताती हैं कि कथित तौर पर छोटी जातियों में अपने बच्चों के जीवन को लेकर असुरक्षा का भय होता है। उनके यहां छोटे बच्चे ज़्यादा मरते हैं। इसी वजह से वो ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं। कई बार महँगाई, शिक्षा और अच्छी परवरिश का हवाला देकर टोकने पर स्त्रियां यहां तक कि उनके पति भी कहते हैं बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गयी तो बाद में दूसरा बच्चा कहां से लाएंगे। बुढ़ापे में हमारा सहारा कौन होगा।
डॉ. अपर्णा बताती हैं कि उन्होंने कई स्त्रियों की चौथी और पांचवी बार प्रसव करवाया है। सवर्णों में अमूमन बेटे की चाहत में ही तीसरी-चौथी बार प्रसव तक मामला जाता है, लेकिन अन्य जातियों में दो बेटे होने के बाद भी चौथी पांचवी प्रसव के मामले उनके पास आते हैं। डॉ. अपर्णा बताती हैं कि ये महिलायें इतनी जल्दी-जल्दी गर्भधारण करती हैं कि कई बार उनका अपना शरीर इसके लिये तैयार नहीं होता है। वो खुद भी कुपोषित होती है। एक बार गर्भधारण के बाद पूरा शरीर कमजोर हो जाता है। इसीलिये अमूमन एक प्रसव से दूसरे प्रसव के बीच 3-4 साल का गैप रखने सलाह दी जाती है। लेकिन अधिकांश एक साल के भीतर ही गर्भधारण कर लेतीं है।
डॉ. अपर्णा अमूमन दूसरी प्रसव के समय ही लगे हाथ नसंबदी करवाने की भी सलाह प्रसूता और उनके साथी को देती हैं। वो बताती हैं कि सवर्ण स्त्रियां जिनके एक बेटा या बेटी पहले से होता है या दूसरी प्रसव में बेटा होता है तो वो दूसरी प्रसव के साथ ही नसंबदी भी करवा लेती हैं। लेकिन कथित तौर पर छोटी जातियों में यह बात नहीं होती है। वो औरतें नसंबदी नहीं करवाती हैं।
आंकड़े बताते हैं दलित-बहुजनों का हाल
भारत देश की 85 प्रतिशत आबादी दलित-बहुजन-आदिवासी-अल्पसंख्यक समुदाय की है, जिनमें से लगभग 60 प्रतिशत का मुख्य संघर्ष किसी न किसी तरह रोटी कमाना है। भुखमरी, कुपोषण, शिशु मृत्युदर पर तमाम वैश्विक और राष्ट्रीय सूचकांक व रिपोर्ट में भारत देश की सबसे खराब रैंकिंग मेरी दावों को और पुख्ता करते हैं।
‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स – 2020’ के वैश्विक सूचकांक में भारत का स्कोर 27.2 है। दुनिया के 107 देशों में हुए इस सर्वेक्षण में भारत सूडान के साथ संयुक्त रूप से 94वें स्थान पर है। यह स्थिति बेहद गंभीर स्तर की मानी जाती है। अफ़ग़ानिस्तान, नाइजीरिया और रवांडा जैसे गिनती के कुछ देश ही इस सूचकांक में भारत से पीछे हैं।
‘हंगर-वॉच’ की रिपोर्ट में दावा किया गया है कि लॉकडाउन से पहले जिन 56 प्रतिशत लोगों को रोज़ खाना मिलता रहा, उनमें से भी हर सात में से एक को सितंबर-अक्टूबर, 2020के महीने में अक्सर या कभी-कभी ही खाना नसीब नहीं हुआ। 45 फीसदी लोगों को खाने का इंतज़ाम करने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा। कर्ज़ लेने वाले लोगों में दलितों की संख्या सामान्य जातियों के लोगों से 23 फीसदी अधिक थी। हर चार दलितों और मुसलमानों में से एक और क़रीब 12 प्रतिशत आदिवासियों को रोटी के लिए भेदभाव का सामना करना पड़ा।
‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे’ के नतीजे बताते हैं कि देश में कुपोषण के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। भारत सरकार द्वारा 22 राज्यों में कराए गए इस सर्वेक्षण में पता चला है कि महिलाओं में एनीमिया की शिकायत आम है और बच्चे कुपोषित पैदा हो रहे हैं। इस कारण पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की लंबाई 13 राज्यों में सामान्य से कम है। 12 राज्यों में इसी उम्र के बच्चों का वजन लंबाई के मुताबिक नहीं है। सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक़, उम्र की तुलना में कम लंबाई वाले बच्चों की संख्या के मामले में बिहार में 43 फीसदी और गुजरात में 39 फीसदी है।
