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मजहबी हिंसा की जड़ें

'हदीस' के मुताबिक, ‘मजदूर का पसीना सूखने से पहले ही उसे उसकी मजदूरी दे देनी चाहिए।’ अधिकांश मुस्लिम आज भी न्यायप्रिय एवं शांतिप्रिय हैं तथा श्रद्धा के साथ अपने धर्म का पालन करते हैं। परंतु आज अगर मुट्ठी भर लोग मुस्लिम धर्म के नाम पर लोगों की हत्याएं कर रहे हैं, तो हमें इसके उदय के समय हुई व्यापक हिंसा की पड़ताल अवश्य करनी चाहिए। पढ़ें, स्वदेश कुमार सिन्हा का यह आलेख

नजरिया

“क्रांति अपने बच्चों को ही खा जाती है।” 1779 ई. की महान फ्रांसीसी क्रांति का दार्शनिक ‘दांते’ का यह कथन आज के आधुनिक धर्मों पर भी सटीक बैठता है। अभी पिछले दिनों राजस्थान के उदयपुर में एक दिल दहलाने वाली घटना हुई। दो युवकों ने ‌एक दूसरे युवक की हत्या गला रेतकर कर दी और उन्होंने खुद ही अपना वीडियो बनाकर यह ऐलान किया कि उन्होंने यह हत्या इसलिए की है, कि मृतक ने उस नुपुर शर्मा का समर्थन किया था, जिसने एक न्यूज चैनल के कार्यक्रम में ‘नबी’ के खिलाफ़ विवादित बातें कही थीं। आज धर्म के नाम पर इस तरह की दिल दहलाने वाली घटनाएं आम हो गई हैं। अभी अधिक दिन नहीं बीता, जब कथित गोकशी के नाम पर अनेक मुस्लिम और दलित युवकों की पीट-पीटकर हत्या कर दी गई थी। यह भी हम नहीं भूले हैं, जब उड़ीसा में भारत में घर बसाकर रह रहे अस्ट्रेलिया के एक वरिष्ठ मिशनरी ग्राहम स्टेंस तथा उनके दो मासूम बच्चों की कार में जिंदा जलाकर हत्या कर दी गई थी। उन पर यह आरोप लगाया गया कि वे आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कर रहे थे , बाद में जांच के दौरान पता चला कि वे आदिवासियों के बीच बेहतर शिक्षा-स्वास्थ्य के लिए काम कर रहे थे। इस जघन्य हत्या के नायक बजरंग दल के दारासिंह का नायकों की तरह सम्मान किया गया, जिसमें अनेक भाजपा नेता भी‌ शामिल थे, जबकि इस बर्बर और जघन्य हत्याकांड की देश-विदेश में भारी निंदा की गई। 

इसी तरह की कुछ अन्य घटनाएं हम पाकिस्तान में भी देखते हैं। वहां करीब एक दशक पहले पंजाब प्रांत के गवर्नर तौसीर अहमद की हत्या कर दी गई, क्योंकि उन्होंने ‘ईशनिंदा’ कानून का विरोध किया था। वहां भी हत्यारों का फूल-माला पहनाकर स्वागत किया गया। झारखंड के हजारीबाग में भी एक पसमांदा युवक तबरेज अंसारी की पीट-पीटकर हत्या करने वाले हत्यारों की जमानत होने पर भाजपा सांसद जयंत सिन्हा ने उनका फूल-माला पहनाकर स्वागत किया था। धर्म के नाम पर हो रही इस तरह की वहशीयाना घटनाएं तथा उनको मिल रहा व्यापक जनसमर्थन सामान्य बात हो गई है और हम सबने भी इस यथास्थिति को शायद स्वीकार कर लिया है।

लेकिन इस तरह की बर्बर घटनाएं क्या किसी व्यक्ति या समूह का निजी कृत्य हैं अथवा कबिलाई बर्बरता या अकेलेपन में रह रहे किसी व्यक्ति या समूह की अपनी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की‌ कुचेष्टा? 

