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कर्पूरी ठाकुर को जैसा मैंने देखा : अब्दुलबारी सिद्दीकी (दूसरा भाग)

विरले ही राष्‍ट्रीय स्तर का कोई ऐसा नेता होगा, जिसने अपने नाम से ऐसा दरखास्त लिखा होगा। यह दरखास्त उन्होंने अपनी ही शैली में लिखा था। मैं 5-10 बार उस दरखास्त को पढ़ता रहा और सोचता रहा कि बताइये, कर्पूरी जी ने किन परिस्थितियों में अपने नाम से यह दरखास्त खुद लिखा होगा। संस्मरण साझा कर रहे हैं अब्दुलबारी सिद्दीकी

[बिहार सरकार के पूर्व मंत्री अब्दुल बारी सिद्दीकी वर्तमान में राजद के वरिष्ठ नेता हैं। वे उन नेताओं में हैं, जो बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर के बेहद नजदीक रहे। कर्पूरी ठाकुर का जीवन कैसा था और अपने जीवन में उन्होंने किस तरह का उच्च राजनीतिक मानदंड स्थापित किया था, इसे सिद्दीकी जी ने फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार से दूरभाष के जरिए विस्तार से बताया है। प्रस्तुत है इस लंबी बातचीत की दूसरी कड़ी]

जननायक कर्पूरी ठाकुर (24 जनवरी, 1924 – 17 फरवरी, 1988) पर विशेष

पिछली कड़ी के आगे : जब एक वृद्धा के लिए कर्पूरी जी ने अपने हाथ से लिखा दरखास्त

  • अब्दुलबारी सिद्दीकी

वर्ष 1977 में हम चुनाव में जीत गये। जीतने के बाद मुझे सोशलिस्ट ग्रुप के दोस्तों से जात-पात का पता चला। इसके पहले मुझे जाति वगैरह के बारे में जानकारी नहीं थी। उस समय सत्येन्द्र बाबू [सत्येंद्र नारायण सिंह] मुख्यमंत्री बनना चाहते थे और हम लोग कर्पूरीआइट थे। उस समय [पटना में] पारस नाम का एक छोटा सा होटल था। चुनाव जीत कर आये हुए सभी लोग वहां पहुंचे थे। हमारे ग्रुप के लोग जैसे कि मैं, मुंशीलाल राय, देवेन्द्र यादव, गणेश यादव चारों एक जगह इकट्ठा हुए थे। हम लोग एक-दूसरे के क्लोज फ्रेंड थे। आज भी देवेन्द्र यादव [पूर्व सांसद व पूर्व केंद्रीय मंत्री] मेरे दुःख-दर्द का साथी है, भले ही वह अपना पार्टी बदलता रहा।

 

हम सभी लोग कर्पूरी जी के पक्के फैन थे। उस समय [अन्य] लोग हमसभीको नौसिखिया बोलते थे। शमशेरजंग बहादुर जी कर्पूरी जी के पार्टी के थे, वे उस समय [पटना के] डाकबंगला रोड में एक होटल में ठहरे हुए थे। उन्होंने हमें नाश्ते पर आने के लिए खबर किया कि आप तीनों आदमी आ जाइये। मैं, गणेश और देवेंद्र – तीनों वहां पहुंचे। उस जमाने में कचौड़ी और जलेबी ही हमारे लिए बड़ी चीज थी। 

हमलोगों ने कचौड़ी और जलेबी खाई तथा इस तरह बातचीत शुरू हुई। उन्होंने [शमशेरजंग बहादुर] कहा– “देखो सिद्दिकी, हमलोग तो जिंदगी भर कर्पूरी जी के साथ रहे हैं। मगर कर्पूरी जी में एडमिनिस्ट्रेटिव क्षमता नहीं है।” तो जैसे ही उन्होंने यह बात कही, हमलोगों के कान खड़े हो गए कि यह “सत्येन्द्र बाबू की लॉबी कर रहे हैं।” 

