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‘बुद्ध शिव हैं और शिव ही बुद्ध’ (चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु का साहित्य – आठवां भाग)

जिज्ञासु की इस किताब से शिव के संबंध में ब्राह्मणों द्वारा फैलाईं गईं बहुत-सी अनर्गल और असंगत बातों का पता चलता है और यह भी कि शिव के स्वरूप का विकृतीकरण इस हद तक किया गया कि उन्हें योगी से भोगी, कामी और गॅंजेड़ी-भॅंगेड़ी बना दिया गया। पुनर्पाठ कर रहे हैं कंवल भारती

भारतीय सामाजिक व्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों में से एक जातिगत भेदभाव और छुआछूत तथा इसके धार्मिक संरक्षण को लेकर आवाजें उठती रही हैं। सत्य शोधन की इस परंपरा का आगाज जोतीराव फुले ने 19वीं सदी में किया। बीसवीं सदी में इस परंपरा को अनेक लोगों ने बढ़ाया, जिनमें मुख्य तौर पर डॉ. आंबेडकर का नाम भी शामिल है। चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु भी ऐसे ही सत्य शोधक थे। कंवल भारती उनकी किताबों की पुस्तकवार पुनर्पाठ कर रहे हैं। इसके तहत आज पढ़ें उनकी कृति ‘शिव-तत्व-प्रकाश’ का पुनर्पाठ

शिव-तत्व-प्रकाश : चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की सातवीं कृति

  • कंवल भारती

गतांक से आगे

चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की ‘शिव-तत्व-प्रकाश’ बहुजन-कल्याण-माला की पन्द्रहवीं पुस्तक है। इसका प्रथम संस्करण 1962 में प्रकाशित हुआ था तथा 1970 में इसका दूसरा संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण निकला था। यहॉं हम इसी दूसरे संस्करण के आधार पर इस विचार करेंगे। इसमें परिशिष्ट सहित कुल 14 परिच्छेद हैं। इसका पहला परिच्छेद ‘शिव और बुद्ध की एक-रूपता’ है, जिसे पढ़ते ही विचारों में उत्तेजना पैदा होने लगती है। इस तरह का विचारोत्तेजक सवाल उठाने वाला लेखन इससे पहले हिन्दी साहित्य में नहीं किया गया। यथा– “शिव का दार्शनिक स्वरूप उनकी ध्यानावस्थित मूर्ति है। शिव-योग ध्यान-योग है और शिव की समाधि ध्यान-समाधि। शिव की उपमा भगवान गौतम बुद्ध अथवा तीर्थंकर महावीर की ध्यान-रत मूर्तियों से दिया जाना ठीक प्रतीत होता है। विष्णु के साथ न तो शिव का मेल मिलता है, न महावीर तीर्थंकर का और न गौतम बुद्ध का। शैव-आगम तथा पुराणादि में ध्यानी शिव का जो वर्णन हुआ है, वह बिल्कुल वैसा ही है, जैसा कि ध्यानावस्थित सम्यक संबुद्ध का।” (शिव-तत्व-प्रकाश, पृष्ठ 5)

जिज्ञासु बुद्ध के साथ शिव की तुलना करते हुए लिखते हैं कि शिव के समान ही बुद्ध का विशाल शरीर भी कुन्देन्दु धवल है। वे भी निमीलित-लोचन पद्मासन में विराजमान हैं। शिव के जटाजूट के समान ही बुद्ध भी उष्णीष-शीर्ष हैं। शिव के तीसरे नेत्र के समान उनके ललाट पर भी दोनों भवों के बीच उफर्णा है।… दोनों पूर्ण संयमी, योगी, ध्यानी और महाज्ञान-स्वरूप हैं। “यदि इस दृष्टि से देखा जाए, तो जान पड़ेगा, मानो अज्ञान-ग्रसित कोटि-कोटि दुखित जीवों के दुख-मोचन के लिए करुणावतार, अनन्त ज्ञानागार, निर्वाण-मुक्ति के दातार, वीतराग, निष्कलंक चरित्र साक्षात शिव ने ही बुद्ध का अवतार ग्रहण किया है। बुद्ध शिव हैं और शिव बुद्ध हैं, दोनों में कोई विशेष अन्तर दिखाई नहीं देता।” (वही, पृष्ठ 6)

आगे जिज्ञासु ‘शैव-आगम’ के हवाले से लिखते हैं कि शिव अगणित विद्याओं के उद्भावक थे। शिवपुराण (1-27) में बताया गया है कि शिव 18 विद्याओं के आदिकर्ता हैं। इनमें “चार वेद, वेद के छह अंग– शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष, निरुक्त तथा मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र एवं आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद तथा अर्थशास्त्र शामिल हैं।” (वही, पृष्ठ 7-8)

इस आधार पर जिज्ञासु इस कथन का खंडन करते हैं कि बुद्ध विष्णु के नवें अवतार हैं। उनके अनुसार “बुद्ध के साथ विष्णु की कोई बात नहीं मिलती– गुण, कर्म, स्वभाव किसी में भी समता, सदृश्यताता या एकरूपता नहीं है।” वे आगे कहते हैं कि जैसे बुद्ध के साथ विष्णु का कोई सादृश्य नहीं है, वैसे ही निर्विकार शिव के साथ भी विष्णु की कोई तुलना नहीं है। (वही, पृष्ठ 8)

दूसरे परिच्छेद में ‘पुरातत्त्वीय खोज में आर्य-वैदिक धर्म की अपेक्षा शैव, जैन और बौद्ध धर्मों की प्राचीनता’ पर प्रकाश डाला गया है। शुरू में ही जिज्ञासु बहुत ही पते की बात बताते हैं– “अपनी काल-गणना के अनुसार ब्राह्मणी पुराण अपनी कहानी आदि सृष्टि से आरम्भ करते हैं और द्वापर के अन्त तक पहुॅंचकर कलयुग का वर्णन भविष्य के रूप में करने लगते हैं, यद्यपि विद्वानों की वैज्ञानिक शोध के अनुसार ब्राह्मणी पुराण लिखे गए जैन-बौद्ध धर्मों के बहुत पीछे घोर कलयुग में ही।”  

