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पहली बार फुले ने दिया शोषितों के संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण : पाटणकर

बीते 24 सितंबर, 2021 को फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ का ऑनलाइन विमोचन किया गया। इस मौके पर आयोजित परिचर्चा में शामिल सभी वक्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि फुले की वैचारिकी मुक्तिकामी और प्रासंगिक है। इस कारण इसका प्रसार समग्र स्तर पर आवश्यक है। अरुण नारायण की रपट

फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित ‘गुलामगिरी’ पुस्तक का लोकार्पण सह चर्चा गोष्ठी

जोतीराव फुले के विचार शोषण रहित समाज के निर्माण, जाति व्यवस्था के खात्मे, स्त्रियों के शोषण, वर्ग शोषण और परिवर्तन की हर तरह की लड़ाई के लिए आज भी प्रासंगिक हैं। शोषण रहित समाज के निर्माण में उनकी भूमिका हमेशा याद की जाती रहेगी। ये बातें प्राख्यात सामाजिक कार्यकर्ता डा. भरत पाटणकर ने बीते 24 सितंबर, 2021 को सत्यशोधक स्थापना दिवस (24 सितंबर, 1873) की वर्षगांठ के मौके पर फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक “गुलामगिरी” के ऑनलाइन विमोचन सह परिचर्चा की अध्यक्षता करते हुए कही। यह पुस्तक उज्ज्वला म्हात्रे द्वारा मूल मराठी से हिंदी में किया गया नवीनतम अनुवाद है, जिसे आयवन कोस्का और डॉ. रामसूरत ने संदर्भ टिप्पणियों से समृद्ध किया है। फारवर्ड प्रेस द्वारा आयोजित इस गोष्ठी में कांचा इलैया शेपर्ड, चौथीराम यादव, सुधा अरोड़ा, प्रेमकुमार मणि, अनिता भारती ने हिस्सा लिया। कार्यक्रम का संचालन फारवर्ड प्रेस हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने किया। वहीं कार्यक्रम के अंत में डॉ. राम सूरत ने धन्यवाद ज्ञापन किया।

अपने अध्यक्षीय संबोधन में डा. भरत पाटणकर ने कहा कि “मैं व्यक्तिगत रूप से शुक्रगुजार हूं कि फारवर्ड प्रेस ने ‘गुलामगिरी’ के नवीनतम हिंदी अनुवाद को गेल ऑम्वेट को समर्पित किया है।” उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र में इस बात पर काफी वाद-विवाद हुआ कि फुले और आंबेडकर फिलाॅसफर हैं या नहीं हैं? फुले का समग्र चिंतन ‘गुलामगिरी’, ‘शतकार्यांचा असुड’ से लेकर ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ और ‘तृतीय रत्न’ तक में तत्वमान है। इसके पीछे मेथोडलाॅजी है और यह एकेडमिक वर्क है। फुले ने ऐसे ही विचार नहीं रखे हैं। मार्क्स ने भी अलग-अलग तत्वज्ञान रखा। ‘गुलामगिरी’ में फुले भी भारतीय समाज के संदर्भ में तत्वज्ञान फुले सामने लेकर आते हैं। कुछ लोग तर्क देते हैं कि यदि अलेक्जेंडर का इतिहास सच है तो उनका भी रामायण और महाभारत, ये सभी इतिहास ही हैं, कथाएं भर नहीं हैं। परंतु फुले ने तथ्यों के साथ इसे खारिज किया है।

फुले ने ‘गुलामगिरी’ के जरिए रखा अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण

पाटणकर ने कहा कि फुले ने बहुआयामी तरीके से निसर्ग न्यास, तत्वन्यास, आंचलिकता व मौलिकता को गढ़ा। वे समाजशास्त्र और राजनीतिशास्त्र के आयामों को सामने लाते हुए इतिहास का पर्दाफाश करते हैं। उनकी आलोचना का आधार वैज्ञानिक और व्यवहारिक है। उनका दूसरा योगदान यह है कि वे केवल नस्लवाद का सवाल ही सामने नहीं लाते, अपितु उसकी व्याख्या भी करते हैं। वे बताते हैं कि जब आर्य व भट्ट ब्राहण आये तब उनका संघर्ष यहां के क्षेत्रीय मूलनिवासियों से हुआ। आज भी वही संघर्ष है। अभी के सभी आंदोलनों से मालूम होता है। फुले ने देशी नस्ल के उपर रखकर यह विचार नहीं रखा है।