बस, इतना ही उन्होंने बोला था कि हमने (मैंने ही) कहा कि “जिनकी ओर आपका इशारा है, उनमें कुछ नहीं है।” फिर उन्होंने कहा, “तुमलोग अभी बच्चे हो, नहीं जानते हो। उनमें एडमिनिस्ट्रेशन की कमी है।” हमलोग उनसे अपना पाला इस तरह से छुड़वाये कि “शमशेर बाबू, आपलोग कर्पूरी जी के साथ जुड़े रहे, उनके विचारधारा से भी जुड़े हुए हैं…, अच्छा अब हम तीनों लोग निकलते हैं। जायेंगे रिक्शा से, और रिक्शावाला से पूछेंगे कि केकरा [किसको] मुख्यमंत्री बनावे के चाहीं। पहले उसकी राय लेंगे और फिर आम आदमी की राय लेंगे। इसके बाद हम अपने दोस्त-महिम से बात करेंगे। बहुमत जिसको कहेगा, उसी को हमलोग वोट देंगे।” 

यह बात हम उनको डिमोरलाइज करने एवं टालने के लिए बोले थे। हमलोग तो कर्पूरी जी के आदमी थे। ब्रजकिशोर मेमोरियल संस्थान में [बहुमत प्राप्त गठबंधन की बैठक में मुख्यमंत्री का] चुनाव हो रहा था। हमलोगोें को तो ऐसा लगता था जैसे कि हमारा बाप चुनाव लड़ रहा है। पुराने सोशलिस्ट खेमे से लेकर बैकवर्ड मूवमेंट, लालू जी समेत सभी लोग एक जगह इकट्ठा हुए थे। उस इलेक्शन की बहुत चर्चा हुई। उस चुनाव में कर्पूरी जी जीते और सत्येन्द्र जी हारे। बेचारे सत्येन्द्र बाबू अब नहीं रहे। बड़े अच्छे आदमी थे। लेकिन उनकी जात [राजपूत] के उन्मादी लोग थे, उनलोगों ने कर्पूरी जी को क्या-क्या गालियां नहीं दीं। 

खैर, चुनाव हो गया और कर्पूरी जी मुख्यमंत्री बन गए। 

मैं कर्पूरी जी के सर्वहारा कैरेक्टर, एक आम आदमी के लिए पॉलिटिक्स करने के तरीके एवं उनके समय की पाबंदी के बारे में संक्षिप्त रूप में बताना चाहूंगा। हमलोगों को जानकारी नहीं थी कि पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी क्या होता है। लोग [मेरे बारे में] कहते थे कि हरिनाथ मिश्रा को हराये हैं, इसको मंत्रिमंडल में जरूर रखा जाएगा। लेकिन मुझे पार्लियामेंट सेक्रेटरी बनाया गया। हम बने और, गौतम सागर राणा, राजेश कुमार, सुधा श्रीवास्तव, कमला सिन्हा, ध्रुव भगत, काली मांझी, गोवर्द्धन नायक (जो अभी भी हमारे पार्टी में हैं), जगन्नाथ यादव ये सब लोग पार्लियामेंट सेक्रेटरी बने। जगन्नाथ यादव राजनीतिक व्यक्ति थे। वे रामसुन्दर दास जी के नजदीक थे। ये सभी लोग कर्पूरी खेमे से थे। हमलोग कर्पूरी जी के चरित्र, व्यवहार को देखते हुए उनके फैन थे। 

उनकी याददाश्त बड़ी तेज थी। एक बार हमारे यहां [दरभंगा के बहेड़ा में] एक तिवारी पुलिस इंस्पेक्टर बहुत बदमाशी करता था। हम सोचे थे कि कर्पूरी जी चीफ मिनिस्टर हैं, उनको कहेंगे तो उसका ट्रांसफर हो जाएगा। हमने कर्पूरी जी से टाइम मांगा। उन्होंने कहा कि 11 बजे रात को आ जाइये। तो उस समय हमलोगों को कहां पता था कि कर्पूरी जी के काम करने का तौर-तरीका क्या है। हमने कहा कि “ठाकुर जी, 11 बजे बहुत रात हो जाती है।” उन्होंने कहा कि “मैंने आपको 11 बजे का टाइम दिया है। [जहानाबाद के] रामचंद्र यादव, जो कैबिनेट में पशुपालन मंत्री हैं, उनको मैंने 12 बजे बुलाया है।” 

