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रैदास साहेब की राज्य की अवधारणा, जो आज है ज्यादा प्रासंगिक

रैदास साहेब की राज्य की अवधारणा आज इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि आज आरएसएस और भाजपा एक ऐसे हिंदू राज्य का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें वर्णव्यवस्था को लागू करने का गुप्त एजेंडा निहित है। इस सरकार की जनविरोधी नीतियों और विनिवेश की योजनाओं ने करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म करके उन्हें भूखों मरने के लिए असहाय छोड़ दिया है। बता रहे हैं कंवल भारती

एक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा–

ऐसा चाहूँ राज मैं जहाँ मिलै सबन को अन्न।
छोट बड़ो सभ सम बसै रैदास रहे प्रसन्न।।*
– संत रैदास

हिंदू राज्य की स्थापना पर डॉ. आंबेडकर की चेतावनी–

यदि हिंदू राज की स्थापना सच में हो जाती है, तो निस्संदेह यह इस देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा। चाहे हिंदू कुछ भी कहें, हिंदूधर्म स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के लिए एक खतरा है। यह लोकतंत्र के लिए असंगत है। किसी भी कीमत पर हिंदू राज को स्थापित होने से रोका जाना चाहिए।

– डा. बाबासाहेब आंबेडकर

रैदास साहेब की उपर्युक्त साखी में एक ऐसे कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना निहित है, जो 600 साल के बाद भी प्रासंगिक है। यह परिकल्पना उस दौर में की गई थी, जब भारत में राजशाही थी। समाज में असमानता और अमीरी-गरीबी अपने चरम पर थी। कबीर के शब्दों में कोई महलों में पलंग-निवाड़ी पर सोता था, तो एक बड़ी आबादी को छप्पर और पुआल का बिछौना भी नसीब नहीं था। किसी के द्वार पर हाथी बंधा होता था, तो बहुत से गरीब लोग अपने बाल-बच्चों तक को बेचकर गुजारा कर रहे थे।

 

भारत में कानूनन स्वतंत्रता और समानता आने में अभी चार सदियों की देर थी। लेकिन भारत में वैदिक काल से ही स्वतंत्रता और समानता की पक्षधर विचारधारा का अस्तित्व रहा है। कबीर और रैदास उसी परंपरा के अनुयायी थे, जिन्होंने पूरी निडरता और साहस के साथ हर तरह की विषमता और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई थी, और परिवर्तन के लिए जनता को जागरूक किया था।

यह रैदास साहेब की मानवीय चेतना थी, जो उन्होंने एक कल्याणकारी राज्य की परिकल्पना पंद्रहवीं शताब्दी में ही कर ली थी। ऐसी परिकल्पना वही व्यक्ति कर सकता है, जो अपने समय की राज्य-व्यवस्था से पीड़ित समुदाय का द्रष्टा और भोक्ता दोनों हो, या उस वर्ग से आता हो, जो राज्य की सुविधाओं से वंचित हो। तुलसीदास सोलहवीं शताब्दी में भी ऐसे कल्याणकारी राज्य की कल्पना नहीं कर सके थे, जबकि वह खुद भी दर-दर के भिखारी थे। तुलसी के समय में भी लोगों को दिन-रात मेहनत करने के बावजूद भरपेट खाना नहीं मिलता था। लेकिन तुलसी ने वर्णव्यवस्था को ही आदर्श व्यवस्था माना और सुख-दुख, अमीरी-गरीबी और ऊंच-नीच को पूर्वजन्म के कर्मों का परिणाम कहा। अगर एक-तिहाई आबादी को भरपेट रोटी नहीं मिल रही थी, तो यह तुलसी जैसों की नजर में राज्य-व्यवस्था का दोष नहीं था, बल्कि लोगों के पूर्वजन्म के कर्मों का दोष था। इसलिए एक समावेशी कल्याणकारी राज्य की कल्पना उनके लिए असंभव थी। यहां तक कि वर्णव्यवस्था के विरुद्ध शूद्रों की शिक्षा और बगावत को भी वह कलियुग का दुष्प्रभाव मानते थे।

लेकिन वर्णव्यवस्था का खंडन करने वाले रैदास साहेब ने तुलसी से भी सौ साल पहले यह बता दिया था कि अमीरी-गरीबी और सुख-दुख पूर्वजन्मों का कर्मफल नहीं, बल्कि उसके लिए राज्य की कुव्यवस्था जिम्मेदार है। अगर लोगों को भरपेट खाना नहीं मिल रहा है, तो इसलिए कि राज्य की व्यवस्था कल्याणकारी नहीं है। राज्य की कृपा दीनदुखियों और गरीबों पर नहीं है।

बहुजन नायक रैदास का चित्र

इसलिए रैदास का यह सुचिंतित प्रश्न है कि एक राज्य को कैसा होना चाहिए? उन्होंने कहा कि राज्य ऐसा होना चाहिए, जिसमें राज्य का कोई भी प्राणी भूखा न मरे। यह तभी होगा, जब राज्य अपनी समस्त प्रजा के लिए अन्न की व्यवस्था करेगा। अगर राज्य के सभी लोगों को अन्न सुलभ नहीं हो पा रहा है, तो वह राज्य कल्याणकारी राज्य नहीं हो सकता, वरन प्रजा पर अत्याचार करने वाला राज्य होगा। सर्वसुलभ का मतलब यह नहीं है कि राज्य जनता को मुफ्त अनाज वितरण करे, बल्कि इसका मतलब यह है कि राज्य के लोगों की आय इतनी होनी चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति आसानी से अनाज खरीद सके। अगर अन्न प्राप्त करने की सामर्थ्य केवल धनी लोगों तक ही सीमित होगी, तो शेष प्रजा अभावग्रस्त ही रहेगी और अपना पेट नहीं भर सकेगी।