जिज्ञासु कहते हैं कि ब्राह्मणों की यह रीति रही है कि जो उनके विरुद्ध हैं, वे उसका मूलोच्छेद करके अस्तित्व मिटा देते हैं। यदि ऐसा सम्भव न हुआ, तो वे उसकी खूब निन्दा करके उसे बदनाम कर देते हैं, ताकि जनता उससे घृणा करने लगे। और जब यह उपाय कारगर नहीं हुआ, तो वे उसके भक्त बनकर उसमें घुस जाते हैं और अन्दर से विकृत और दूषित कर देते हैं। (वही, पृष्ठ 9)

जिज्ञासु लिखते हैं कि ब्राह्मणों ने “कुछ ऐसा ही बर्ताव शिव और शैव-धर्म के साथ किया। उनके अनुसार, “भारत की प्राचीन भाषा पाली और प्राकृत है। इन्हीं दोनों लोक-भाषाओं के आधार पर ब्राह्मणों ने एक नई संस्कार की हुई ‘संस्कृत भाषा’ गढ़ी और उसी में अपने शास्त्र-पुराण-काव्य आदि लिखे। जब ब्राह्मणी धर्म राजधर्म बन गया, तो राज-सहायता से वे धर्म के ठेकेदार बन गए।” किन्तु, जिज्ञासु कहते हैं– “समय ने पलटा खाया और भारत में अंग्रेजों का राज्य कायम हुआ, तो उन्होंने यहॉं की विविधता को देख असली बातें मालूम करने के लिए भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की।” जिज्ञासु के अनुसार, पुरातत्व विभाग की खोजों से ऐसी बातों का पता चला, जिन्हें विरोधियों ने या तो नष्ट कर दिया था, या उन्हें विकृत करके क्या से क्या बना दिया था। जिज्ञासु ने लिखा– “सारी कलई खुल गई। सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नाम की ब्राह्मणी काल-गणना निरी कपोल-कल्पित और झूठी साबित हुई। जिन वेदों को ब्राह्मण-गुरु समस्त ज्ञान का भंडार, अपौरुषेय और सृष्टि में प्राप्त ईश्वरीय ज्ञान कहा करते थे, वे अपेक्षाकृत आधुनिक निकले तथा शैव, जैन और बौद्ध धर्म भारत के सुप्राचीन आर्यपूर्व अनादि सनातन धर्म सिद्ध हो गए तथा ब्राह्मण बाहर से आए हुए विदेशी साबित हुए।” (वही, पृष्ठ 11) 

चंद्रिकाप्रसाद जिज्ञासु व उनकी पुस्तक “‘शिव-तत्व-प्रकाश” का आवरण पृष्ठ

जिज्ञासु के अनुसार इन विद्वानों ने भारत की आर्य-पूर्व प्राचीन सभ्यता का नाम ‘सिंधु सभ्यता’ रखा, क्योंकि सर्वप्रथम इस सभ्यता का दर्शन सिंधु-प्रान्त में ही खुदाई से हुआ था। बाद की खुदाइयों से पता चला कि यह सभ्यता भारत के विस्तृत भू-भाग में फैली हुई थी। उन्होंने पुरातत्वविद सर जॉन मार्शल का मत उद्धरित किया है– “सिंधु सभ्यता प्राक्-आर्य सभ्यता है और यहॉं की भाषा भी प्राक्-आर्य भाषा है। यह वैदिक या संस्कृत से नितांत भिन्न है।” (वही, पृष्ठ 14)

जिज्ञासु ने एक और पुरातत्वविद डा. प्राणनाथ का मत भी उद्धरित किया है, जिनकी रिपोर्ट ‘माधुरी’ (वर्ष 12, खंड 2) में प्रकाशित हुई थी। उनके मतानुसार “सिंधु उपत्यका के निवासी शिव और शक्ति के उपासक थे। हड़प्पा में मिली मुद्राओं पर ‘शिव’ शब्द अंकित है। मुद्राओं पर त्रिमुख योगाभ्यास-निरत देवता का चित्र है। मुद्राओं के चित्र से प्रतीत होता है कि यह अवश्य ही शिव की मूर्ति है। इस चित्र के दोनों ओर हाथी, चीता, गैंडा और भैंसा बने हुए हैं। शिव का एक नाम पशुपति है, संभव है, यह चित्र पशुपति शिव का प्रतीक हो। इसके अतिरिक्त बहुत से शिवलिंग भी मिले हैं। इससे सिद्ध होता है कि शैव-मत संसार के जीवित मतों में सबसे प्राचीन है।” (वही,पृष्ठ 14-15)

इसके बाद जिज्ञासु पुनः सर जॉन मार्शल की रिपोर्ट से उद्धरित करते हैं– ‘मोहंजोदड़ो और हड़प्पा की बहुत सी आश्चर्यजनक उपलब्धियों में कोई इतनी अद्भुत नहीं है, जितनी यह कि शैव-धर्म की उत्पत्ति कैल्कोथोलिथिक युग की है। इससे सिद्ध है कि यह शैव-र्ध्मद्ध संसार में सबसे प्राचीन जीवित धर्म है।’ (वही, पृष्ठ 15)

तीसरे परिच्छेद में, जिज्ञासु ने ‘आदि-योगीश्वर शिव और वैदिक रुद्र’ के बीच भिन्नता का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि शिव और रुद्र को एक ही समझना ठीक नहीं है। उन्होंने बताया है कि ये दोनों देव एक नहीं हैं, बल्कि अलग-अलग हैं। उनके अनुसार ब्राह्मणों ने शिव के स्थान पर वैदिक रुद्र को बिठाकर, शिव का विकृतीकरण किया है। इसे समझने की आवश्यकता है। हमें पहले इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि “शिव आर्य देव नहीं, बल्कि अनार्यों, ब्रात्यों और असुरों के देवता थे, और शिव-भक्त असुर लोग हिंसापूर्ण वैदिक यज्ञों को भंग कर देते थे, और यज्ञ करने वाले देवों को मारते थे।” जिज्ञासु लिखते हैं कि “जब आर्य देव शिव-भक्त असुरों से बल में जीत नहीं पाए, तो मंत्रणा करके वे शिव-भक्त बन गए और शिव को जनता की नजरों में गिराने के उद्देश्य से शिव-स्वरूप को मनमाना चित्रित करके पवित्र शैव-धर्म को भ्रष्ट करने लगे।” जिज्ञासु के अनुसार, ब्राह्मणों ने शिव के विकृतीकरण में, शिव को योगी से भोगी, अपने जैसा स्त्री-पुरुष वाला संसारी तथा वीभत्स करके ही संतोष नहीं किया, वरन् उन्हें संहारकारी और रुलाने वाला वैदिक रुद्र, कपर्दी, शुलपाणि और नरमुंड-मालाधरी, पशु-श्रृंग बजाने वाला, चिता-भस्म लेपन करने वाला, पंचमुखी, गॅंजेड़ी, भॅंगेड़ी, आक-धतूरा खाने वाला, नग्न-शरीर, अघोरी, वैदिक देव उपेन्द्र विष्णु का भक्त, विष्णु की मोहिनी मूर्ति के पीछे कामातुर हो दौड़ने वाला, इत्यादि, नहीं मालूम क्या-क्या बना डाला तथा उनके नग्न लेटे हुए शरीर की छाती पर लोल-जिह्न काली की वीभत्स मूर्ति खड़ी करके विवेक और ज्ञान, संयम-नियम और योग के आदर्श प्रतीक को पशुबल के नीचे कुचल दिया।” (वही, पृष्ठ 18)