उसी समय मेरे एक बचपन का साथी कलकत्ता से आया हुआ था। विष्णु नाम था। अब तो उसका निधन हो गया है। मैं उस समय 13 हार्डिंग रोड में रहता था। उस समय चौकी भी नहीं होती थी, हमलोग नीचे बिस्तर बिछाकर सोते थे। हमें लगा कि ठाकुर जी मीटिंग टालने के लिए ऐसा कह रहे हैं। जब 11 बजने में 10 मिनट बाकी था, तब उनका फोन आया (उनकी आदत थी टेलीफोन लगवाकर खुद ही पकड़ लेते थे चोंगा) – तो मैंने टेलीफोन उठाय। उधर से उन्होंने कहा– “मैं कर्पूरी ठाकुर बोल रहा हूं।” 

युवाओं के साथ जननायक कर्पूरी ठाकुर

हम बहुत लज्जित हो गये। मैंने कहा– प्रणाम सर। उन्होंने कहा– सिद्दीकी साहब, (वो छोटे को यही बोलते थे। देखिए कि वह अपने से छोटों को किस तरह आदर देते थे। वह चाहते तो सिद्दिकिया कह सकते थे, सिद्दीकी भी कह सकते थे।) अब आप 11 बजे मत आइये। सुबह 6 बजे मेरे डेरे पर आ जाइये। 

उस समय सीएम आवास होता था– 12, बेली रोड। तो हम जो हैं उस समय एक तो जवान आदमी थे और जाड़े का दिन था। मुझे पहुंचने में 15-20 मिनट की देरी हो गयी। दरअसल होता यह था कि कर्पूरी सुबह 4 बजे से ही लोगों से मिलना शुरू कर देते थे। उनके आवास में एक मैदान था। वे लोगों की बात सुनने, दरखास्त कलेक्ट करने में लगे रहते थे। जिससे बात हो जाती थी, कह देते थे कि जाइए। यही उनके सर्वहारा कैरेक्टर की खासियत थी। 

जैसे ही हम वहां पहुंचे, उन्होंने घड़ी देखकर कहा– “आप बीस मिनट लेट हैं।” हम बहुत लज्जित हो गये। उन्होंने कहा– “ठहरिये”। जब साढ़े सात बज गया तब उन्होंने कहा कि मेरी गाड़ी में आप बैठ जाइये। उस समय मैं उनकी गाड़ी में अकेला नहीं था। साथ में चार लोग और भी थे, जो पीछे के सीट पर बैठे हुए थे। और छठे वह खुद भी थे। आगे की सीट पर उनका सिक्युरिटी गार्ड भी था। वह ऍम्बेज्डर कार थी। उस समय हालांकि वह चीफ मिनिस्टर थे, लेकिन आगे-पीछे गाड़ियां (एस्कार्ट गाड़ी) नहीं लेते थे। 

वे करते यह थे कि जिस-जिसको समय देते थे, उसको अपनी गाड़ी में बिठा लेते थे और जिससे उनकी बात हो जाती थी, उनको गाड़ी रोककर उतार दिया जाता था। मेरा नंबर डाकबंगला के आगे भट्टाचार्या मोड़ पर आया, जहां अब फ्लाईओवर बन गया है। हमने उन्हें उस पुलिस इंस्पेक्टर के बारे में बताया कि वह बहुत बदमाशी करता है। उसने हमें चुनाव में भी बहुत परेशान किया था। उन्होंने कहा – “ठीक है, अब आप यहां उतर जाइये।” (हंसी का ठहाका लगाते हुए) 

