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बहस-तलब : नई राह पर आरएसएस की ‘बाघ’ की सवारी

गांधीवादी, समाजवादी तथा वामपंथी सभी कह रहे हैं कि हमें संघ परिवार की विचारधारा से मुकाबला करने के लिए उदारवादी हिंदुत्व की छवि बनानी पड़ेगी, क्योंकि हमने लंबे समय तक इसे नकारा, जिससे इसका फायदा संघ परिवार ने उठा लिया। इन गैरतार्किक बयानों से संघ परिवार अति उत्साहित है, क्योंकि उसे लग रहा है कि अब उसकी हिंदू राष्ट्र की मंजिल बहुत ही निकट है। लेकिन इन उत्साहजनक ख़बरों के बावजूद अगर वह आज अपनी कट्टरपंथी छवि की जगह एक उदारवादी छवि दिखाना चाहती है, तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सरसंघचालक मोहन भागवत का तृतीय वर्ष में शिक्षावर्ग के समापन समारोह में दिया गया एक वक्तव्य उल्लेखनीय है। इस लंबे वक्तव्य में उन्होंने कहा कि “हमारी पवित्र न्याय व्यवस्था को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसके द्वारा लिए गए निर्णयों का सभी को सम्मान करना चाहिए। परंतु क्या हर मस्जिद में शिवलिंग खोजना सही है? जो मुस्लिम आक्रांता हमारे मंदिरों तथा पवित्र स्थानों को लूटने या नष्ट करने के लिए बाहर से‌ आए थे, वे वर्तमान भारतीय मुस्लिमों के पूर्वज नहीं हैं, वे मुस्लिम वास्तव में हमारे ही पूर्वजों के वंशज हैं, हमारी परम्पराएँ समान हैं, किन्हीं कारणों से उन्होंने धर्म परिवर्तन किया, उन्हें अपनी पूजा पद्धतियों को मानने का पूरा अधिकार भारतीय संविधान देता है, इस संबंध में किसी भी विवाद का समाधान आपसी सहमति से ही होना चाहिए, लेकिन मजबूरी में दोनों पक्षों को कोर्ट जाना पड़ता है, इसलिए सभी पक्षों को कोर्ट का फैसला मानना चाहिए।”

भागवत ने आगे कहा कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने केवल ऐतिहासिक और जरूरी कारणों से ही रामजन्म भूमि मुक्ति आंदोलन में भाग लिया था, लेकिन काशी की ‘ज्ञानवापी मस्जिद’ और मथुरा में ‘कृष्ण जन्मभूमि बनाम ईदगाह’ जैसे विवादों से संघ परिवार का कुछ भी लेना-देना नहीं है। इतिहास को हम बदल नहीं सकते, जिसको न हिन्दू ने बनाया है न मुस्लिम ने।”

सनद रहे कि संघ की आंतरिक सभा में अकसर जो राजनैतिक बहसें होती हैं, उन्हें पूर्णतः गुप्त रखा जाता है और यह भी परम्परा है कि वहां लिए गए निर्णयों को सरसंघचालक ही जनता के बीच में रखते हैं, इसीलिए इसे संघ का आधिकारिक बयान माना जाता है। अब मोहन भागवत के उपरोक्त महत्वपूर्ण बयान से यह मान लिया जाए कि क्या संघ अपनी पुरानी कट्टरवादी लाइन से अब पीछे हट रहा है? 

लेकिन मेरा यह मानना है कि अभी यह कहना और सोचना जल्दबाजी होगी। वर्ष 1925 में संघ की स्थापना का उद्देश्य देश को एक ‘हिंदू राष्ट्र’ में बदलना था, इसीलिए इन ताकतों ने स्वतंत्रता संग्राम में कभी भाग नहीं लिया। ‘हिन्दुत्व’ शब्द के सबसे बड़े प्रवक्ता विनायक दामोदर सावरकर ने कुछ हद तक इसमें भाग लिया था, लेकिन वे अंडमान की सेलुलर जेल की यातनाओं को न सह सके और तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से माफी मांगकर तथा सरकार से पेंशन लेकर पूना में एकाकी जीवन जीने लगे। गांधी हत्याकांड में उनका भी नाम आया, लेकिन सबूतों के अभाव में वे बरी हो गए। बाद में उनकी पुस्तक ‘हिंदुत्व’ में सबसे पहले हिंदुत्व शब्द और इसके रूपरेखा की बात की गई, यद्यपि हिंदू धर्म कभी भी एक ईश्वर को मानने वाला एकेश्वरवादी नहीं रहा है, जैसा कि इस्लाम और ईसाईयत में है। एक धर्म के आधार पर राष्ट्र निर्माण अत्यंत दुरूह कार्य था, इसी कारण वे असफल रहे। वास्तव में वे इस धर्म को ‘राजनैतिक इस्लाम’ की तरह ‘राजनैतिक हिन्दुत्व’ बनाना चाहते थे। उनकी चाहत हमेशा इसी हिंदुत्व की परिभाषा और रूपरेखा की नींव पर एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना करने की थी। सावरकर तथा सभी हिंदूवादी संगठन भारत को पाकिस्तान की तरह एक धार्मिक राष्ट्र बनाना चाहते थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू की धर्मनिरपेक्षता की नीति के कारण इन लोगों की बिलकुल नहीं चल सकी। इसीलिए वे आज भी नेहरू को हिंदू राष्ट्र की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं तथा उनसे बेइंतहां घृणा करते हैं। 

