मेरी दृष्टि राजेंद्र यादव के संपादकीय लेखों को पढ़ने वाले एक सजग पाठक की है। इस सजग पाठक का सौंदर्य बोध भी हिंदी साहित्य का नहीं है, वरन् दलित साहित्य का है। इसलिए, भगवावाद, प्रगतिवाद और मार्क्सवाद तीनों के साथ उनका बोध् टकराता है। भगवावाद को राजेंद्र यादव भी नापसंद करते हैं और मैं भी। प्रगतिवाद और मार्क्सवाद के साथ जिस तरह की सहमतियां राजेंद्र यादव की होती हैं, मेरी नहीं हो पातीं। इन तीनों ‘वादों’ में जो चीज मुझे ‘काॅमन’ लगती है, वह है उसका ‘ब्राह्मण फैक्टर’। इन तीनों में ब्राह्मण अपनी-अपनी फैकल्टी के साथ बैठा हुआ है। भगवा ब्राह्मण, प्रगतिवादी ब्राह्मण और समाजवादी (या मार्क्सवादी) ब्राह्मण एक-दूसरे के विरुद्ध तने रहते हैं, जिसका प्रतिफल यह है कि भगवावाद रोज मजबूत हो रहा है। कबीर ने जिसे ‘झूठे के घर झूठा आया’ कहा है, वही चीजें यहां दिखायी देती हैं। ब्राह्मण ब्राह्मण का खंडन करता है और भीतर से तीनों एक हैं। भारतीय चिंतन में ब्राह्मण की इस आंख मिचौली को दो ही व्यक्तियों ने पकड़ा– एक, पन्द्रहवीं सदी में कबीर ने और दूसरे बीसवीं सदी में डॉ. आंबेडकर ने। इन दोनों ने ब्राह्मण को बुद्धिजीवी मानने से इनकार किया और उनके बौद्धिक नेतृत्व का खंडन किया।
लेखक के बारे में
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कंवल भारती
कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।