हम देखते हैं कि इन घटनाओं से राजनैतिक लाभ उठाने की मंशा तो है ही, लेकिन सामूहिक उन्माद और विक्षिप्तता के पीछे एक जो सबसे महत्वपूर्ण कारण है, उसको हम प्रायः अनदेखा ही कर देते हैं कि प्राचीन कबिलाई धर्म हो अथवा आधुनिक धर्म दोनों के उदय, प्रचार-प्रसार में भारी हिंसा के बीज निहित हैं। वास्तव में किसी क्रांति या धर्म के प्रचार-प्रसार में अगर व्यापक हिंसा का सहारा लिया जाता है, तो समाज में हिंसा एक स्थायी मूल्य बन जाती है तथा उसमें निहित त्रासदियों से इंसान हजारों वर्षों तक जूझता रहता है। हम देखते हैं कि आदिम कबिलाई समाजों में आज की तरह का कोई संगठित धर्म नहीं था। आंधी, तूफान, भूकंप तथा सुनामी जैसी प्रकृति की ताकतों से इंसान भयभीत होता था। वह इन ताकतों को ईश्वर का प्रकोप मानता था, बाद में वह प्रकृति की इन शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए पूजापाठ और बलि आदि देने लगा था। बाद में वर्षा होने, नदियों-झरनों के बहने और शिकार मिलने से उसे लगा कि देवता अनुष्ठान से प्रसन्न होकर उसे उपहार दे रहे हैं। हजारों साल पहले दुनिया भर में उन गुफाओं में जिनमें आदिम मानव निवास करता था, उनमें नदी, पहाड़, और पेड़-पौधे जैसे प्राकृतिक चित्रों को देखकर यह पता चलता है कि आदिम धर्म का उदय हो चुका था, इसके साथ ही धर्म पर आधारित हिंसा की शुरुआत हो चुकी थी। जब इन प्राकृतिक शक्तियों में देवत्व की अवधारणा आरोपित की गई, तब अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, सागर, नदी और पहाड़ पर आधारित देवी-देवताओं की कल्पना भी की गई। 

सभ्यता पर सवाल, बढ़ती मजहबी हिंसा

पुरातात्विक उत्खनन से प्राप्त मूर्तिशिल्पों के अवलोकन से पता लगता है कि इनमें से अधिकांश देवी-देवता भयानक चेहरे वाले तथा अस्त्रों-शस्त्रों से लदे हुए थे, इन्हें पशुबलि के साथ-साथ मानवबलि भी चढा़ई जाती थी। इस तरह की बलि देने का प्रचलन दुनिया भर के आदिम समाजों में था। आज भी उन समाजों में हम उनके अवशेष देख सकते हैं, वास्तव में उस युग में धर्म के नाम पर व्यापक हिंसा की शुरुआत हो गई थी। कबीलों के बीच होने वाले आपसी युद्धों में विजेता पक्ष विजित पक्ष के लोगों को अपने देवी-देवताओं की बलि चढ़ा देता था।

हिंदू धर्म अपने आप में कोई संगठित धर्म नहीं था। यहां पर कबीलाई आदिम समाजों के साथ-साथ विभिन्न सम्प्रदायों तथा धर्मों का समूह था, इनमें प्राचीन समय से ही पशुबलि तथा मानवबलि का व्यापक प्रचलन था, लेकिन सबसे बड़ी हिंसा तो वर्ण और जाति व्यवस्था में निहित थी, जिसके शीर्ष पर ब्राह्मण थे, और इसके नीचे क्रम में दो अन्य उच्च जातियां थीं तथा सबसे नीचे दलित-पिछड़ी तथा आदिम जातियां थीं, जो जानवरों से भी बदतर गया-गुजरा जीवन जीती थीं। 

कमोबेश हिंदू धर्म में वर्ण-जाति की यह निर्मम व्यवस्था आज भी जारी है। मिश्र, यूनान और रोम के गुलाम तो गुलामी से आज़ाद होकर एक स्वतंत्र नागरिक का जीवन जी सकते थे, परंतु भारत के शूद्र कभी भी इस वर्णवादी व्यवस्था से मुक्त नहीं हो सकते थे, क्योंकि ब्राह्मण इस व्यवस्था को अपरिवर्तनीय तथा ईश्वरीय मानते थे/हैं। वे मृत्यु के पश्चात ही इससे मुक्त हो सकते थे/हैं। सबसे चिंतनीय बात यह है कि इसे समाज में व्यापक मान्यता प्राप्त है, लेकिन धर्म के नाम पर हो रही हिंसा केवल हिंदू धर्म में ही नहीं है, बल्कि दयालु और परोपकारी माने जाने वाले ईसाई, बौद्ध, सिक्ख और इस्लाम धर्म में भी है। जब पुराने रूढ़ियों की नींव पर इन नए धर्मों का प्रादुर्भाव हुआ, तब इनकी भूमिका क्रांतिकारी और प्रगतिशील थी, परंतु ये आज फिर रूढ़ियों में फंसकर उसी समाज के पैरों की बेड़ियां बन गई हैं, जिनमें इनका उद्भव हुआ।

