‘गुलामगिरी’ के प्रकाशन के चार माह बाद, 20 सितम्बर 1873 को, जोतीराव फुले ने सत्यशोधक समाज की स्थापना की। इस नए संगठन ने उन्नतशील मराठी और तेलुगू (मालाकार जाति के) व्यवसायियों, दुकानदारों और ठेकेदारों के अतिरिक्त सली (बुनकर), शिम्पी (दर्जी), कुम्हार, अछूत महारों और मुसलमानों को एकजुट किया। इसके सदस्यों में वकील, सरकारी मुलाजिम और सिपाही भी शामिल थे। अध्येता गेल ऑम्वेट व रोसलिंड ओ हेनलान ने सत्यशोधक समाज को ‘गैर-ब्राह्मण’ आंदोलन’ बताया है।