[उत्तर प्रदेश में चुनावी माहौल के संदर्भ में जो कुछ सामने आ रहा है, उसे लेकर तमाम तरह की कयासबाजियां व दावे किये जा रहे हैं। खासकर भाजपा के दलित-ओबीसी विधायकों, मंत्रियों व नेताओं द्वारा एक-एक कर सपा की सदस्यता लेने के बाद परिदृश्य में जो बदलाव आया है, उसके निहितार्थ क्या हैं। इसी आलोक में चुनावी विशेषज्ञ व सीएसडीएस के निदेशक प्रो. संजय कुमार से फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने दूरभाष पर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का दूसरा और अंतिम भाग]
पसमांदा मुसलमानों के सवाल और उनकी भागीदारी को लेकर पहले भी सवाल उठता रहा है कि उन्हें केवल वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। क्या इस बार आप कोई परिवर्तन की अपेक्षा रखते हैं?
देखिए मुझे लगता है जिस तरीके की चर्चा पसमांदा मुसलमानों की बिहार में होती थी, वैसी चर्चा मुझे उत्तर प्रदेश में दिखाई नहीं पड़ रही है। लेकिन यह जरूर है कि उनके प्रतिनिधित्व को लेकर काफी चर्चा हो रही है। खासकर एआईएमआईएम इस बात का प्रचार कर रही है कि आपको [पसमांदा मुसलमानों को] हमेशा लॉलीपाप दिया गया। पार्टियों ने आपका वोट लिया, लेकिन कभी आप जीत करके असेम्बली में नहीं आए। इस बात का एआईएमआईएम बार-बार जिक्र भी करना चाह रही है कि पसमांदा मुसलमानों का हमेशा इस्तेमाल किया गया। बड़ी पार्टियों ने उनका वोट लिया और उनके हितों को नजरंदाज किया गया। और वो इस बात का जिक्र करते हैं कि जनसंख्या में पसमांदा मुसलमानों की कितनी हिस्सेदारी है और उनके कितने लोग जीतते हैं तथाअलग-अलग पार्टियों में उनकी हिस्सेदारी व हैसियत क्या रही है। सामान्यतया मुस्लिम समुदाय में अपील करने की कोशिश की जा रही है।