अब हम वहीं उतर गये। उस समय मैं विधायक था और पार्लियामेंटरी सेक्रेटरी भी। लेकिन तब इसका मतलब थोड़े ही था कि कोई गाड़ी हमारे पीछे-पीछे चलेगी। तो हमने वहां से रिक्शा पकड़ा और अपने डेरे पर आ गये। तब से हम उनके साथ छाया की तरह जुड़ गये।

एक बार कर्पूरी जी ने बच्चे की तरह मुझे सिखाते हुए कहा– “बबुओ, राजनीति में आजकल सब टिक नहीं पायेगा,टिकेगा वही, जिसके पास पैसे का अंबार होगा। दूसरा टिकेगा वह, जिसके पास ईमान होगा। ईमान को बिकने नहीं देना।” यह बात हम आज भी गांठ बांधे हुए हैं। उनका दो आना गुण भी हमारे पास आ जाए, तो बहुत है। उसके बाद हम उनसे ऐसे जुड़े कि समझिये हम उनके तीसरे बेटे थे। 

हम 1980 में चुनाव हार गये थे। मगर देखिए कि कर्पूरी जी हमें कितना मानते थे और समझते थे कि इस लड़के के पास कुछ भी नहीं है। खाने-पीने तक को मोहताज है। उस जमाने में विधायकों को पेंशन नहीं मिलता था। उस समय वे विधानसभा में नेता, विरोधी दल थे। मुंशीलाल राय उस समय जीते हुए थे। तो देखिए कि मैं पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी रहा था, इसके बाद भी उनके सरकारी आवास के सर्वेंट क्वार्टर का एक कमरा मैंने ले लिया था, जहां मैं रहता था। तो हो सकता है कि यह सब बात कर्पूरी जी जानते होंगे। 

आम तौर पर नेताओं की आदत होती है, बड़े नेताओं के यहां अपनी हाजिरी देने की। मेरे अंदर उतनी राजनीतिक निपुणता नहीं थी। 

एक बार कर्पूरी जी से मिलने गया उस समय एक मैं था और एक उनकी सुरक्षा में तैनात सिपाही। उन्होंने हमें कहा– “बबुओ, हमारे यहां प्राइवेट सेक्रेटरी की एक जगह खाली है। ऐसा करो कि तुम उस पोस्ट पर आ जाओ। तुमको कुछ करना नहीं है। समझो कि तुम पोलिटिकल सेक्रेटरी रहोगे। हम जो दर्खास्त इकट्ठा करके लाते हैं, उसको तुम देखना-समझना और फिर हमें बताना।” उस समय हम कुछ नहीं बोले। तब उन्होंने कहा कि “देखो, इसमें शर्म वाली बात कोई नहीं है। आप पोलिटिकल सेक्रेटरी के हैसियत से रहियेगा। आप हमें कल तक सोचकर बता दीजिए। हमको एक आदमी को रखना है।” 

यह भी पढ़ें – जननायक कर्पूरी ठाकुर को जैसा मैंने देखा : अब्दुलबारी सिद्दीकी (पहला भाग)

हम उधेड़बुन में थे, ज्वाइन करें या न करें। एक्सीपीरियंस का भी अभाव था। फिर ईगो (दंभ) भी था कि हम तो डिप्टी मिनिस्टर रैंक के रहे और अब अगर भले कर्पूरी जी हमको अपना पॉलिटिकल सेक्रेटरी कहें, लेकिन लोग क्या कहेंगे। इस तरह हम उधेड़बुन में थे। फिर हमको लगा कि नहीं, इतने बड़े नेता से जुड़ना और सीखना बहुत बड़ी बात है। उन्होंने हमारी मजबूरी को समझते हुए हमें ऑफर किया है। लेकिन हम अगले दिन नहीं गये। उस समय मोबाइल का जमाना नहीं था। फिर अगले दिन ठाकुर जी को अपनी सहमति देने गये जैसे ही हम वहां पहुंचे, उन्होंने कहा– “आप बनिए या नहीं बनिए, मैंने कल ही आपका नाम लिखकर भेज दिया है।” 

