h n

डॉ. रामविलास शर्मा की ‘कुदृष्टि’

हम भी चाहते हैं कि वर्ग के आधार पर संगठित हों गरीब लोग, पर होते क्यों नहीं? आप धर्म को मजबूत करते रहें, रामचरितमानस को आदर्श बताते रहें और दलित-बहुजनों से कहें कि वे वर्ग के आधार पर संगठित हों। रामविलास जी सिर्फ बेवकूफ बना सकते थे, और वह उन्होंने बनाया। पढ़ें, कंवल भारती की यह समालोचना

डॉ. रामविलास शर्मा की एक किताब है– ‘परंपरा का मूल्यांकन’। उसके शुरु में ही वे लिखते है, “जो लोग साहित्य में युग-परिवर्तन करना चाहते हैं, जो लकीर के फकीर नहीं हैं, जो रूढियां तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिये साहित्य की परंपरा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है।” निस्संदेह परंपरा या इतिहास का ज्ञान साहित्य-रचना, खासकर आलोचना-कर्म के लिये बहुत आवश्यक है। ऐसे कई आलोचक हैं, जिन्होंने इतिहास को जाने बगैर आलोचना-कर्म किया है, जैसे रामचन्द्र शुक्ल और बाबू श्यामसुन्दर दास; इससे उनकी स्थिति कई जगह हास्यास्पद हो गयी है। उदाहरण के लिये कबीर की एक साखी है– “मीठा खॉण मधुकरी भाँति भाँति को नाज/दावा किस ही का नहीं, बिन बिलाइति बड़ राज।” बाबू श्यामसुन्दर दास ‘कबीर ग्रंथावली’ में इसका अर्थ करते हुए लिखते हैं, “ईसाई धर्म का उनके (कबीर के) समय तक देश मे प्रवेश नहीं हुआ था, पर बिलाइत का नाम उनकी साखी में एक स्थान पर अवश्य आता है– ‘बिन बिलाइत बड़ राज।’ यह निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता कि बिलाइत से उनका यूरोप के किसी देश से अभिप्राय था अथवा केवल विदेश से।” यदि बाबू जी ने इतिहास पढ़ा होता, तो उनकी आलोचना में यह हास्यास्पद स्थिति पैदा नहीं होती। उन्हें मालूम हो जाता कि वली के प्रभुत्व वाले क्षेत्र को विलायत कहा जाता था। ‘वली’ अरबी का शब्द है, जिसका अर्थ है, ईश्वर का मित्र या ऋषि। इसी वली शब्द से विलायत शब्द बना है। आचार्य शुक्ल के आलोचना-कर्म में तो इतिहास की अज्ञानता इतनी ज्यादा है कि यदि यहां मैं उनकी चर्चा करने लगा, तो रामविलास जी पीछे छूट जाएंगे। अब देखना यह है कि स्वयं रामविलास जी ने अपने आलोचना-कर्म में इतिहास और परंपरा का मूल्यांकन किस तरह किया है।

पूरा आर्टिकल यहां पढें : डॉ. रामविलास शर्मा की ‘कुदृष्टि’

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

संबंधित आलेख

‘अमर सिंह चमकीला’ फिल्म का दलित-बहुजन पक्ष
यह फिल्म बिहार के लोकप्रिय लोक-कलाकार रहे भिखारी ठाकुर की याद दिलाती है, जिनकी भले ही हत्या नहीं की गई, लेकिन उनके द्वारा इजाद...
‘साझे का संसार’ : बहुजन समझ का संसार
ईश्वर से प्रश्न करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन कबीर के ईश्वर पर सवाल खड़ा करना, बुद्ध से उनके संघ-संबंधी प्रश्न पूछना और...
‘आत्मपॅम्फ्लेट’ : दलित-बहुजन विमर्श की एक अलहदा फिल्म
मराठी फिल्म ‘आत्मपॅम्फलेट’ उन चुनिंदा फिल्मों में से एक है, जो बच्चों के नजरिए से भारतीय समाज पर एक दिलचस्प टिप्पणी करती है। यह...
‘मैं धंधेवाली की बेटी हूं, धंधेवाली नहीं’
‘कोई महिला नहीं चाहती कि उसकी आने वाली पीढ़ी इस पेशे में रहे। सेक्स वर्कर्स भी नहीं चाहतीं। लेकिन जो समाज में बैठे ट्रैफिकर...
दलित स्त्री विमर्श पर दस्तक देती प्रियंका सोनकर की किताब 
विमर्श और संघर्ष दो अलग-अलग चीजें हैं। पहले कौन, विमर्श या संघर्ष? यह पहले अंडा या मुर्गी वाला जटिल प्रश्न नहीं है। किसी भी...