रैदास जी की राज्य की अवधारणा में केवल यही नहीं है कि सबके लिए अनाज सुलभ हो, बल्कि यह भी है कि राज्य में छोटे-बड़े के बीच किसी तरह का कोई भेदभाव न हो – न सामाजिक और न आर्थिक। वे सम बसें, अर्थात पूरी समानता के साथ रहें। यह भेदभाव न हो कि जो बड़े लोग हैं, उनको विशेषाधिकार प्राप्त हों, और जो छोटे लोग हैं, उनका दमन हो और उन्हें सम्मान भी प्राप्त न हो।

रैदास साहेब की राज्य की यह अवधारणा इतनी क्रांतिकारी है कि इसमें स्वतंत्रता और समानता के उन मूलभूत अधिकारों की पैरवी की गई है, जिसकी व्याख्या हमें पश्चिम के लोकतंत्र-प्रणाली में मिलती है। हालाँकि वह राजनीतिक पराधीनता का दौर था, किंतु पराधीनता के दौर में भी उच्च वर्गों के लोग स्वाधीन और आत्मनिर्भर थे, जबकि मेहनत करके कमाने-खाने वाले किसान, चर्मकार, कुम्हार, तेली, लुहार आदि उत्पादक लोग न स्वाधीन थे और न आत्मनिर्भर। वे इस कदर पराधीन और गुलाम थे कि वे अपनी बदहाली के खिलाफ फरियाद भी नहीं कर सकते थे। उन्हें न सम्मान मिलता था और ना ही प्यार। ऐसे लोगों को सभी नीच समझते थे। इन शोषित लोगों के प्रति रैदास साहेब के अंदर गहरी सहानुभूति थी। उन्होंने कहा–

पराधीन का दीन क्या, पराधीन बेदीन।
रैदास पराधीन को, सभ ही समझें हीन।

बहुत ही मार्मिक बात रैदास जी ने इस साखी में कही है। वे सिर्फ यही नहीं कहते कि जो पराधीन है, उसका कोई धर्म नहीं है, क्योंकि धर्म स्वाधीनों का ही होता है, बल्कि वे यह भी कहते हैं कि जो पराधीन हैं, उन्हीं को लोग नीच समझते हैं। रैदास साहेब का यह विचार राजनीतिक पराधीनता को लेकर नहीं है, बल्कि आर्थिक पराधीनता को लेकर है। राजनीतिक रूप से पूरा देश पराधीन था। पर सामाजिक और खासतौर से आर्थिक रूप से निम्न वर्गों के मेहनतकश लोग ही पराधीन थे। वस्तुत: रैदास ने इस साखी में वर्णव्यवस्था पर प्रहार किया है, जिसने शूद्र वर्ग को द्विजों के अधीन करके रखा था। इन्हीं पराधीनों को रैदास ने ‘बेदीन’ कहा है। अर्थात वे लोग, जो धर्म-रहित या बेधरम हैं। चूंकि वे लोग बेदीन थे, इसीलिए उन्हें स्वतंत्रता और समानता के अधिकारों से वंचित रखा गया।

रैदास साहेब की राज्य की अवधारणा आज इसलिए प्रासंगिक है, क्योंकि आज आरएसएस और भाजपा एक ऐसे हिंदू राज्य का निर्माण कर रहे हैं, जिसमें वर्णव्यवस्था को लागू करने का गुप्त एजेंडा निहित है। इस सरकार की जनविरोधी नीतियों और विनिवेश की योजनाओं ने करोड़ों लोगों का रोजगार खत्म करके उन्हें भूखों मरने के लिए असहाय छोड़ दिया है। इस सरकार में लोगों की पहुंच से सिर्फ शिक्षा, दवाइयां और न्याय ही बाहर नहीं हो गए हैं, बल्कि दाल-रोटी भी पहुंच से दूर हो गई है। हिंदू राज्य भारत के लोकतंत्र के लिए, स्वतंत्रता, समानता और बन्धुत्व के सिद्धांतों के लिए न केवल खतरनाक है, बल्कि देश की एकता के लिए भी घातक है। डॉ. आंबेडकर ने 1940 में ही इस खतरे को महसूस कर लिया था, इसलिए उन्होंने देशवासियों को चेतावनी दी थी कि एक कल्याणकारी राज्य के हित में हिंदू राज्य को स्थापित होने से रोकना होगा।

(संपादन: नवल)

* मूल पद (पद संख्या 174), अमृतवाणी, सद्गुरु रविदास महाराज जी, संत सुरिंदर दास बाबा जी, श्री गुरु रविदास जन्म अस्थान पब्लिक चैरिटेबुल ट्रस्ट, सीर गोवर्द्धनपुर, वाराणसी, का परिवर्द्धित रूप

(आलेख परिवर्द्धित : 7 सितंबर, 2021 04:38 PM)


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लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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