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ब्राह्मणों की इस स्थापना के विरुद्ध कि शिव वैदिक रुद्र हैं, जिज्ञासु ने कई आपत्तियॉं व्यक्त की हैं। जिनके, उनके अनुसार, उत्तर नहीं मिलते। जिज्ञासु का कहना है– “शिव को जब देवाधिदेव महादेव कहा जाता है, तो वेदों में जहॉं इन्द्र, वरुण, सविता, अग्नि, मरुत, सोम, अश्विनी कुमारों इत्यादि देवों की स्तुतियों के सूक्त हैं, वहॉं महेश्वर शिव की स्तुति में भी कोई सूक्त होना चाहिए था। किन्तु शिव की न कहीं स्तुति है और न उनके आश्रम कैलाश का ही उल्लेख।” लेकिन, जिज्ञासु लिखते हैं कि रुद्र की स्तुति में सूक्त के सूक्त हैं, यजुर्वेद की पूरी शतरुद्री है। इससे यही साबित होता है कि रुद्र वैदिक देव हैं। जिज्ञासु के अनुसार वेदों में जहॉं-जहॉं भी शिव शब्द आया है, कल्याणकारी और हितकारी के अर्थ में आया है। “ऐसा एक भी मंत्र देखने में नहीं आया, जिसमें श्रद्धापूर्वक शिव को देवता मानकर उनकी स्तुति की गई हो।” (वही, पृष्ठ 19) 

जिज्ञासु ने महत्वपूर्ण प्रश्न किया है कि क्या इससे यह मान लिया जाए कि वेदों के रचना-काल में शिव नहीं थे? उत्तर भी जिज्ञासु ने दिया– “शिव थे, अवश्य थे और बहुत पहले से थे। किन्तु उस समय वह आर्यों के देवता न थे, शत्रु-पक्ष के नेता थे।” अगर शिव वेदों के रचना-काल में न होते, तो उनके विरुद्ध ऋग्वेद (7-21-5) में यह क्यों कहा जाता कि “हे आर्य, इन शिश्नदेव (शिव) के पूजकों से हमारे यज्ञों की रक्षा करें।” (वही, पृष्ठ 19-20) इससे स्पष्ट होता है कि “शिव और शिव-भक्त वेदों से प्राचीन हैं।” जिज्ञासु यह भी कहते हैं कि “शिवलिंग को शिश्न देव कहकर घृणा फैलाने की बुनियाद भी वेद-मूलक है।” (वही, पृष्ठ 20) 

शिव-भक्त कौन लोग थे? जिज्ञासु लिखते हैं कि इसका उत्तर तमिल-साहित्य में मिलता है। उनके अनुसार तमिल-भाषा के प्राचीन साहित्य से पता चलता है कि “द्रविड़ लोग परम शैवी और वैदिक आर्यों के घोर विरोधी थे।” (वही, पृष्ठ 20-21)

जिज्ञासु ने ब्रह्मपुराण की साक्षी से भी शिव के रुद्र होने का खंडन किया है। उनके अनुसार दक्ष ने शिव को अपनी पुत्री सती का समर्पण एक मिशन के तहत किया था। वह मिशन था– वैदिक देव और ऋषि जब शिव-भक्तों के निरन्तर विरोध से तंग आ गए तो उन्होंने मंत्रणा की कि यदि शिव को वैदिक देवों में शामिल कर लिया जाए, तो उनके भक्त असुरों का विरोध मिट जायगा और हम अपना मिशन शांतिपूर्वक चला सकते हैं। पर, शिव सती पर भोगासक्त नहीं हुए और न उन्होंने वैदिक यज्ञों का विरोध करना बन्द किया। तब दक्ष ने क्रुद्ध होकर शिव को कटुवचन कहे और अपमानित किया। जिज्ञासु कहते हैं कि इस कथा में दक्ष ने कहा– “कपर्दी और शाल धरण करने वाले ग्यारह वैदिक रुद्र हैं। यह बारहवॉं महेश्वर कौन है, इसे मैं नहीं जानता।” इससे स्पष्ट हो जाता है कि शिव वैदिक रुद्र कदापि नहीं है। (वही, पृष्ठ 23-25)

जिज्ञासु ने चौथे परिच्छेद में ‘शिवलिंग का तात्त्विक विवेचन’ किया है। उनका मत है कि ‘शिवलिंग’ आत्मा का प्रतीक है और ‘लिंग’ शब्द का अर्थ है– चिन्ह।’ वे विस्तार से बताते हैं– 

“आत्मवादियों के मतानुसार आत्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और निर्विकार है। यही कारण है कि विषधर भुजंग निर्वैर भाव से उस पर लोटा करते हैं। आत्मा धर्ममय है। इसीलिए धर्म-रूप वृषभ उसकी सवारी है। ब्रह्मांड गोल है, अतः उसका प्रतीक शिवाला भी गोल है, जिसमें चेतन आत्मदेव की ज्योति प्रकाशमान है, अर्ध उसकी व्यापकता का द्योतन करता है, सब देवी-देवता चारों ओर बैठकर उनकी आराधना कर रहे हैं और ब्रह्मांड में उसी का घंटा बज रहा है। आत्मा सर्वव्यापी है। अणु में अण्वात्मा है, पिंड में पिंडात्मा है और विश्व में विश्वात्मा है। कल्याण-रूप होने से आत्मा का नाम ‘शिव’ और ‘शंकर’ है। अतएव शिवाला विश्व-ब्रह्मांड का प्रतीक या माडल है।” (वही, पृष्ठ 27) 