सिर्फ आलोचना करके रूक जाएं तो फिर शोषण नष्ट होनेवाला नहीं है। शोषितों के बीच जो अंतरविरोध हैं, उन्हें खत्म किये बिना हम नया समाज नहीं ला सकते हैं। ‘गुलामगिरी’ के जरिए फुले यही करते हैं और वे आह्वान करते हैं कि दुनिया के सभी देशों को इस तरह के अंतर्विरोध जो कि अलग-अलग तरीके से मौजूद हैं, उसका खात्मा हो।

पाटणकर ने कहा कि 19वीं सदी के अंतिम दशकों में शूद्र, अतिशूद्र और स्त्रियों के बीच गंठजोड़ अपने आप में बड़ी बात थी। अभी भी लोग इस संकल्पना की कल्पना नहीं कर पाते। फुले ने जातिगत, धर्मगत और नस्लगत तीनों तरीके के शोषण का जिक्र किया है। सभी एक-दूसरे में मिले हुए हैं। ये नया समाज ला नहीं सकते हैं। यही संकल्पना फुले जी की इस किताब में है। पाटणकर ने कहा कि फुले यह मानते थे कि आर्य व भट्ट ब्राहण शोषक थे, आक्रमणकारी थे, इनको कोसने से फायदा नहीं है। इनकी जो आलोचना करनी है, विश्लेषण करना है, करें लेकिन इसके समानांतर कैसा समाज बनाना है, यह भी वह देख रहे थे। उन्होंने एक कुटुम्ब की कल्पना की है। एक ही परिवार में अलग-अलग धर्म के लोगों की मौजूदगी की। ऐसे लोग ही समवेत रूप में इकट्ठा रहकर एक आदर्श परिवार को मूर्त कर सकते हैं। फुले ने कहा था कि राष्ट्र तब तक नहीं बनता है, जबतक लोग होमोजीनस नहीं बनते हैं। स्त्री, शूद्र व अतिशूद्र भी बंटे हुए हैं और इनका शोषण होता है। भट्ट ब्राहण तो कैपिटलिस्ट हैं तो इसमें एकमय होना संभव है। लेकिन जो शोषित और दमित हैं, उन्हें एकमय होने के लिए उनके बीच जो भेद हैं, वो नष्ट होने चाहिए। इन तीनों में भी अंतर्विरोध है, इसलिए आंबेडकर जी ने फुले को गुरु स्वीकार किया, क्योंकि उन्होंने – स्त्रियों, शूद्रों व अतिशूद्रों – तीनों के अलायंस की बात की। ‘जाति का विनाश’ में बाबासाहेब ने कहा कि ‘कास्ट इज नाॅट जस्ट बायनरी एक्सप्लायेटेशन’। यानी जातिगत शोषण एक-दूसरे का किया हुआ शोषण नहीं है। जातिगत व्यवस्था में शोषण का एक पदक्रम है। पदक्रम आधारित शोषण की वजह से श्रम का विभाजन भी है। इसी कारण शोषित जातियों में भी अंतर्विरोध हैं। शूद्र-अतिशूद्र में भी अंतर्विरोध हैं। स्त्रियों और पुरुषों में भी अंतर्विरोध है। स्त्रियों पर अत्याचार करनेवाले सिर्फ भट्ट ब्राहण नहीं हैं, सभी वर्गों व समुदायों के लोग हैं तो अंतर्विरोध अगर खत्म नहीं होंगे तो मुक्ति नहीं होनेवाली। इसमें एक केंद्रीय तत्व है, जो फुले जी सामने लाते हैं। नया समाज कैसा होगा और कौन-सी चीजें आनेवाली हैं, इसे लेकर समझ विकसित करने की आवश्यकता पर वे जोर देते हैं। ‘गुलामगिरी’ बेसिक इसलिए है कि इतिहास की ओर हम कैसे देखते हैं, विश्लेषण कैसे करते हैं और उसमें से हमारा जो पर्याय है, वह कैसे हमलोग आगे लाते हैं। सिर्फ आलोचना करके रूक जाएं तो फिर शोषण नष्ट होनेवाला नहीं है। शोषितों के बीच जो अंतरविरोध हैं, उन्हें खत्म किये बिना हम नया समाज नहीं ला सकते हैं। ‘गुलामगिरी’ के जरिए फुले यही करते हैं और वे आह्वान करते हैं कि दुनिया के सभी देशों को इस तरह के अंतर्विरोध जो कि अलग-अलग तरीके से मौजूद हैं, उसका खात्मा हो। इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रही इन चुनौतियों का मुकाबला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ही करना पड़ेगा।

