उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर, गोवा समेत पांच राज्यों के चुनावी परिणाम अब आ चुके हैं। अपनी शक्ति, सामर्थ्य और विवेक के अनुसार हर आदमी इस विश्लेषण में जुटा हुआ है कि आखिर वह कौन सी शक्तियां थीं, जिन्होंने भाजपा को इतनी बड़ी जीत दी और वह कौन सी मुख्य खामियां थीं, जिसके कारण बहुजनों की राजनीति करने वाली पार्टियां परास्त हो गयीं। क्या परिणाम आपके सामने है। हारने वाले शीर्ष नेताओं की मजम्मत सोशल मीडिया पर जारी है। सवाल उठता है आखिर क्यों हार गयीं बहुजनवादी पार्टियां?
द्विजवादी पार्टियों के अनुसरण ने किया बेड़ा गर्क
हिंदी राज्यों की राजनीति में प्रतिभाग करने वाली बहुजन तबकों की पार्टियां लगातार फेल होती जा रही हैं, क्योंकि उनके पास बहुजनों की राजनीति का कोई स्पष्ट एजेंडा नहीं है। वे द्विजवादी पार्टियों को अपना रोल मॉडल मानती हैं और लगातार भटकती रहती हैं। उनके पास विचारधारा का कोई ठोस उदाहरण दिखाई नहीं देता है। मसलन समाजवादी पार्टी जो कि समाजवाद के नाम पर राजनीति करती है, उसमें समाजवाद का घोर अभाव है। वहीं बहुजनों की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी ने अपना सर्वनाश सर्वजन बनने के चक्कर में कर लिया। कांशीराम के श्रम से शीर्ष तक पहुंचनेवाली बहुजन समाज पार्टी को कांशीराम के जाने के बाद उसके महासचिव सतीशचन्द्र मिश्रा उसे गर्त में धकेलते रहे और पार्टी की अध्यक्ष मायावती उनके हर गलत-सही को प्रश्रय देती रहीं।
संविधान और डॉ.आंबेडकर के विचारों को आधार बनाकर राजनीति करने वाली इस पार्टी में लोकतंत्र गायब होता गया और अपनी आवाज उठाने वाले वरिष्ठ नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। दलितों को अपना स्थाई वोटबैंक मानने वाली इस पार्टी ने बहुजनों का बेशक इस्तेमाल किया और टिकट दागी छवि वालों और शोषकों को खूब बांटा। काडर के बरक्स पैसा लुटाकर आने वाले राजनेताओं ने बहुजन जनता से लगातार दूरी बनाये रखी और पार्टी से अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहे। बसपा जिन उद्देश्यों को लेकर बनी थी, उन उद्देश्यों से अलग होते ही उसका विघटन होता चला गया। समाजवादी पार्टी भी यादवों को छोड़कर अन्य पिछड़े वर्गों को साथ लेकर नहीं चल पायी और परशुराम की मूर्ति स्थापन के साथ अपने विचारों से स्खलित होती चली गई।

सात-आठ वर्ष पहले ही हो चुका था मायावती का अंत
जहां उग्र राष्ट्रवाद, विकास के झूठे वादे को लेकर चलने वाली द्विजवादी पार्टी भाजपा ने दो साल पहले से अपनी चुनावी तैयारी उत्तर प्रदेश सहित अन्य राज्यों में शुरू कर दी थी, वहीं बहुजन समाज की पार्टियों के नेता असली मुद्दों से भटक कर अपने वातानुकूलित घरों में हाथ पर हाथ धर बैठे रहे। आम जनता के सरोकारों से वे सीधे कटते चले गए। जनता के दुःख-दर्द और परेशानी में वे उसके साथ कभी भी खड़े हुए दिखाई नहीं दिए। हाथरस में हुए दलित लड़की के बलात्कार में प्रतिरोधी आवाज की जगह ये मौन साधे रहे। मायावती का राजनीतिक अंत सात-आठ वर्ष पहले ही हो गई थी। वे भाजपा के लिए रास्ता बनाती चल रही थीं। शायद उनकी यह सब करने की कोई मज़बूरी हो, परंतु पार्टी का विनाश करने के लिए उनका यह कदम ही काफी था कि इस बार के चुनाव में वह खामोशी की चादर ओढ़ी रहीं। दलितों व वंचितों के नए नायक के रूप में चंद्रशेखर रावण उर्फ़ आजाद के उदय ने दलितों को हुंकार भरने का अवसर दिया था, परन्तु चंद्रशेखर आजाद अभी उत्तर प्रदेश की राजनीति में वह फैक्टर नहीं बन पाए हैं कि वे दलित राजनीति को कोई दिशा दे सकें।
सामाजिक-सांस्कृतिक एकीकरण एकमात्र विकल्प
अमूमन सपा और बसपा एक-दूसरे की प्रतिद्वंदी दिखाई देती हैं, परंतु, इसका कारण दलित-बहुजन जनता नहीं, बल्कि इन पार्टियों के नेता हैं। सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने का दर भरनेवाली इन दोनों पार्टियों के बहुसंख्य नायक एक हैं। दोनों की कला-संस्कृति में साम्य है। अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ने वाले नेताओं ने 15 बनाम 85 का नारा पहले ही दे दिया था, परंतु इसके बाद भी दलित और पिछड़े वर्ग के बीच सांस्कृतिक एकता नहीं बन पा रही है। डॉ. आंबेडकर का सपना था कि दलित-बहुजन जातियों में रोटी-बेटी का संबंध बढाए बगैर इस समाज का भला होने वाला नहीं है। बीच-बीच में दलितों और पिछड़ों की एका के प्रयास बेशक हुए हैं। लेकिन यह नाकाफी रहे। इस चुनाव परिणाम के बाद इसकी जरूरत ज्यादा महसूस की जा रही है। भाजपा और संघ की कुत्सित मानसिकता के कारण निम्न जातियों को धार्मिक रूप से अंधविश्वासी और अंधभक्त बनाया जा रहा है। इससे निजात पाने की कोई वैकल्पिक राह आज बहुजन समाज के पास नहीं है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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