तो इस तरह मैं कर्पूरी जी कापोलिटिकल सेक्रेटरी बन गया। हमने जो भी ड्राफ्टिंग और डिस्पोजल का कार्य सीखा, उन्हीं से सीखा। डिक्टेशन तैयार कराने से लेकर टाइप कराने की जिम्मेदारी मेरी ही थी। कर्पूरी जी में यह खासियत थी कि जैसे वे अपना डिक्टेशन मुझे देते, फिर इससे मतलब नहीं है कि आप कितने भी निपुण क्यों न हों, वे बिना एक-एक अक्षर पढ़े, उसमें कौमा, फुल स्टॉप सुधारे, ठीक किये नहीं देते थे। 

उसी दौर में एक बार उनके नाम से उनका हस्तलिखित दरखास्त मुझे मिला। मेरे जीवनकाल में यह बहुत बड़ी घटना है। उन्होंने लिखा था– 

“सेवा में, 

क्षेत्रीय विधायक,

सोनबरसा विधानसभा क्षेत्र।

[उस समय कर्पूरी ठाकुर इसी विधानसभा क्षेत्र के प्रतिनिधि थे] 

विषय- वृद्धा पेंशन हेतु। 

महोदय, 

मैं इतने साल की वृद्धा हूँ। मेरा देखरेख करने वाला कोई नहीं है। न ही कोई मेरी संतान है, हमको वृद्धावस्था पेंशन नहीं मिलता है। 

आपकी बड़ी कृपा होगी कि हमें वृद्धावस्था पेंशन दिलवाये।” 

[नीचे वृद्धा का नाम भी कर्पूरी जी ने अपने हाथ से लिखा और वृद्धा के हाथ के अंगूठे का निशान भी लगवाया]

विरले ही राष्ष्ट्रीय स्तर का कोई ऐसा नेता होगा, जिसने अपने नाम से ऐसा दरखास्त लिखा होगा। यह दरखास्त उन्होंने अपनी ही शैली में लिखा था। मैं 5-10 बार उस दरखास्त को पढ़ता रहा और सोचता रहा कि बताइये, कर्पूरी जी ने किन परिस्थितियों में अपने नाम से यह दरखास्त खुद लिखा होगा। उनकी आदत से हमलोग भलीभांति परिचित थे। जैसे उस बूढ़ी औरत ने कहा होगा कि “ठाकुर जी, हमरा वृद्धावस्था पेंशन न मिलइ छी। वृद्धावस्था पेंशन दिला न द।” उन्होंने कहा होगा– “एगो दरखास्त लिखा के देहूं लियई।” तब वृद्धा ने कहा होगा कि “हमरा के लिख देतै, अपने लिख दियऊ न।”? तब उन्होंने अपने हाथ से दरखास्त लिखा होगा। 

लक्ष्मी साहू उनके ऑफिशियल प्राइवेट सेक्रेटरी थे। वे कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री बनने के पहले से उनके साथ थे। वे काफी सुलझे, मेच्योर्ड एवं राजनीति जानने-समझने वाले व्यक्ति थे। लक्ष्मी साहू जी जब आए तब हमने उन्हें कहा– देखिए ठाकुर जी अब अपने नाम से दरखास्त भी लिखने लगे। वह दरखास्त उन्होंने लेकर अपने पास रख लिया। मुझे आजतक अफसोस है कि उसकी प्रति अपने पास नहीं रख सका। हम साहू जी से वह दरखास्त मांगते रहे कि “कम-से-कम उसका फोटोस्टेटवा तो दे दीजिए।” लेकिन दुबारा नहीं मिला। वे मेरी बात को टाल देते कि “कहीं रखाया हुआ है, बाद में देंगे।” 