इस्लाम धर्म का प्रारंभ अपने-आप में एक बड़ी क्रांतिकारी घटना थी, जिसने अरबी समाज के व्यापक पिछड़ेपन तथा बर्बरता के खिलाफ़ तलवार उठाकर संघर्ष किया। इस क्रम में करीब-करीब सारा अरब समाज ही अपने प्राचीन धर्म को छोड़कर इस्लाम में परिवर्तित हो गया तथा तेजी से यह सारी दुनिया में फैल गया। परंतु इस्लाम के प्रसार एवं प्रचार में व्यापक हिंसा हुई। जेहाद (धर्म के नाम पर युद्ध) के नाम पर करोड़ों लोगों का कत्ल कर दिया गया। इस धर्म के विभिन्न तबकों के बीच हुए संघर्ष में भी लाखों लोग मारे गए। यद्यपि मुहम्मद साहब ने जिस धर्म का प्रचार-प्रसार किया था, वह दया, करुणा, परोपकार और भाईचारे पर आधारित था। 

मसलन, ‘हदीस’ के मुताबिक “मजदूर का पसीना सूखने से पहले ही उसे उसकी मजदूरी दे देनी चाहिए।” अधिकांश मुस्लिम आज न्यायप्रिय एवं शांतिप्रिय हैं तथा श्रद्धा के साथ अपने धर्म का पालन करते हैं। परंतु आज अगर मुट्ठी भर मुस्लिम धर्म के नाम पर लोगों की हत्याएं कर रहे हैं, तो हमें इसके उदय के समय हुई व्यापक हिंसा की पड़ताल अवश्य करनी चाहिए।

ईसाई धर्म आज दुनिया भर में नि:स्वार्थ सेवा और शिक्षा के लिए जाना जाता है, इसके लाखों स्वयंसेवक, पादरी और नन भुखमरी, हिंसा एवं अशिक्षा के खिलाफ़ दुनिया भर में संघर्ष कर रहे हैं। परंतु हम देखते हैं कि इस धर्म के उदय‌ और प्रसार में भी व्यापक हिंसा के तत्व निहित थे। वेटिकन सिटी के पोप का ईसाई जगत में जबर्दस्त प्रभाव था। वे राजाओं को गद्दी से उतारते और बैठाते थे। राजा को ईश्वर का अवतार माना जाता था तथा चर्च इसे वैधता प्रदान करता था। बाद के दौर में मार्टिन लूथर और काल्विन ने चर्च की इन गैर-धार्मिक प्रवृत्तियों के खिलाफ़ संघर्ष किया। इसी कारण से यह धर्म आज शांतिप्रिय और लोकप्रिय धर्म बन सका। आज ईसाई धर्म दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक समूह है। अगर हम आज यहूदी, बौद्ध तथा सिक्ख धर्म को देखें तो हमें यह पता चलता है कि ये अपने जन्म के समय में शांतिप्रिय धर्म थे, परंतु इनमें भी कोई बड़ा सामाजिक परिवर्तन का आंदोलन न चल पाने के कारण इनके भी ढेरों अनुयायी आज हिंसा में लिप्त हैं।

निष्कर्ष के रूप में हम यह कह सकते हैं कि धर्मों की सामाजिक ज़मीन में ही हिंसा के बीज छिपे हैं। हममें से कुछ लोग बहुत ही अवैज्ञानिक तरीके से धर्म के विनाश की बात करते हैं। लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आज भले ही धर्मों का स्वरूप बदल गया है, इसके ढेरों अनुयायी आज हिंसा में लिप्त हैं। इसकी जड़ें सामाजिक व्यवस्था में गहराई से धंसी हुई हैं। जब तक कोई बड़ा आंदोलन दुनिया को बदल नहीं देता है, तब तक धर्म और उसमें निहित हिंसा निरंतर जारी रहेगी।

(संपादन : नवल/अनिल)

(आलेख परिवर्द्धित : 7 जुलाई, 2022 03:45 PM)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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