इतना ही नहीं, भारतीय संविधान के निर्माण के समय भी संघ परिवार ने धर्मनिरपेक्षता की नीतियों का विरोध किया थ। वैसे ये लोग तो संवैधानिक लोकतंत्र के भी विरुद्ध थे। उनका मानना था कि इस तरह की व्यवस्था हिंदू धर्म में निहित नहीं है, लेकिन बाद में बहुत जल्दी समझ में आ गया कि वे लोकतंत्र को हटाकर देश में राजशाही जैसी व्यवस्था कभी भी नहीं ला सकते हैं। लेकिन वे अपने मूल सोच के प्रति कायम हैं। इसका उदाहरण हमें वर्तमान की एक घटना में देखने को मिलता है, जब नेपाल में लोकतंत्र बहाली के बाद ये तत्व राजशाही हटाने तथा हिंदू धार्मिक राष्ट्र की जगह धर्मनिरपेक्षता की नीति के खुलेआम विरोधी हो गए।

अब मूल बात पर आते हैं कि देश में संविधान लागू हो जाने के बाद संघ परिवार अच्छी तरह से समझ गया कि इन स्थितियों में बदलाव अब संभव नहीं है, और इसलिए वे कहने लगे कि हमारे देश में गणतंत्र की कुछ परम्पराएं बहुत प्राचीन हैं। मसलन, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार के कुछ भागों में प्राचीन कबिलाई समाज के बचे-खुचे अवशेष तथाकथित गणतांत्रिक नगर राज्य माने जाते थे, जिसमें कबीले के मुखिया का चुनाव ‘अभिजनगण’ करते थे, जो जनता द्वारा निर्वाचित नहीं होते थे। इन्हीं में लिच्छवियों के एक गणतंत्र कपिलवस्तु में गौतम बुद्ध का जन्म हुआ था। सवाल है कि क्या इसी तरह के गणतंत्र की चाहत संघ परिवार की‌ थी, जिसमें जनता की कोई भागीदारी नहीं थी? लेकिन इसका उत्तर तो अभी भी भविष्य के गर्भ में ही छिपा है।

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

बाद के दौर में संघ की राजनीतिक पार्टी भारतीय जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) तक की यात्रा से वे सभी लोग परिचित हैं, जो भारतीय राजनीति का इतिहास जानते-समझते हैं। परंतु इसमें एक तथ्य को अवश्य रेखांकित किया जाना चाहिए कि 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगा दिया था। यह वही समय था, जब आरएसएस की राजनीतिक पार्टी जनसंघ ने राजनीति का पहला स्वाद चखा। अब यह छोटे शहरी व्यापारियों तथा दुकानदारों की पार्टी से सभी सामाजिक वर्गों को समाहित करने की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रही थी। आपातकाल में आरएसएस पर प्रतिबंध लगने के कारण यह प्रक्रिया बहुत तेजी से आगे बढ़ी, यद्यपि आपातकाल में बंदी बनाए गए सरसंघचालक सहित संघ के अधिकांश कार्यकर्ता‌ माफी मांगकर छूट गए। सरसंघचालक ने तो इंदिरा गांधी से समझौते की भी पेशकश की थी, क्योंकि उन्हें लगता था कि आपातकाल अब अनंत काल तक चलेगा, लेकिन आपातकाल हटते ही इंदिरा गांधी के फासीवादी शासन के खिलाफ़ कम्युनिस्टों को छोड़कर सभी ग़ैर कांग्रेसी दलों ने एकजुट होकर ‘जनता पार्टी’ नामक पार्टी का गठन किया। चुनाव में इंदिरा गांधी, संजय गांधी तथा कांग्रेस पार्टी की भारी पराजय के बाद जो नया मंत्रिमंडल बना, उसमें जनसंघ ने संचार एवं विदेश मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग हथिया लिया। 