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कुपोषित होने के कारण बच्चों में लंबाई कम होने की शिकायत है। उम्र के हिसाब से कम वजन वाले बच्चों की संख्या बिहार में सबसे अधिक 22.9 फीसदी है। शिशु मृत्यु दर के, भूख और कुपोषण की स्थिति अभी भी देश में चिंतनीय स्तर पर है।
वर्ष 2019 में ‘द लैंसेट’ नामक पत्रिका द्वारा जारी रिपोर्ट में यह बात सामने आई थी कि भारत में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की 1.04 मिलियन मौंतों में से तकरीबन दो-तिहाई की मृत्यु का कारण कुपोषण है।
हाल ही में न्यूज एजेंसी PTI की एक RTI के जवाब में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने बताया था कि पिछले साल नवंबर तक 9,27,606 बच्चों गंभीर रूप से कुपोषित हैं। इनमें से 3.98 लाख बच्चे उत्तर प्रदेश और 2.79 लाख बच्चे बिहार में हैं।
जनसंख्या कानून
जुलाई 2021 में भाजपा के चार सांसदों सुब्रमण्यम स्वामी, राकेश सिन्हा, हरनाथ सिंह यादव, और अनिल अग्रवाल ने राज्यसभा में प्राइवेट मेंबर बिल पेश किया। जबकि रवि किशन, सुशील कुमार सिंह, विष्णु दयाल राम, और डॉ आलोक कुमार सुमन 23 जुलाई को प्राइवेट मेंबर बिल लोकसभा में पेश किया था।
इस बिल में सिफारिश की गयी कि दो से अधिक बच्चे होने पर माता-पिता को सरकारी नौकरी छीनने, और मतदान करने, चुनाव लड़ने और राजनीतिक पार्टी समेत कोई भी संस्था या कोऑपरेटिव बनाने के अधिकार को समाप्त कर दिया जाये। साथ ही मुफ्त बिजली पानी, भोजन जैसे सब्सिडी खत्म कर दी जाये। इसके अलावा उन्हें किसी बैंक या वित्तीस संस्थों से लोन न प्राप्त कर सकें।
वहीं देश के सबसे अधिक आबादी वाले सूबे उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा जनसंख्या दिवस के दिन जनसंख्या विधेयक लाया गया। जिसके तहत दो से अधिक बच्चों वाले परिजनों को तमाम सुविधा सेवा और अधिकारों से वंचित किये जाने की बात प्रस्तावित की गयी है। उत्तर प्रदेश की ही तर्ज़ पर भाजपा शासित राज्य हिमाचल प्रदेश, असम और मध्यप्रदेश में भी जनसंख्या क़ानून बनाने की बात कही जा रही है।
भले ही जनसंख्या विधेयक को मुस्लिम समुदाय से जोड़कर प्रचारित किया जा रहा हो लेकिन तथ्य तो यह है कि असम एनआरसी की तरह जनसंख्या विधेयक भी दलित बहुजनवर्ग के ख़िलाफ़ साबित होने जा रहा है। इनमें पसमांदा मुसलमान भी शामिल हैं जो कि सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक तीनों स्तरों पर दलित-बहुजनों के समान ही हैं। हम कह सकते हैं कि यदि जनसंख्या कानून ज़मीन पर लागू होता है तो दलित-बहुजन और पसमांदा समाज के लोगों को प्रतिनिधित्व के अधिकार, शिक्षा व जीने (खाद्य सुरक्षा)के अधिकार और मतदान के अधिकार से वंचित होना पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में जबकि इन बहुसंख्यकों को संविधन प्रदत्त अधिकारों से वंचित किया जाएगा तो उनके अंदर अपनी असुरक्षा का भाव और बढ़ेगा। इसलिए आवश्यकता तो इस बात की है कि सरकार पहले उन्हें शिक्षित बनाए, उनके लिए रोजी-रोजगार की चिंता करे और उन्हें बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराए। यदि यह सब नहीं किया जाता है और केवल जनसंख्या कानून का कोई मायने नहीं रह जाएगा। यह केवल और केवल चुनावी शिगूफा साबित होगा।
(संपादन : नवल/अनिल)