जिज्ञासु के मतानुसार कारणवादी और कालवादी विद्वान शिवलिंग को संसार की निस्सारता और भंगुरता का प्रतीक बताते हैं। उनके अनुसार शायद इसी कल्पना के आधार पर शिव का एक नाम ‘महाकाल’ भी है। उनका मत है– “बुदबुद जल से उत्पन्न होकर कुछ काल में उसी जल में विलीन हो जाता है। शिवलिंग बुदबुदाकार है, शिवाला भी बुदबुदाकार है और सिद्धों, सन्तों, बुद्धों और अरहन्तों के स्तूप भी बुदबुदाकार बनाए जाते हैं।” (वही, पृष्ठ 28-29)

एक अन्य दृष्टिकोण से शिवलिंग को जिज्ञासु ने ‘उद्देशक स्तूप’ माना है। उनके अनुसार सन्त-महात्माओं की मृत्यु के उपरान्त उनकी स्मृति को सुरक्षित रखने के लिए उनके अनुयायियों द्वारा बुदबुदाकार स्तूप, चैत्य या पगोड़ा बनाकर उन्हें किसी ऊंचे स्थान पर स्थापित करने की परम्परा रही है। वे लिखते हैं– “ये स्तूप या चैत्य तीन प्रकार के होते हैं– एक वे, जिनमें सन्तों की अस्थियॉं या मृत शरीर रखे जाते हैं, इन्हें ‘धतु-चैत्य’ कहते हैं। दूसरे वे, जिनमें सन्तों के व्यवहार में आनेवाले वस्त्र या पात्रादि रखे जाते हैं, इन्हें ‘पारिभौगिक चैत्य’ कहते हैं। और, तीसरे वे, जो सन्तों की स्मृति के लिए बनाए जाते हैं, इनमें कोई वस्तु नहीं रखी जाती, वे ‘उद्देशक चैत्य’ कहलाते हैं।…इस दृष्टि से शिवलिंग आदियोगीश्वर शिव का ‘उद्देशक स्तूप’ (या चैत्य) है।” (वही, पृष्ठ 29)

आगे जिज्ञासु कुछ तत्वदर्शियों के हवाले से शिवलिंग को योग-साधना का शून्य-बिन्दु कहते हैं। वे कहते हैं कि बौद्धों के शून्यवाद की भूमि यही शून्य-बिन्दु है और यही कबीर आदि निर्गुण सन्तों के ‘सु-महल’ का मूल है। उनका मत है : ‘योग-शास्त्र में सबीज और निर्बीज दो प्रकार की समाधियां बताई गई हैं। निर्बीज समाधि सिद्धावस्था है और सबीज समाधिसाधनावस्था। निर्बीज समाधि में पहुॅंचने के लिए सामान्य साधक को पहले किसी बीज या बिन्दु पर मन को ठहराने का अभ्यास करना होता है। शिवलिंग उसी शून्य-बिन्दु का प्रतीक है, जिसमें शून्यता के सिवा कोई दूसरी भावना या कल्पना नहीं होती।” (वही, पृष्ठ 30-31)

हिन्दू धर्मशास्त्रों में शिवलिंग की उत्पत्ति के संबंध में, जिज्ञासु के अनुसार, अनेक ऐसी कथाएं गढ़ी गई हैं, जो पूरी तरह अनर्गल, अविश्वसीय और हास्यास्पद हैं। जैसे, एक बार भृगु शिव के निवासस्थान पर उनसे मिलने गए। उस वक्त शिव पार्वती के साथ विहार कर रहे थे। भृगु ने थोड़ी देर प्रतीक्षा की, पर शिव बाहर नहीं आए। तब क्रोधित होकर भृगु ने शिव को शाप दे डाला कि “तुम लिंग और भग हो जाओ, और वह लिंग-भग हो गए; और तभी से लिंग-भग रूप में उनकी पूजा होने लगी।” (वही, पृष्ठ 38) 

जिज्ञासु ने एक और कथा सौर-पुराण से उद्धरित की है, जिसके अनुसार ब्रह्मा और विष्णु में इस बात पर झगड़ा हो गया कि दोनों में कौन बड़ा है? “उसी समय अकस्मात एक लिंग विद्यमान हो गया, जिसके चारो ओर प्रलयकाल जैसी अग्निज्वाला प्रज्वलित हो रही थी और अर्द्धर्नारीश्वर शिव इसकी अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने ब्रह्मा और विष्णु दोनों को ललकारा कि जो इस लिंग के आदि और अन्त का पता लगा ले, वही बड़ा है। ब्रह्मा आकाश की ओर तथा विष्णु पाताल की ओर लिंग का पता लगाने गए, किन्तु दोनों हारकर लौट आए, लिंग का अन्त न मिला। इस पर महादेव ने दोनों को लिंगोपासना करने का आदेश दिया।” (वही, पृष्ठ 35-36)

जिज्ञासु के अनुसार वाममार्गी शक्त आचार्यों ने शिवलिंग का और भी गन्दा विकृतीकरण किया। उन्होंने लिंग-भग को अपनी साधना बना लिया। “ये लोग भैरवी चक्र में तरुण स्त्री के कुचों को शिखर, भंगाकुर को शिवलिंग एवं भग को अर्ध मानकर पूजा करने लगे।” 

इस प्रकार, जिज्ञासु का निष्कर्ष निःसन्देह सही है कि ब्राह्मणों ने अपने साहित्य में पवित्र शिव की जानबूझकर मिट्टी पलीद की है। उनके विकृतीकरण में उन्हें क्या से क्या बना दिया। (वही, पृष्ठ 37-38)