वास्तव में इसने बाद के दौर में संघ परिवार की हिंदुत्व की राजनीति में बहुत मदद की। बाद के दौर का इतिहास ज्यादातर लोगों को ज्ञात है कि किस तरह संघ परिवार ने भारतीय राजनीति और संसद में सीधे-सीधे प्रवेश किया तथा षड्यंत्रपूर्ण तरीकों से जनता पार्टी को छिन्न-भिन्न कर दिया और भारतीय जनसंघ की जगह एक घोर हिंदूवादी भाजपा नामक दल का गठन किया। यह हिन्दुत्व ‌के अभियान का दूसरा महत्वपूर्ण पड़ाव था, इसके बाद की यह यात्रा बहुत तेज और संक्षिप्त है। 

एक दौर के “हिंदू हृदय सम्राट” लालकृष्ण आडवाणी को दो बार संघ द्वारा प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाने के बाद भाजपा की भारी हार हुई। संभवत: इसी के फलस्वरूप पाकिस्तान में उनके द्वारा जिन्ना के मज़ार पर श्रद्धांजलि देने तथा राष्ट्रवादी कहने का बहाना बनाकर उन्हें संन्यास लेने पर मजबूर कर दिया गया। आज वे दिल्ली में लुटियंस जोन के अपने बंगले में संभवत: नितांत अकेले रहते हैं। यह एक प्रतिक्रियावादी महानायक की त्रासदी है।

एक अनजान संघ प्रचारक से गुजरात के दो बार मुख्यमंत्री तथा दो बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र दामोदर मोदी की राजनैतिक विकास यात्रा भी राजनीति की समझ रखनेवालों के लिए छिपी हुई नहीं है।। वर्ष 2002 के गुजरात के दंगों में उनका हाथ माना जाता था। हालांकि सबूतों के अभाव में वे बेदाग छूट भी गए। संभवतः यही कारण था कि संघ ने उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। वे इस पर खरे भी उतरे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में गोरखपुर के एक सबसे महत्वपूर्ण मठ के विवादास्पद महंत; जिन पर अल्पसंख्यकों के खिलाफ़ भड़काऊ भाषण देने के आरोप थे और मुकदमे भी दर्ज थे, लेकिन वे कोर्ट से बाइज्जत बरी हो गए। 

संघ ने इन दोनों को हिंदुत्व के दो बड़े आईकाॅन के रूप में पेश किया। यह वही समय था जब रामजन्म भूमि -बाबरी मस्ज़िद विवाद जो आजादी के बाद करीब-करीब 65 वर्षों से लंबित था। विवादास्पद रूप से इसका फैसला हिंदुओं के पक्ष में आया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसका सारा श्रेय अपने ऊपर ले लिया। यद्यपि यह बात आंशिक रूप से बिलकुल सत्य है। ये दोनों ही नेता संघ परिवार की अपनी पसंद हैं, इसलिए अब इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि इस फैसले ने हिंदुत्व की राजनीति को नये मुकाम पर पहुंचा दिया है। कई साल पहले की बात है कि संघ के एक वरिष्ठ नेता ने मुझे बतलाया था कि कुछ ही वर्षों में हमलोग ऐसी परिस्थितियां ला‌ देंगे कि सभी दल हिंदुत्व की ही बात करेंगे। भाजपा या अन्य कोई भी पार्टी जो भी हिंदुत्व का समर्थन करेगा, हम उसका समर्थन करेंगे। इस लिहाज से भाजपा का चुनाव ही अब उनकी मजबूरी नहीं है। ये चीजें आज बहुत स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रही हैं। कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक दलों में सबसे बड़ा हिंदू बनने की होड़ लग गई है। 

यहां तक कि एक समय प्रगतिशील कहे जाने वाले बुद्धिजीवी, जिनमें गांधीवादी, समाजवादी तथा वामपंथी सभी हैं, वे भी कह रहे हैं कि हमें संघ परिवार की विचारधारा से मुकाबला करने के लिए उदारवादी हिंदुत्व की छवि बनानी पड़ेगी, क्योंकि हमने लंबे समय तक इसे नकारा, जिससे इसका फायदा संघ परिवार ने उठा लिया। इन गैरतार्किक बयानों से संघ परिवार अति उत्साहित है, क्योंकि उसे लग रहा है कि अब उसकी हिंदू राष्ट्र की मंजिल बहुत ही निकट है। लेकिन इन उत्साहजनक ख़बरों के बावजूद अगर वह आज अपनी कट्टरपंथी छवि की जगह एक उदारवादी छवि दिखाना चाहती है, तो इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं? 