तो यह राष्ट्रीय स्तर के राजनेता का सर्वहारा कैरेक्टर का सबसे बड़ा उदाहरण है। 1977 में कर्पूरी जी जब चीफ मिनिस्टर हो गये तब उन्हें दो विधानसभा क्षेत्रों से ऑफर मिला था कि आप हमारे क्षेत्र से लड़िये। इनमें एक फुलपरास के विधायक देवेन्द्र यादव थे और एक हम बहेड़ा विधानसभा के विधायक थे। हम जानते थे कि हमारा क्षेत्र काफी टफ है। वहां मैथिलों का वर्चस्व है। जबकि यादव बहुल वाला क्षेत्र देवेन्द्र यादव के पास था। उन्होंने इस्तीफा दिया और कर्पूरी जी चुनाव लड़े। बाद में देवेंद्र यादव को एमएलसी बना दिया गया।  

मुझे एक बात और याद है। उनके इसी चुनाव में मेरी ड्यूटी मुस्लिम बहुल गांव में थी। उस गांव का नाम मुझे आज भी याद है। गांव नाम था शत्रुपट्टी। आज न आदमी कहीं जाता है तो देखता है कि ठहरने के लिए अच्छा होटल है या नहीं। लेकिन वहां एक आदमी से मुलाकात हुई। उनका नाम मुझे आजतक याद है। उनका नाम था– मोहम्मद जाहिद। वह एक पुराने सोशलिस्ट नेता थे। एक तरह से पूरा इलाका उनका ही था। अब वे इस दुनिया में नहीं हैं। लेकिन तब उन्होंने हमें इतना खिलाया कि समझिए कि हम एकदम लाल हो गये। मलाई, देशी मुर्गा आदि-आदि। एक दिन कर्पूरी ठाकुर जी उस गांव में सुबह छः बजे ही एकदिन घूमने के लिए आ गये। और मुझे मालूम भी नहीं था कि वह आएंगे। दरअसल, जहां-जहां उनका आदमी ले जा रहा था, वे वहां जा रहे थे। वे घर-घर घूम रहे थे। तब उनका ही एक सजातीय [नाई जाति का] उनसे मिलने की फिराक में था। कर्पूरी जी की दाढ़ी बढ़ी हुई थी। वह रास्ते भर कहता रहा– हमरा से आप दाढ़ी बनवा लीजिए। उन्होंने तेज आवाज में कहा– “मेरे पास दाढ़ी बनाने का वक्त है! लेकिन वह कहता कि ‘साहब, हमरा से दाढ़ी बनवा लीजिए, हम तर जाइम।” मुझे ठीक से याद नहीं है कि उस व्यक्ति से कर्पूरी जी ने अपनी ने दाढ़ी बनवायी या नहीं। लेकिन शायद उन्होंने दिलजोई के लिए, इसलिए नहीं कि उनकी जाति का है, उससे दाढ़ी बनवायी।

अब मैं सोने वाली एक घटना का जिक्र करूंगा। अक्सर मुझे पोलिटिकल सेक्रेटरी के रूप में उनके साथ जाना होता था। उस दौरान उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। उनके फुलपरास वाले चुनाव में [प्रचार हेतु] तत्कालीन गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह जी आए हुए थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई नहीं आए थे। चौधरी जी का यादवों में गजब का क्रेज था। एक बार उन्होंने कहा था कि “हमसे बूढ़ा यादव कौन होगा!” 

खैर, एक बार कर्पूरी जी दिल्ली गए। उस समय रामविलास पासवान अलग हो गए थे। उन्हें राज्यसभा सदस्य नहीं बनाया गया था। वे लोकसभा का चुनाव नहीं लड़े थे, इस वजह से उन्हें राज्यसभा सदस्य नहीं बनाया गया था। उस समय राम अवधेश सिंह जी जाने-माने ओबीसी के नेता थे। उनको न एमपी का टिकट मिला न ही एमएलए का। 