पॉंचवें परिच्छेद में जिज्ञासु ने ‘आदिमाता, प्रकृतिमाता या भुइयॉं-भवानी’ पर विस्तृत चर्चा की है। शिव के संबंध में यह चर्चा कितनी उपयोगी और प्रासंगिक है, और भुइयॉं माता से शिव का क्या संबंध है, यह देखना जरूरी है। जिज्ञासु लिखते हैं कि पुरातत्त्वीय खुदाई में धरती के गर्भ से निकली सिंधु-सभ्यता से यह स्पष्ट होता है कि “शिवोपासना, योगसाधना और आदिमाता भुइयॉं-भवानी की पूजा तथा वृषभ-प्रेम अर्थात गो-पालन प्राचीन काल से भारतीयों में चला आ रहा है। जिज्ञासु का मत है– “आदिमाता या प्रकृतिमाता की पूजा वस्तुतः भारतीयों की मातृभूमि पूजा है, जिसे ब्राह्मणों ने पहले शक्तिपूजा और शाक्त-मत नाम दिया और फिर निजी वैदिक देवों सविता, अग्नि, वरुण, मारुत और इन्द्रादि की पूजा-उपासना ढीली करके शिव-शक्ति की पूजा बड़े आडम्बर के साथ करने लगे और उसे अश्लील बनाकर जनता में गन्दगी फैलाने लगे।” (वही, पृष्ठ 39) 

जिज्ञासु का कहना है कि मातृभूमि की पूजा भारतीयों का आदिकालीन धर्म रहा है। ‘भारत के किसी गॉंव में, जहॉं भारत के आदिनिवासी रहते हैं और स्वाभिमान खो नहीं बैठे हैं, चले जाइए और देखिए। गॉंव के छोर पर प्रमुख मार्ग में किसी टीले पर, किसी नीम के पेड़ के नीचे, एक चबूतरा बना है, जिस पर एक लाल झंडी गड़ी है, और उसे ‘भुइयॉं-माता’ कहकर कोई पुत्र माथा झुका रहा है। जन्म, अन्नासन, केश-मुंडन, कर्ण-वेध और ब्याह आदि जितने भी मांगलिक कार्य हैं, कोई भुइयॉं-माता की पूजा के बिना पूरे नहीं हो सकते।” (वही, पृष्ठ 40) 

जिज्ञासु ने आगे इस प्रश्न पर भी विचार किया है कि आदिनिवासी भारतीयों की भुइयॉं-भवानी शाक्तों की शक्ति, भैरव-भैरवी और वाममार्गी तांत्रिकों की शक्ति कैसे बनी? जिज्ञासु इसके उत्तर में कहते हैं कि इसका कारण बौद्ध धर्म का पतन है। उनके अनुसार बौद्ध धर्म के पतन के बाद जो परिस्थितियॉं उत्पन्न हुईं, उसी के परिणामस्वरूप भुइयॉं-भवानी का विकृतीकरण हुआ। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद तीसरी धर्म-संगीति के उपरान्त बौद्ध धर्म का सर्वास्तिवादियों का एक नया सम्प्रदाय अस्तित्व में आया, जिनके मत को ‘महायान’ कहा गया। कनिष्क के समय में चौथी और अन्तिम संगीति के दौरान सर्वास्तिवाद के दो भेद हो गए– वैभाषिक और सौत्रान्तिक। इन दोनों में अश्वघोष, नागार्जुन और मैत्रेय जैसे महान दार्शनिक हुए। नागार्जुन ने ‘माध्यमिक शून्यवाद’ का प्रचार किया। इसी समय मैत्रेय ने ‘योगाचार’ का प्रचार किया। योगाचार से ‘मंत्रायान’ का विकास हुआ, मंत्रायान से काम न चला, तो ‘तंत्रायान’ आ गया। मंत्र और तंत्र की साधना करनेवालों ने बज्रयान का प्रकाश किया। बज्रयान से सभी कुछ निकला– शाक्त-सिद्धांत, वाम-मार्ग और पंचमकार सबका मूल यही बज्रयान है। बज्रयान से सिद्धयान निकला, जिसके तहत सिद्धयोगी खुल्लमखुल्ला मद्य-मांस का सेवन करते थे। वे मद्य का सेवन ध्यान की एकाग्रता के लिए, मांस का सेवन शरीर को पुष्ट रखने के लिए और स्त्री बिन्दु (वीर्य) की अक्षुण्णता के लिए करते थे। “ये लोग किसी एक स्त्री को ‘महामुद्रा’ (माध्यम) बनाकर उसकी सहायता से वाममार्गीय उपचार द्वारा यक्षिणी, डाकिनी, कर्ण-पिशाचिनी इत्यादि सिद्ध करते और अपनी सिद्धियों के बड़े-बड़े चमत्कार दिखाकर जनता को प्रभावित करते थे।” (वही, पृष्ठ 43-45)

इस संबंध में जिज्ञासु ने एक बहुत ही रोचक रहस्योद्घाटन किया है। वे लिखते हैं कि बौद्ध धर्म के पतनकर्ता आचार्यों में “अधिकांश भद्रकुलीय ब्राह्मण थे।” बौद्धों का अहिंसा धर्म ही ‘वैष्णव-धर्म’ के रूप में प्रकट हुआ। उन्होंने नीति यह बनाई कि “भीतर से शाक्त, बाहर से शैवी और आम जनता की दृष्टि में वैष्णव।” इस प्रकार, जिज्ञासु के मतानुसार, “इस भयंकर तांत्रिक गुप्त प्रचार के शिकार शिव और आदिमाता भुइयॉं-भवानी हुईं, और उनके नाना नाम और नाना रूप हो गए।” (वही, पृष्ठ 45-46)  

छठे परिच्छेद में ‘शैव-आगम और शैव-धर्म के चार भेदों’ का विश्लेषण किया गया है। पहले यह बताया गया है कि शैव-आगम क्या है? जिज्ञासु के अनुसार शिव के पॉंच मुख माने गए हैं– ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, अघोर और काम। उनका कहना है कि कश्मीरी शैवाचार्यों के मतानुसार शिव के पॉंच मुखों से 28 आगमों की उत्पत्ति हुई– ईशान से आठ, तत्पुरुष, सद्योजात, अघोर और काम से पॉंच-पॉंच। आगम का अर्थ है अनादि परम्परा से आया हुआ ज्ञान। यह भी रोचक है कि शैव-ज्ञान को आगम और वेदों के ज्ञान को निगम कहा जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि आगम वह ज्ञान है, जो वेदों से पूर्व विद्यमान था। जिज्ञासु ने बौद्ध और शैव धर्म की तुलना करते हुए लिखा है कि जिस तरह शिव के ईशान आदि पॉंच मुख या मूर्तियां हैं, उसी प्रकार ध्यानी बुद्ध की भी पॉंच मूर्तियां हैं– बज्रसत्व, रत्नसंभव, अभिताम, अमोघसिद्ध और वैरोचन। और जिस तरह 28 शैव-आगम हैं, उसी तरह गौतम बुद्ध के पूर्ववर्ती 28 बुद्ध हैं। (वही, पृष्ठ 49-51)