वे आगे कहते हैं कि भट्ट ब्राहण क्यों आगे गए, इस संबंध में जैसा कि कांचा इलैया ने कहा कि हमारा दिमाग ऐसा होना चाहिए कि हम उनका पराभव उस स्तर पर भी कर सकें। यह सवाल है कि ब्राहण क्यों हर बरस दिवाली के वक्त बली के पुतले को लात मारते हैं, जबकि जो शूद्रातिशूद्र स्त्रियां हैं, ऐसा क्यों नहीं करतीं? वे तो हर साल बली का राज के पुन: स्थापित होने की कामना करती हैं। इसका मतलब है कि काउंटर कल्चर रहा है। इसलिए फुले एक अलग तरीके से विवाह विधि लेकर आते हैं, जिसमें ब्राहण नहीं हैं। यह सब ‘गुलामगिरी’ में आया है। इसमें शूद्र इटैलेक्चुअल बनता है और वह फिलाॅसफी के क्षेत्र में क्रांति करता है और उसमें ये चीजें आगे लाता है जो एंगेल्स ने लिखा, मार्क्स ने लिखा है। रोमिला थापर की एक थियोरी है। उसका अलग तरह का कैरेक्टर है। इस बारे में वैचारिक बहस करना आवश्यक होगा। इसी से फुले की वैचारिकी का समग्र रूप से विस्तार होगा।

पाटणकर ने कांचा इलैया द्वारा की गयी एक टिप्पणी के संदर्भ में कहा कि “मैं शूद्र जाति का हूं। हम (पाटणकर और गेल ऑम्वेट) तो बीस वर्ष पहले ही बुद्धिस्ट बन गए हैं। हम तो हिन्दू हैं ही नहीं।” उन्होंने कहा कि शोषितों की लड़ाई का एक अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण होना चाहिए। यह बात फुले ने अपनी पहली ही किताब मंे लाई है। वे पहले तत्ववेत्ता हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण रखा।

डा. भरत पाटणकर, सुधा अरोड़ा, अनिता भारती,, डॉ. कांचा इलैया शेपर्ड, प्रेमकुमार मणि व डॉ. चौथीराम यादव

फासीवाद से लड़ने के जैसे है ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई : प्रेमकुमार मणि

हिन्दी विमर्शकार प्रेमकुमार मणि ने अपने संबोधन में कहा कि फारवर्ड प्रेस ने ‘गुलामगिरी’ को ऐसे मौके पर प्रस्तुत किया है, जिसकी आज बेहद जरूरत थी। सभी भाषाओं में इस किताब को अधिक से अधिक अनुवाद किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारत आज नये ‘गुलामगिरी’ की तरफ बढ़ रहा है। ब्राहणवाद से लड़ना फासीवाद से लड़ने की तरह है और ये स्थितियां साम्राज्यवाद से कई गुणा खतरनाक हैं। उपनिवेशवाद की लड़ाई हमने आधे दशक में जीत ली थी, लेकिन ब्राहणवाद से लड़ाई हम ढाई हजार वर्षों से लड़ रहे हैं और आज भी उसमें पूरी तरह से सफल नहीं हो पाये हैं। हम जागरूक हो रहे हैं, ओबीसी, ईबीसी जागरूक हो रहे हैं। वे इन चीजों को समझ रहे हैं। लेकिन मैं कहूंगा कि अभी भी इसकी काफी जरूरत है।