इस समय भारत को दुनिया में बड़ी अर्थव्यवस्था वाला राष्ट्र माना जाता है। संभव है कि साम्राज्यवादी पूंजी से मोल-तोल करने के लिए स्वदेशी का नारा भी उछाला गया है। संघ की एक संस्था ‘स्वदेशी जागरण मंच’ ने हिंदुत्व के पहले ही दौर में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार तथा स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने की मुहिम को लेकर कुछ समय के लिए बकायदा अभियान तक चलाया था। वास्तव में यह मूल मुद्दों से जनता का ध्यान हटाने की एक कोशिश मात्र थी। भारत जैसे देशों के लिए लंबे दौर का उग्रवाद इसलिए भी घातक है, क्योंकि इससे विदेशी निवेशकर्ता देश में निवेश पूरी तरह बंद या कम कर सकते हैं। इसके प्रभाव से श्रीलंका की तरह भारी आर्थिक संकट पैदा हो सकते हैं एवं यह हिंदुत्व की राजनीति के लिए घातक हो सकते हैं। 

इसलिए अब मुझे लगता है कि भविष्य में संघ परिवार के हिंदुत्व की राजनीति का परिदृश्य यह होगा कि वह ढेरों कुकुरमुत्तों’ की तरह उग आए हिंदूवादी संगठनों को निष्क्रिय या फिर ‘फ्रिंज एलिमेंट’ ‌बताकर बिलकुल पाकिस्तान की तरह उनसे किसी तरह के संबंधों के न होने का दावा करेगा। हालाँकि उसके उनसे संबंध जगजाहिर हैं। 

सच्चाई तो यह है कि वे संघ परिवार के ही हिस्से हैं। मुस्लिमों के खिलाफ़ हो रही व्यापक हिंसा को अब वे कानूनी व्यवस्था की समस्या ही मानेंगे। कुछ लोगों की दिखावे के लिए गिरफ्तारियां भी होंगी, लेकिन वे जल्दी ही जमानत पर रिहा हो जाएंगे तथा कुछ दिनों बाद दोषमुक्त भी करार दिए जाएंगे। विरोध की हर आवाज़ों को डरा-धमकाकर या लालच देकर चुप करा दिया जाएगा, जो आज भी व्यापक तरीके से हो रहा है। इतिहास,कला, साहित्य और संस्कृति में हिंदुत्ववादी बदलाव की कोशिशें अब तेज होंग। हालाँकि इसमें यह बड़ी बाधा है कि संघ परिवार के पास ऐसे बुद्धिजीवियों का भारी अभाव है, जो संघ परिवार की अपनी ही विचारधारा को पढ़कर दूसरे को समझा सकें। इसलिए वामपंथी सहित अनेक दलों से ऐसे अनेक बुद्धिजीवियों को ‘लिफ्ट’ कराने की योजना भी चल रही है। लेकिन फिलहाल इस मुहिम में उन्हें बहुत कम सफलता मिली है। उन्हें आशा है कि वे भविष्य में इसमें सफल होंगे। हिंदुत्व ‌की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या यह है कि अमेरिका, इंग्लैंड तथा जर्मनी जैसे विकसित देश व्यापक मानवाधिकारों के हनन के लिए उन्हें घेर रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ी चिंता पेट्रोलियम पदार्थों से परिपूर्ण खाड़ी के मुस्लिमबहुल समृद्ध देशों से है। कतर और सऊदी अरब जैसे देशों से भारत करीब-करीब तीन -चौथाई तेल का आयात करता है। भारी पैमाने पर उनसे आयात-निर्यात भी होता है। लाखों की संख्या में हमारे कामगार वहां कार्यरत हैं, जिनसे करोड़ों की विदेशी मुद्रा देश को प्राप्त होती है। अगर इन सबमें थोड़ी सी भी रोक लग जाए तो पहले से ही खस्ताहाल अर्थव्यवस्था भारी संकट में फंस सकती है। देशभर में मुस्लिम उत्पीड़न की घटनाओं पर मुस्लिम देशों का संगठन तथा अन्य मुस्लिम देश हमेशा चुप्पी साधे रहते हैं। पाकिस्तान ज़रूर इन सबका विरोध करता है, लेकिन भारत को उसकी कभी कोई परवाह नहीं रही। संघचालक के उदारहिन्दूवादी वक्तव्य के कुछ ही‌ समय के बाद भाजपा के दो प्रवक्ताओं द्वारा एक डिबेट में जिस तरह नुपुर शर्मा तथा नवीन जिंदल के ‘नबी’ पर अवांछित टिप्पणी करने पर जिस तरह अपने देश तथा समूची दुनिया में जो उबाल आया, उसने भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को भी घुटनों के बल ला दिया। संभवतः यह भाजपा में पहली बार हुआ है कि न केवल इन दोनों प्रवक्ताओं निलंबित कर दिया गया, बल्कि इन पर मुकदमा भी दर्ज कर दिया गया। संभव है कि इन्हें जल्दी ही जेल भेज दिया जाए। संघ की‌ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वह बाघ की सवारी भी करना चाहता है , परंतु उसकी चाहत है कि बाघ उसे काटे भी नहीं। क्या यह संभव है? संघ परिवार की‌ ये नई रणनीतियां उसे हिंदू राष्ट्र के निर्माण में कहां तक आगे ले जाएंगीं, यह भविष्य ही बताएगा।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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