शिव-ज्ञान-तंत्र के हवाले से जिज्ञासु ने लिखा है कि शैव धर्म के चार भेद हैं– शैव, पाशुपति, सोम और लाकुलीश। उनके अनुसार इनमें शैव को ‘सौम्य’ बताया गया है, शेष तीन को ‘रौद्र’। शिव का सौम्य रूप तो ठीक है, क्योंकि शिव का अर्थ भी कल्याण है। पर, विश्व का रूप रौद्र कैसे हो गया? इस प्रश्न के उत्तर में जिज्ञासु कहते हैं– “ऐसा प्रतीत होता है कि शिव का रौद्रीकरण उस समय से होना आरम्भ हुआ, जब भोगेश्वर-परायण वैदिक आर्यों के पैर यहॉं जम गए और उन्हें शिव को वैदिक देवों में मिला लेने की आवश्यकता हुई।” (वही, पृष्ठ 51-52)

जिज्ञासु के अनुसार शैव-मत के भी चार भेद हैं– दक्षिण, वाम, मिश्र और सिद्धांती। “इनमें शब्दार्थ के अनुसार सिद्धांती उन्हें समझना चाहिए, जो प्राचीन सौम्य-भाव से संबंधित सिद्धांतों पर समाश्रित रहे। दक्षिण के दो भेद हैं– एक दाक्ष्णित्य अर्थात दक्षिण-देशीय, दूसरे दक्षिण, अर्थात दाहिने या सीधे सिद्धांतों के अनुयायी। वाम का अर्थ है उल्टा जैसे योग का उल्टा भोग, निवृत्ति का उल्टा प्रवृत्ति, शुद्धाचार का उल्टा भ्रष्टाचार, दक्षिणाचार का उल्टा वामाचार। चौथा मिश्र, जो दक्षिण और वाम दोनों को मानते हैं।” (वही, पृष्ठ 52)

जिज्ञासु के मतानुसार वामाचारी लोग अपने को शाक्त और कौल कहते हैं। बड़े-बड़े कुलीन धनवानों का इन्हें समर्थन और आश्रय मिलता है। ये लोग भैरवी-चक्र में तरुणी स्त्री के भंगाकुर की शिवलिंग मानकर पूजा करते हैं और स्त्री-पुरुष के रज-वीर्य का प्रयोग करते हैं। जिज्ञासु ने इस मत के प्रचारकों को शैव-धर्म को बदनाम करने वाले उसके शत्रु कहा है। (वही, पृष्ठ 54-55)

शैव-धर्म के ‘पाशुपत’ रूप के बारे में जिज्ञासु का मत है कि प्रागैतिहासिक युग में सिंधु-प्रदेश में जो योगी रहते थे, उनकी योग-साधना पाशुपत-योग थी। इसका अर्थ है कि यह अत्यन्त प्राचीन योग है। इस मत के प्रवर्तक महात्मा लाकुलीश को माना जाता है, जिसका समय ईसवी सन की प्रथम शताब्दी है। उन्होंने ही ‘पाशुपत-सूतत्र’ नामक ग्रन्थ की रचना की है। 

इस संबंध में जिज्ञासु ने विस्तार से चर्चा आठवें परिच्छेद ‘शैव-दर्शन और सूत्र’ में की है। उनका मत है कि “दार्शनिक युग में जब सूत्र-ग्रन्थों के लिखने की प्रथा चली, तो शैवों ने भी शैव-दर्शन और शैव-सूत्र लिखे।” शैव-दर्शन के अनुसार पॉंच भौतिक तत्व हैं– कार्य, कारण, योग, विधि और दुखान्त। जिज्ञासु के अनुसार, “जड़ प्रकृति और चेतन जीव दोनों ‘कार्य’ हैं, क्योंकि ये स्वेच्छा से सब कुछ करने में असमर्थ हैं। इसी से जीव को ‘पशु’ कहा गया है। सृष्टिकर्ता, पालक और संहारक होने से महेश्वर ‘कारण’ है, इसी से ‘पति’ है। विमल बुद्ध द्वारा विशुद्ध चित्त के माध्यम से महेश्वर से मिलन ही ‘योग’ है। महेश्वर से मिलने के लिए भक्ति, उपासना, ध्यान आदि साधना-व्यापार ‘विधि’ है। दुखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ‘दुखान्त’ है। यही संक्षेप में लाकुलीश का दर्शन है।” (वही, पृष्ठ 71)

लाकुलीश-दर्शन के बाद शिव से जुड़े दो दर्शन और हैं– वीर-शैव-दर्शन और काश्मीर शैवव-दर्शन। वीर-शैव-दर्शन के विषय में जिज्ञासु का कहना है कि इसके संस्थापक महात्मा वसवेश्वरर को माना जाता है, जो बारहवीं शताब्दी में कलचुरि-नरेश बिज्जल के मंत्री थे। उनके अनुसार, इन्होने “वीर-शैव लिंगायत-मत का प्रचार किया। इस मत के अनुयायी ब्राह्मणी वर्णव्यवस्था को नहीं मानते। इस मत का साहित्य कन्नड़ भाषा में है। जिज्ञासु के अनुसार वीर-शैव-दर्शनशिवाद्वैत है, यानी शिव और जीव के बीच कोई द्वैत नहीं है, अर्थात जीव और शिव दोनों एक ही हैं।” (वही, पृष्ठ 72)

काश्मीर शैव-दर्शन के बारे में जिज्ञासु का मत है कि इसका सूत्रपात लगभग नवीं शताब्दी में हुआ। उनके अनुसार इसे ‘त्रिकदर्शन’ या ‘प्रत्यभिज्ञा’ दर्शन भी कहा जाता है। यह दर्शन भी अद्वैतवादी है। यह जगत को सत्य मानता है, इस कारण से यह शंकराचार्य के ‘जगत मिथ्या’ वाले अद्वैतवाद से भिन्न है।