मणि ने कहा कि “मार्क्स का 1848 में कम्युनिस्ट घोषणा पत्र आया। उसी कड़ी में गुलामगिरी को मैं रखता हूं। ज्योतिराव फुले भारतीय परिप्रेक्ष्य में एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य बनाते हैं। वह इस किताब को समर्पित करते हैं अमेरिका के उन लोगों को, जो लोग वहां दास्ता के खिलाफ लड़ रहे थे। वहां सॉजर्नर ट्रुथ ने अशिक्षित महिला होकर ब्लैक महिला होकर जिस तरह का संघर्ष किया, जिस तरह से जागृति लाई थी, जिस प्रकार से वहां अब्राहम लिंकन ने दास प्रथा की समाप्ति के लिए संघर्ष छेड़ा, फुले उससे कनेक्ट करते हैं और याद करते हैं भारतीय स्थितियों को। वह अमेरिकी अश्वेताों की गुलामी से भारतीय शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों की गुलामी को कनेक्ट करते हैं तथा तरह से एक अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य बनाते हैं। आज हम जिस जमाने के राजनीतिक और सामाजिक संघर्षों को देख रहे हैं, उसमें ‘गुलामगिरी’ की बार-बार याद आती है। इसकी प्रासंगिकता हमें दिखती हैं। इसपर ज्यादा से ज्यादा विमर्श हो। इसकी प्रस्तुतियां गांव मुहल्ले में की जानी चाहिए। ऐसी मुश्किल घड़ी में ज्यादा से ज्यादा संघर्ष और काम करने की जरूरत है। ऐसे काम को हम जारी रखें।”

फुले ने लोगों में उर्जा भरी विश्वास आत्मविश्वास जगाया : सुधा अरोड़ा

प्रसिद्ध कथाकार सुधा अरोड़ा ने अपने संबोधन में कहा कि यह किताब बहुत मिहनत से हिन्दी में अनूदित की गई है। एक-एक शब्द को खंगाला गया है कि उसपर क्या होना चाहिए। पूरे संदर्भ की इतनी सूक्ष्म और इतनी विस्तृत व्याख्या के बीच इस किताब का आना फारवर्ड प्रेस के लिए ही नहीं, हम सब के लिए गर्व की बात है। ये काम करीब डेढ़ सौ साल पहले हुआ था, इसको इतने दशकों तक नजरंदाज किया जाता रहा। उन्होंने कहा कि इस देश में जिन 5 समाज सुधारकों का नाम लिया जाता था उसमें फुले को कभी शामिल नहीं किया गया चूंकि वह सूची सवर्ण लोगों की बनाई थी, इसलिए उनको इसमें शामिल नहीं किया गया।

फुले जड़ताओं को समाप्त किए जाने को अहम मानते थे। उन्होंने विवाह पद्धति, हिंदू संस्कार कर्मकांड शब्द, वचन सबको बदल दिया। अपनी तरफ से विवाह के मंत्र रचे। समाज को बेहतर बनाने के मंत्र लिखे। उनमें ताकत थी कि सबको साथ लेकर चल सकते थे।

सुधा अरोड़ा ने कहा कि आज समय बदल रहा है। किया गया काम कभी छिपता नहीं है। विचार आखिर अपनी जगह ढूंढ ही लेते हैं, उसमें सच्चाई होती है। दक्षिण के पेरियार का आज हर भाषा में अनुवाद हो रहा है। हर भाषा में फुले का भी अनुवाद हो रहा है। उज्ज्वला म्हात्रे की जो भाषा मराठी है, वह भाषा अभिजनों की नहीं, बहुजनों की भाषा है। फुले ने सवाल उठाया कि स्त्रियां ‘सती’ होती हैं तो पुरुष ‘सता’ क्यों नहीं होता। फुले ने इस्लाम की खूबियों के बारे में विस्तार से ‘सार्वजनिक सत्य धर्म’ पुस्तक में लिखा है। वे बतलाते हैं कि वहां सभी एक ही साथ खाते हैं। वहां हिंदू धर्म के जैसा जाति भेद नहीं है। सुधा अरोड़ा ने कहा कि सांप्रदायिकता और नफरत के आज के माहौल में इन किताबों का महत्व बढ़ जाता है। उन्होंने सत्यशोधक नाटक का उल्लेख किया, जिसमें सुषमा देशपांडे ने सावित्रीबाई की भूमिका अभिनीत की। उन्होंने कहा कि आज जगह-जगह इस नाटक का मंचन करने की जरूरत है। फुले जड़ताओं को समाप्त किए जाने को अहम मानते थे। उन्होंने विवाह पद्धति, हिंदू संस्कार कर्मकांड शब्द, वचन सबको बदल दिया। अपनी तरफ से विवाह के मंत्र रचे। समाज को बेहतर बनाने के मंत्र लिखे। उनमें ताकत थी कि सबको साथ लेकर चल सकते थे। उन्होंने समाज के हाशिये के लोगों में उर्जा भरी, विश्वास आत्मविश्वास जगाया। बदले हुए संदर्भों में उनके बारे में कई-कई किताबें आनी चाहिए।