तो उस समय ऐसा नहीं था कि कर्पूरी जी के रहने के लिए बिहार निवास में जगह नहीं थी। रामविलास पासवान को हाइलाइट करने के लिए कर्पूरी जी उनके 12 जनपथ, दिल्ली स्थित आवास में रूकते थे। नेशनल लीडर के रूप में कर्पूरी जी की पहचान हो गयी थी। इसको ऐसे समझिए कि उस समय कांग्रेस को छोड़कर कोई पार्टी का नेता उन्हें इग्नोर नहीं कर सकता था। नम्बूदरीपाद, हरिकिशन सिंह सुरजीत, हेमवती नंदन बहुगुणा, देवीलाल जैसे जितने भी लोग थे, वे या तो रामविलास जी को फोन किया करके या आकर उनसे पूछते थे कि ठाकुर जी कब आ रहे हैं। इस वजह से रामविलास जी की हैसियत भी बढ़ी। 

उस वक्त पार्टी के 46-47 एमएलए थे। विधानसभा में नेता विरोधी दल का भी चैम्बर होता है। हम तो कर्पूरी ठाकुर जी के प्राइवेट सेक्रेटरी के हैसियत से भी रहे और खुद नेता विरोधी दल के हैसियत से भी वहां बैठे। ठीक उसके सामने पार्लियामेंट सेक्रेटरी का चैम्बर है। उसके सटे हुए उनके स्टाफ का चैम्बर है। कर्पूरी जी अकेले उस चैम्बर में बैठ गये। उन्होंने एक-एक एमएलए को बुलाकर राय लिया। सभी ने राम अवधेश जी को बहुमत दिया। कर्पूरी जी भी संभवत: यही चाहते थे। इस बात से पार्टी के ही एक नेताचिढ़ गये और पार्टी से अलग हो गये। उस समय उन्होंने एक बहुत गंदा स्टेटमेंट दिया था कि “मैं एक नेशनल लीडर हूं। कर्पूरी जी तो स्टेट लीडर हैं।” उन्होंने ‘धर्मयुग’ में अपने साक्षात्कार में भी यह बात कही थी। कर्पूरी जी तब प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया में अपना प्रोटेस्ट देने के लिए भी गये थे। उस जमाने में हस्तलिखित स्टेटमेंट देना होता था। अगर आपका अप्वाइंटमेंट है तो दूसरे को साथ लेकर अंदर नहीं जा सकते। अपना हस्तलिखित स्टेटमेंट लेकर ठाकुर जी ने मुझसे कहा कि “बउओ, तुम यहीं ठहरो, हम अभी आते हैं।” उस समय बिहार भवन में रूम खाली नहीं था। हमें एक डबल बेड का एक रूम मिला। उसी बेड पर उनके साथ हमें सोना था। हमारे जैसा आदमी कर्पूरी जी के साथ सोये, कहीं से मेरा दिल स्वीकार नहीं कर रहा था। मैं नीचे चादर बिछाकर तकिया लेकर सो गया। वे चार बजे उठकर बाथरूम गये। उन्होंने देखा कि मैं जमीन पर सोया हुआ हूं। उन्होंने मुझे डांटा कि “आप क्यों नीचे सोये! मैं उनकी कमजोरी समझता था।” मैंने कहा कि “नहीं ठाकुर जी, गद्दे में हमने कंफर्टेबल महसूस नहीं किया।” उन्होंने कहा, “बहुत गलत बात है, आप नीचे सोये, हम ऊपर सोये।” मैंने फिर कहा कि “ठाकुर जी, ऐसी बात नहीं है, बड़ा मोटा गद्दा है, उस पर सोने से मेरे कमर में दर्द हो जाता है।” हमने उनसे झूठ बोला था। उन्होंने कहा– “बात तो तुम्हारी ठीक है, अब जल्दी से उठिए, तैयार होइए, मार्निंग वाक के लिए चला जाए।” 

क्रमश: जारी

(प्रस्तुति : नवल किशोर कुमार, संपादन : इमामुद्दीन/अनिल)


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लेखक के बारे में

अब्दुल बारी सिद्दीकी

लेखक बिहार सरकार के पूर्व मंत्री हैं

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