शिव-योग क्या है? इसका भी जिज्ञासु ने बेहतर विश्लेषण किया है। वे कहते हैं, “जिस साधना के द्वारा जीव कल्याण-स्वरूप परमतत्व शिव से मिल जाता है, उसे ‘शिव-योग’ कहते हैं।” जिज्ञासु लिखते हैं, “योग का आरम्भिक प्रयोजन यही था। किन्तु भारत में भोगैश्वर्य-परायण वैदिक आर्यों के समागम से योग के दो विभाग हो गए– एक पारमार्थिक अथवा निवृत्ति-मार्गीय योग; और दूसरा सांसारिक अथवा प्रवृत्ति-मार्गीय योग।” आगे, इस विषय में जिज्ञासु ने विस्तार से वर्णन किया है, जिसे पाठकों को अवश्य पढ़ना चाहिए। 

शिव का तीसरा नेत्र क्या है, जिसकी अक्सर मुहाबरे के तौर पर भी चर्चा होती है? कहते हैं, तीसरा नेत्र खुल जाने से योगी दूसरों के चित्त की बात जान लेता है। जिज्ञासु ने पुराणों के इस मत का खंडन किया है कि शिव ने तीसरा नेत्र खोलकर कामदेव को भस्म कर दिया था। वे कहते हैं, इसमें औपन्यासिकता है, वास्तविकता इतनी सी है कि तीसरा नेत्र खोलकर शिव ने अपने भीतर के काम को सदा के लिए भस्म किया था। जिज्ञासु के अनुसार तीसरा नेत्र खोलने की साधना तिब्बती योगी करते हैं। यह बहुत ही कठिन और पीड़ादायक अभ्यास है। शायद यह विश्वसनीय भी नहीं है। (वही, पृष्ठ 81)

शिवपुत्र गणेश

शिव के साथ उनके पुत्र गणेश का जिक्र स्वाभाविक रूप से आता है। इन्हें विघ्नहर्ता गणेश भी कहा जाता है। जिज्ञासु ने दसवें परिच्छेद में गणेश के संबंध में विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार गणेश शिव के पुत्र नहीं थे, अपितु शिव के अनुयायी थे। एक और बात उन्होंने यह स्पष्ट की है कि गणेश एक नहीं थे, बल्कि अनेक थे। गणेश कौन थे और कैसे बने, इसका बहुत ही रोचक इतिहास उन्होंने लिखा है। यह इतिहास उनके शब्दों में इस प्रकार है–

“उत्तर भारत पर प्रभुत्व हो जाने पर भी भोग और ऐश्वर्य के लोभी आर्यों को सन्तोष नहीं हुआ। वे दक्षिण में भी पैर पसारने का प्रयत्न करने लगे। जब आर्य ऋषि दक्षिण भारत के वनों में अपने आश्रम बनाने और यज्ञादि का आडम्बर फैलाने लगे, तो उनका प्रबल विरोध आरम्भ हो गया। राजाओं के युद्ध के अतिरिक्त जनता भी इसका प्रतिरोध करने लगी। जनता में ऐसे नायक पैदा हो गए, जो अपने दल बनाकर आर्य ऋषियों के यज्ञों को भंग कर देते थे और उनकी सारी चालें मिट्टी में मिला देते थे। इस आर्य-विरोधी जनांदोलन के गणेश या विनायक भारतीय जनता के प्राचीन काल के नेता थे। समस्त देश शैव-धर्म के अनुशासन में था, अतः आगन्तुक वैदिक आर्यों के ऋषि जब भारतीय शैव-संस्कृति के विरुद्ध प्रचार करने लगे, तो शैव-संस्कृति और देश की स्वाधीनता की रक्षा के लिए जो विनायक इन विदेशी अधर्मियों का गतिरोध करने के लिए बध्य परिकर हुए, वे ‘शिव-पुत्र’ कहलाने लगे।” (वही, पृष्ठ 83)

जिज्ञासु के अनुसार ये विनायक स्थान-स्थान पर जनता के दल-के-दल उठ खड़े हुए थे, और “दक्षिण की जनता इन गणेशों की श्रद्धापूर्वक पूजा करती थी, क्योंकि वे उसकी पवित्र संस्कृति और देश के रक्षक थे।” ब्राह्मणों द्वारा गणेश की पूजा कब और कैसे आरम्भ हुई? इस संबंध में जिज्ञासु का कहना है– “दक्षिण में इन विनायकों का ऐसा आतंक छा गया था कि आर्य ऋषि इनसे भयभीत थे, उनकी कोई चाल न चलने पाती थी, उनके हर काम में विघ्न-बाधाएं डालकर वे उसे विध्वंस और विफल कर देते थे। दक्षिण भारत की यह लहर उत्तर भारत में दौड़ गई थी, और जब इधर भी आर्य-प्रभुत्व की जड़ें हिलने लगीं, तो आर्य ऋषियों की चिन्ता बहुत बढ़ गई। उन्होंने आपस में मंत्रणा करके यह निश्चय किया कि हम लोगों को भी इन विनायक देवों की पूजा करना चाहिए, तभी इनका उपद्रव शांन्त होगा। इस प्रकार आर्यों ने उनकी सर्वप्रथम पूजा करने की प्रतिज्ञा की।” (वही, पृष्ठ 83-84) इसके बाद विनायक गणेश की स्तुति में हजारों छन्द लिखे गए। 

जिज्ञासु का मत है कि गणेश का नाम न वेदों-उपनिषदों में मिलता है और न बौद्ध त्रिपिटक में। उनके अनुसार बुद्ध के समय तक गणेश नहीं थे। गणेश की उत्पत्ति पुष्यमित्र शुंग का शासन स्थापित हो जाने के बाद हुई प्रतीत होती है, जब यज्ञों के कारोबार में फिर से तेजी आई, और जब यह प्रचार दक्षिण में बढ़ा, तो उसे रोकने के लिए दक्षिण में जनता खड़ी हो गई, जिसका नेतृत्व विनायकों और गणेशों ने किया। (वही, पृष्ठ 87)