गांव-गांव तक पहुंचे फुले की वैचारिकी : चौथीराम यादव

परिचर्चा को संबोधित करते हुए आलोचक चौथीराम यादव ने कहा कि हमारे यहां तीन सामाजिक क्रांतियां हुई हैं– पहला बुद्ध की सामाजिक क्रांति, दूसरा मध्यकालीन सामाजिक संतों की क्रांति और तीसरा फूले, आंबेडकर, पेरियार और भगत सिंह की क्रांति। मुख्यधारा के व्याख्याकारों ने फुले, पेरियार, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, ललई सिंह यादव और महाराज सिंह भारती जैसे समाज सुधारकों की नोटिस तक नहीं ली। जबकि इन बहुजन नायकों की परम्परा ही भारत में असली क्रांति की परंपरा रही है, जिसे साजिशन दबाया गया है। वामपंथ की चर्चा करते हुए चौथीराम यादव ने बतलाया कि मार्क्सवादी आलोचक भी अपनी परंपरा वैदिक काल में तलाशते रहे। बुद्धिज्म में उन्हें प्रतिक्रांति ही नजर आई। उन्होंने कहा कि शूद्रों व अतिशूद्रों का संकट साम्राज्यवाद से उतना गहरा नहीं था, जितना सामंतवाद से रहा।

‘गुलामगिरी’ की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि फुले जब यह किताब लिख रहे थे तब बड़ा विशाल पाठक वर्ग उनके दिमाग में रहा होगा। अकारण नहीं कि मराठी पुस्तक की भूमिका उन्होंने अंग्रेजी में लिखी। मातृभाषा और अंग्रेजी दोनों में। फुले ने क्या-क्या संघर्ष नहीं किया। जीवन जीने के लिए ठेकेदारी की, घर से निकाले गए, आंदोलन खड़ा किया। आप उनके मिशन को देखिये तब उसके वास्तविक सरोकार को समझ पाएंगे। उन्होंने कहा कि ‘हिन्दू धर्म की पहेलियां’ के बाद ‘गुलामगिरी’ दूसरी नायाब रचना है, जिसका महत्व आज के बदले हुए संदर्भ में बेहद महत्वपूर्ण है। भारतीय शिक्षा पद्धति से भिन्न क्रिश्चियन स्कूलों में जब फुले पढ़ने गए तो उसका एक गहरा प्रभाव उनपर पड़ता है। विधवा का सवाल और स्त्री शिक्षा की अहमियत यहीं उन्हें समझ में आई।

चौथीराम यादव ने माना कि बहुुजन समाज में आज भी जागरूकता की कमी है। जरूरत आज इस बात की है कि इस समाज के युवा मानस में साथ ही हिन्दी पट्टी के गांव-गांव में फुले की वैचारिकी का प्रसार किया जाए। उन्होंने कहा कि ब्राहणवाद विरोध उस समय से ज्यादा आज अहमियत रखता है।

‘गुलामगिरी’ सत्तापरक ब्राहणवाद की सबसे बड़ी आलोचना : कांचा इलैया शेपर्ड

वहीं कांचा इलैया शेपर्ड ने कहा कि यह अजीब विडम्बनापूर्ण स्थिति रही है कि बंगाली नेशनलिज्म ने राजाराम मोहन राय और टैगोर को पूरे देश पर आरोपित कर दिया और इसी तर्ज पर मराठी नेशनलिज्म ने रानाडे, गोखले और तिलक को थोप दिया। फुले की चर्चा करते हुए इलैया ने कहा कि मैं 1980 के मध्य में फुले के जीवन से परिचित हुआ। उनका जीवन चरित तेलगू में अनूदित की गई थी, यही मेरा उनसे पहला परिचय था। वाम आंदोलन फुले, आंबेडकर के बारे में मौन रहा। मैंने ‘गुलामगिरी’ का अंग्रेजी संस्करण 1990 में पढ़ा। फुले कृषि, किसान, श्रमिक और शूद्र अतिशूद्र को जमीनी स्तर पर संबोधित कर रहे थे। आंबेडकर यही बातें एकेडमिक स्तर पर कर रहे थे।

‘गुलामगिरी’ ब्राह्मणवाद की सबसे बड़ी आलोचना है। उन्होंने आहवान किया कि ब्राहणवाद से मुक्ति पानी है तो हर शोषित अपने बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाएं व उन्हें फुले का साहित्य पढ़ाएं।

