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चुनावी प्रतीक नहीं, समतामूलक समाज की विचारधारा हैं डॉ. आंबेडकर और भगत सिंह

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवत सिंह मान ने भगत सिंह के पूर्वजों के गांव में जाकर शपथ ली, लेकिन उन्होंने भगत सिंह के विचारों को गति देने वाले किसी भी कार्यक्रम का ऐलान नहीं किया। भगत सिंह का उस गांव से रिश्ता इसी रुप में महज रहा है कि वह पूर्वजों का गांव है। भगत सिंह स्वयं वहां कभी नहीं रहे। दूसरा कि उस समारोह के बाद मुख्यमंत्री ने अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर का नाम तक नहीं लिया। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

किसी भी विचारधारा की अहमियत तभी होती है जब वह जीवन और समाज के हर क्षेत्र की गतिविधियों के बीच अपना घेरा बना ले। इस दौर में हिन्दूत्व की राजनीति पूरी संसदीय राजनीति के भीतर अपना घेरा बनाने में कामयाब दिख रही है। खासतौर से जो पार्टियां केवल चुनाव में कामयाबी के गणित से सक्रिय होती हैं, उन पार्टियों के हिन्दुत्व की राजनीति के चक्र में फंस जाना स्वभाविक होता है। अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी स्थापना के वक्त ही कहा था कि उसकी कोई विचारधारा नहीं है। इसलिए उसकी सक्रियता व राजनीति को लेकर लोगों के बीच भ्रम की स्थिति बनी रहती है। अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विरोध के नाम पर आंदोलन से लेकर पंजाब विधानसभा के 2022 के चुनाव तक की उसकी सफलता में जिन प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ, वे उसके अवसरों के हिसाब से प्रतीकों के दोहन का प्रमाण पेश करती हैं।

 

आम आदमी पार्टी ने पंजाब में अपनी सरकार बनने के बाद एक नए युगल प्रतीक को अपने लिए चर्चा का विषय बना लिया है। वह शहीद-ए-आजम भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर की तस्वीरों का सरकारी दफ्तरों में लगाने का ऐलान है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) भी शहीद-ए-आजम भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर को प्रतीक की तरह अलग-अलग इस्तेमाल करती रही है। लेकिन प्रतीक जब नारे की शक्ल लेते हैं तो वह लोगों की जुबां के हिस्से बन जाते हैं। 

डॉ. आंबेडकर का नाम कभी गांधी तो कभी लोहिया तो कभी ‘जय भीम लाल सलाम’ के रूप में युगल की तरह इस्तेमाल होता रहा है। समाज में बदलाव की चेतना की जो धार विकसित हुई है, आम आदमी पार्टी उसे अपने चुनावी हितों के रुप में मोड़ने में सबसे नई कामयाब राजनीतिक फार्मूल का नाम है। चुनाव और उसमें महारथी साबित करने का सार यही है कि वह वास्तविक परिवर्तन के प्रतीकों को वोट में तब्दील कर दें। 

आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में डॉ. भीमराव आंबेडकर के नाम का इस्तेमाल करने की प्रमुख दावेदार बनने की हर संभव कोशिश कर रही है। इसे एक फार्मूले के तौर पर हाल फिलहाल चुनावी स्तर पर कामयाबी को बनाए रखने में जोड़ा गया है। डॉ. आंबेडकर वस्तुत: प्रतीकों में बदले जा चुके हैं और वह एक विचारधारा की तरह उसका एक घेरा बन चुका है। 

अपने कार्यालय में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान। पार्श्व में डॉ. आंबेडकर और भगत सिंह की प्रतीकात्मक तस्वीरें

भाजपा ने डॉ. आंबेडकर के नाम पर न जाने कहां-कहां मकान व जमीन खरीदने और भवनों के मर मरम्मत करवाने का दावा किया है। वह इसी आधार पर डॉ. आंबेडकर की वास्तविक उतराधिकारी होने का दावा करती है। लेकिन दूसरी तरफ यह सच है कि उसके इस दावे के शोर के बीच ही रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या से लेकर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून और सामाजिक न्याय के विभिन्न कार्यक्रमों पर हमले हुए। 

आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में डॉ. आंबेडकर को नाट्य उत्सव का हिस्सा बना लिया। यानी पार्टियां प्रतीकों के लिए नए नए स्थान की तलाश में लगी हुई है। पंजाब मे उसने सरकारी कार्यालयों में दीवारों पर डॉ. अम्बेडकर के साथ भगत सिह की तस्वीर लगाने का ऐलान किया है। डॉ. आंबेडकर महज नाम और मूर्ति भर नहीं हैं। वे एक विचारधारा हैं। भगत सिंह भी एक विचारधारा के तौर भारतीय समाज में गहरे उतरे हुए हैं। ये भारतीय समाज में बुनियादी बदलाव के पक्षधर हैं। इनकी विचारधारा वास्तविक अर्थों में उनके हाथों में सत्ता सौपने की पक्षधरता से जुड़ी है जो कि वर्चस्व की विचारधारा और उसके ढांचे को समाप्त कर सकें। लेकिन इन्हें महज प्रतीकों में बदल देने की राजनीति का एक घेरा बना दिया गया है और इसके जरिये परिवर्तन के लिए पिछले सौ वर्षों में विकसित हुई चेतना को भोथरा करने की सतत कोशिश की जा रही है। 

विचारात्मक स्तर पर समाज में परिवर्तन के प्रति आम आदमी पार्टी की सरकार का कैसा रवैया है, इसके दो उदाहरण यहां काफी हो सकते हैं। मसलन दिल्ली में 2016 से लेकर 2021 तक अरविन्द केजरीवाल की सरकार ने महज चौदह अंतर्जातीय विवाह करने वाले जोड़ों को प्रोत्साहित किया है। जबकि यह कार्यक्रम डॉ. आंबेडकर की विचारधारा को विस्तार देने की कोशिश से जुड़ा है। इसी तरह यह जानना आशचर्यजनक होगा कि अनुसूचित जाति के छात्र छात्राओं के शिक्षित होने में बाधा नहीं खड़ी हो, इसके लिए देश भर में छात्रावासों के निर्माण किए जाने की एक योजना है, जो कि 1960 से चल रही है। लेकिन 2016 से लेकर 2021 तक दिल्ली में एक भी छात्रावास के निर्माण का प्रस्ताव तैयार नहीं हुआ। इसी तरह अन्य स्कीमों पर भी नजर डाली जा सकती है। 

पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार ने दो वजहों से भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर के युगल प्रतीकों का इस्तेमाल करना शुरू किया है। इसकी एक वजह यह है कि देश में सबसे ज्यादा पंजाब में अनुसूचित जाति की आबादी है, जिन्हें आमतौर पर दलित कहा जाता है। दूसरा भगत सिंह को पंजाब से जोड़ा जाता है। लेकिन पंजाब में आम आदमी पार्टी विचारधारा के तौर पर डा. अम्बेडकर और भगत सिंह को अपने कार्यक्रमों का आधार नहीं बना रही है बल्कि उनके नामों को जिन सीमित अर्थो में लोकप्रिय बनाया गया है उसी कतार को आम आदमी पार्टी बढ़ा रही है। भगत सिंह और डॉ. आंबेडकर दोनों भारतीय समाज के भीतर बुनियादी बदलाव के पक्षधर रहे हैं। न तो डॉ. आंबेडकर अनुसूचित जाति तक सीमित है और ना ही भगत सिंह की स्वीकार्यता पंजाब और सिख धर्मावलंबियों तक। 

पंजाब के मुख्यमंत्री भगवत सिंह मान ने भगत सिंह के पूर्वजों के गांव में जाकर शपथ ली, लेकिन उन्होंने भगत सिंह के विचारों को गति देने वाले किसी भी कार्यक्रम का ऐलान नहीं किया। भगत सिंह का उस गांव से रिश्ता इसी रुप में महज रहा है कि वह पूर्वजों का गांव है। भगत सिंह स्वयं वहां कभी नहीं रहे। दूसरा कि उस समारोह के बाद मुख्यमंत्री ने अपने भाषण में डॉ. आंबेडकर का नाम तक नहीं लिया। विचारधाराएं ढांचागत बदलाव की अगुवाई नहीं करें ,बल्कि वह एक भावनात्मक प्रतीकों में बदल जाएं, ऐसी राजनीति भारत में पार्टियां करती रही हैं। आम आदमी पार्टी भी उसी कतार में खड़ी हैं। राजीव गांधी ने भी भगत सिंह के पूर्वजों के इसी गांव में जाकर लोगों की आहत भावना पर मरहम लगाने की कोशिश की थी, जो कि ब्लू स्टार आपरेशन के फैसले से आहत थी। 

(संपादन : नवल/ अनिल)


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लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

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