ऐतिहासिक दृष्टि से गणेश की आलोचना के बाद, जिज्ञासु ने गणेश की आलोचना पुराणों के हवाले से की है। उन्होंने लिखा है कि पुराणों में गणेश के बारे में जो विवरण मिलता है, वह नब्बे प्रतिशत औपन्यासिक है। अर्थात मन-गढ़न्त और काल्पनिक है। जिज्ञासु के अनुसार, “उनमें कहीं लिखा है, गणेश की उत्पत्ति पार्वती की देह के मैल से हुई है; कहीं लिखा है, महादेव-पार्वती ने बहुत काल तक पुत्र के लिए श्रीकृष्ण का व्रत किया, और कृष्ण के वरदान से गणेश की उत्पत्ति हुई; कहीं लिखा है, मालिनी राक्षसी पार्वतीजी की देह का उबटन खाकर गर्भिणी हो गई थी और उसके गर्भ से गणेश की उत्पत्ति हुई और जन्म के समय गणेश के पॉंच सूड़ें थीं, जिनमें चार काट दी गईं; कहीं लिखा है, जन्म के समय गणेशजी मानवाकृति के सुन्दर बालक थे, परन्तु शनिदेवता की दृष्टि पड़ते ही उनका सिर उड़ गया, तब हाथी का सिर काटकर जोड़ दिया गया; कहीं लिखा है, शिव-पार्वती कामातुर हो हाथी और हथिनी का रूप धरकर वन में विहार करते थे, इसी के फल से हाथी-सूॅंड़ वाले मुॅंह का बच्चा पैदा हुआ इत्यादि।” जिज्ञासु के अनुसार ये सभी कहानियॉं परस्पर-विरोधी और अस्वाभाविक हैं। (वही, पृष्ठ 88)

शिव का ताण्डव

शिव की कथा में उनके ताण्डव-नृत्य का जिक्र भी आता है। यह क्या है? जिज्ञासु ने ग्यारहवें परिच्छेद में इस पर भी कुछ चर्चा की है। उनके अनुसार ताण्डव-नृत्य का जिक्र ‘शिव-महिमा स्त्रोत’ में मिलता है, जिससे पता चलता है कि ताण्डव-नृत्य इसकी रचना से पहले का है। किन्तु, जिज्ञासु ने लिखा है कि “गहराई में घुसकर पता लगाने पर इसका शिव से कोई संबंध नहीं पाया जाता।” वे आगे लिखते हैं– “कुछ बेहुनरे-व्यसनी लोगों ने अपने बेहुनरेपन और दुर्व्यसनों को अच्छा बनाने के लिए शिवजी के साथ जोड़ दिया है, जैसे कि भॅंगेड़ी भॉंग को ‘शिवजी की बूटी’, गॅंजेड़ी गॉंजा और चरस को ‘कैलाश के राजा का दम’ और शराबियों ने शराब को ‘भैरवजी का पान’ बना दिया, कुछ उसी तरह का यह ताण्डव-नृत्य भी साबित हुआ है।” (वही, पृष्ठ 89-90)

आगे जिज्ञासु ने ताण्डव-नृत्य का बहुत रोचक खुलासा किया है, जो उनके शब्दों में इस प्रकार है–

“यह विचित्र बात है कि ताण्डव-नृत्य को गंधर्व-विद्या का एक अंग माना गया है, परन्तु अभिनव गुप्त ने नाट्य-शास्त्र की टीका में बताया है कि ताण्डव-नृत्य का आचार्य ‘तण्डु’ है, जिसका दूसरा नाम ‘नंदि’ है। वह अंग-विक्षेप की क्रिया में निपुण था, और उसी अंग-विक्षेप का नाम ‘ताण्डव-नृत्य’ हो गया। इस तॉंडवी अंग-विक्षेप का संगीत और वाद्य से कोई संबंध नहीं, यह केवल मनोविनोद-मात्र है। अंगों का यह मटकाव जन्म और विवाह आदि के समय विनोद और हास्य के लिए होता था। ‘तण्डु’ के इस विनोदी अंग-विक्षेप या ताण्डव का शिव से कोई संबंध नहीं। परन्तु देखने वाले इसका मजाक न उड़ाएं, बल्कि श्रद्धापूर्वक देखें, इसलिए इसे ‘शिव-नृत्य’ बना दिया गया। और, इसका ऐसा प्रचार हुआ, जिसका ठिकाना नहीं, कवियों, मूर्तिकारों और चित्रकारों के लिए कला-प्रदर्शन का एक साधन मिल गया।” (वही, पृष्ठ 90)

जिज्ञासु ने शिव के कैलाशवासी होने का भी खंडन किया है। उन्होंने सवाल किया– “यह रमणीक कैलाश कहॉं है? क्या हिमालय-पार तिब्बत में गौरीशंकर की चोटी कैलाश है? वह तो हिमाच्छादित शैल-शिखर है, जहॉं मनुष्य की कौन कहे, पशु-पक्षियों की भी गति नहीं है।” हिन्दी-साहित्य में जिज्ञासु के सिवा यह प्रश्न किसी अन्य आलोचक ने नहीं उठाया। जिज्ञासु ने हिम्मत के साथ कहा– “ये सब ऐसी अद्भुत और बेमेल बातें हैं कि इनकी संगति नहीं लगती।” (वही, पृष्ठ 91) 

उपसंहार में जिज्ञासु ने राम और कृष्ण के चरित्र को नाजीवादी बताया है, शिव के स्वरूप को सार्वभौम। उनके अनुसार भोग, श्रम और अधिकारों के वितरण में जन्मवादी भावना ब्राह्मणवादी नाजी-प्रचार है। उनके मत में राम और कृष्ण जन्मवादी नाजी व्यवस्था के ही आदर्श हैं। उन्हें सार्वभौम बनाने का प्रयास, उनकी दृष्टि में, वैसा ही निरर्थक प्रयास है, जैसे भूसी कूटकर चावल निकालने का प्रयास है। उनका मत है कि मानवीय सभ्यता के नए आलोक में भारत बुद्धिमत्तापूर्वक अपनी केवल तीन ही विभूतियों को संसार के समक्ष रख सकता है, और वे हैं– शिव, जिन और बुद्ध। (वही, पृष्ठ 92)

जिज्ञासु की इस किताब से शिव के संबंध में ब्राह्मणों द्वारा फैलाईं गईं बहुत-सी अनर्गल और असंगत बातों का पता चलता है और यह भी कि शिव के स्वरूप का विकृतीकरण इस हद तक किया गया कि उन्हें योगी से भोगी, कामी और गॅंजेड़ी-भॅंगेड़ी बना दिया गया। यह अपने समय की पहली पुस्तक है, जो शिव के यथार्थ स्वरूप पर बुद्धिवादी दृष्टि से विचार करती है।

(क्रमशः जारी)

(संपादन : नवल/अनिल)


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कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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