इलैया ने कहा कि फुले का मराठी में किताब लिखना बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने दसावतार की शोषितों के नजरिए से व्याख्या की और बताया कि विष्णु के अलग-अलग अवतारों के अर्थ क्या हैं। कांचा एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा कि फुले और आंबेडकर में एक मुद्दे पर अंतर है। फुले ने आर्य और द्रविड़ नस्ल को मान्यता दी तथा आर्यों की सर्वश्रेष्ठता को खारिज किया। आंबेडकर कहते हैं कि यहां आर्य व द्रविड़ नस्ल नहीं है। फुले ‘गुलामगिरी’ में नस्लवादी नजरिए से हिंदू धर्मग्रंथों व धर्मशास्त्रों को खारिज करते हैं। जबकि आंबेडकर इसकी आध्यात्मिकता की आलोचना करते हैं।

इलैया ने कहा कि गांधी का ‘हिंद स्वराज’ हिंदुत्व की व्याख्या करता है। उन्होंने अहिंसा को परिभाषित किया, जो उन्होंने जैन धर्म से ग्रहण किया। अपनी खुद की किताब दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा अपने पाठ्यक्रम से हटाये जाने संबंधी प्रकरण की चर्चा करते हुए कांचा ने कहा कि उन लोगों (विश्वविद्यालय प्रबंधन) का तर्क था कि इस किताब में संदर्भ नहीं हैं। मनु के धर्मशास्त्र और गांधी के ‘हिन्द स्वराज’ में भी संदर्भ नहीं हैं। उन्होंने कहा कि मैंने अपने गांव के बारे में, मेरे जीवन के बारे में, मेरे गांव के उत्पादन के बारे में लिखा। अब इसका संदर्भ कहां से लाउं?

उन्होंने कहा कि ‘गुलामगिरी’ ब्राह्मणवाद की सबसे बड़ी आलोचना है। उन्होंने आहवान किया कि ब्राहणवाद से मुक्ति पानी है तो हर शोषित अपने बच्चों को अंग्रेजी में पढ़ाएं व उन्हें फुले का साहित्य पढ़ाएं। कांचा ने बतलाया कि देश के बड़े हिस्सों पर आज भी ब्राहणों और बनियों का कब्जा है। जब तक उन संसाधनों में बहुजन समाज की हिस्सेदारी सुनिश्चित नहीं होगी, यह देश प्रगति नहीं करेगा।

हमें तर्क करना सिखाती है ‘गुलामगिरी’ : अनिता भारती

कथाकार व दलित लेखक संघ, नई दिल्ली की अध्यक्ष अनिता भारती ने कहा कि ‘गुलामगिरी’ दलित-बहुजन आंदोलन के लिए बहुत समृद्ध किताब है। अनुवाद के साथ संदर्भ टिप्पणियां संवाद की तरह चलती हैं। यह किताब हमारी तार्किकता को विकसित करती है। ब्राहणवादी सत्ता ने जिस तरह से इंसान को इंसान से अलग किया और असमानता में फंसाकर नारकीय जीवन जीने को बाध्य किया। फुले की यह किताब उस खाई को पाटती है। यह किताब हमें तर्क करना सिखाती है। यह संदेश देती है कि तर्क नहीं करेंगे तो समानता की लड़ाई नहीं लड़ पाएंगे। जोतीराव फुले वैश्विक परिदृश्य से जुड़े थे। 1873 में सत्यशोधक समाज बनता है। उनके बाद ही औरतों का बहुत बड़ा आंदोलन उभरता है। फुले तर्क करना सिखाते हैं, समाज से गहरे जुड़ते हैं। जाति के खिलाफ अंतर्जातीय विवाह को प्रोत्साहन प्रदान करते हैं, जो हमें प्रेरणा देती है।

गेल का अहम योगदान : अनिल वर्गीज

इस मौके पर फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक अनिल वर्गीज ने कहा कि जब ‘गुलामगिरी’ लिखी गई थी, तो उसे फुले ने अमरिका के सदाचारी लोगों को समर्पित किया था। सौ साल बाद अमेरिका की सदाचारी बेटी गेल आम्वेट आईं और उन्होंने फुले की सोच को बड़े फलक पर ‘इकोनोमिक्स एंड पोलिटिकल विकली’ में प्रकाशित एक आलेख के माध्यम से महाराष्ट्र से पहली बार बाहर लेकर आयीं तथा बाद में उन्होंने इस पूरे विमर्श पर विपुल लेखन किया।

(संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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