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आज़ादी का अमृत महोत्सव : ब्राह्मण राज के 75 साल

ब्राह्मणों की विजय का यह 75वां साल चल रहा है। 1947 के ब्राह्मण-राज से आज के हिंदू राज तक सत्ता के सारे पायदानों को देख लीजिए, हरेक पायदान पर ब्राह्मण बैठा हुआ मिलेगा। इसलिए आज़ादी के अमृत महोत्सव में ब्राह्मण का आनंद ब्रह्मानंद है। बता रहे हैं कंवल भारती

जब भी आज़ादी की वर्षगांठ पर चर्चा होती है, तो दक्षिण और वाम दोनों खेमों के लोग अलग-अलग तरह से बातें करते हैं। दक्षिण खेमा जहां खुशी से उन्मत्त होता है, वहीं वाम खेमा कहता है कि यह आज़ादी झूठी है। इसमें ईमानदार अभिव्यक्ति दक्षिण खेमे की है, और वाम खेमे की अभिव्यक्ति दोहरेपन की है। हकीकत यह है कि दोनों खेमों के मुखिया ब्राह्मण हैं, जो भारत के सबसे आजाद प्राणी हैं, शासक वर्ग हैं और जिनके लिए सकल पदार्थ आसानी से सुलभ हैं।

सुमित सरकार ने अपनी किताब आधुनिक भारत के अंतिम अध्याय का समापन विलियम मोरिस के इन वाक्यों के साथ किया है– “विचारणीय है कि कैसे लोग लड़ते और हारते हैं, और जब उनकी हार के बावजूद वह मिल जाता है, जिसके लिए वे लड़े थे, तो पाते हैं कि यह तो वह नहीं है, जिसके लिए वे लड़े थे, और फिर उसके लिए दूसरे लोग दूसरे नाम से लड़ते हैं।”[1]

सुमित सरकार घोषित वामपंथी हैं और अघोषित द्विज। उन्होंने विश्लेषण नहीं किया कि कौन किसके लिए लड़ा था, और किसने क्या पाया था? दक्षिणपंथियों की स्थिति एकदम स्पष्ट है, उसमें कोई लाग-लपेट नहीं है। वे स्वराज के लिए लड़े थे, और स्वराज ही उन्होंने पाया। वे विगत 75 सालों से भारत पर स्वराज कर रहे हैं। हालांकि वे ब्रिटिश राज में भी आजाद थे, संपूर्ण सुख-सुविधाओं के साथ जिंदगी जीते थे, सामाजिक और आर्थिक किसी भी स्तर पर उन्हें कोई कष्ट नहीं था। आज वे पहले से भी ज्यादा मस्त, खुशहाल, समृद्ध, स्वतंत्र औरताकतवर हैं। यही वर्ग आज अपनी आज़ादी का अमृत महोत्सव धूमधाम से मना रहा है और पूरे देश को अपनी शक्ति का भव्य प्रदर्शन कर रहा है।

अब रहा दूसरे वर्ग का प्रश्न, जिसकी ओर सुमित सरकार ने इशारा किया है कि जिसे जीत के बाद पता चला कि वे जिसके लिए लड़े थे, यह वह नहीं है। सवाल है कि इस दूसरे वर्ग में कौन लोग आते हैं, और वे किस मकसद के लिए लड़े थे, जो पूरा नहीं हुआ? सुमित सरकार का इशारा निश्चित रूप से क्रांतिकारियों की ओर है, जिन्होंने सरकार का खजाना लूटा, अंग्रेज अफसरों को हत्याएं कीं, जेल की यातनाएं सहीं, और फांसी के फंदे को स्वीकार किया। क्रांतिकारी चाहे महाराष्ट्र के चापेकर बंधु हों, और चाहे बंगाल के वामपंथी क्रांतिकारी, वे सिर्फ भावुक हिंदू थे, जिनके पास आज़ादी की कोई लोकतांत्रिक अवधारणा नहीं थी। लाला लाजपत राय लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में विशाल भीड़ का नेतृत्व कर रहे थे। पुलिस ने लाठी चार्ज किया, जिसमें लाला जी घायल हो गए और कुछ दिनों बाद उपचार के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। सिर्फ इसी एक सामान्य घटना का बदला भगतसिंह ने अंग्रेज पुलिस उपाधीक्षक सांडर्स की हत्या करके लिया। इसमें कौन सी क्रांति हुई? हत्या करके वे कौन सा नवजागरण जनता में कर रहे थे? क्या वे उसी आज़ादी के लिए नहीं लड़ रहे थे, जो कांग्रेसी नेता लाला लाजपतराय चाहते थे? क्या भगतसिंह को नहीं मालूम था कि लाला लाजपतराय घोर सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी हिंदू नेता थे? क्या वे नहीं जानते थे कि 1925 में मुस्लिम लीग के खिलाफ जब ‘हिंदू महासभा’ का गठन हुआ था, तो लाला लाजपतराय उसके सभापति बने थे।[2] ऐसे घोर सांप्रदायिक और प्रतिक्रियावादी लालाजी के प्रति भगतसिंह का मोह क्या साबित करता है? विरला ही कोई क्रांतिकारी धर्मनिरपेक्ष था, अलबत्ता सभी क्रांतिकारी नौजवानों के प्रेरणास्रोत दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, अरविंदो, गीता और रामायण थे। यहां तक कि भगतसिंह तक गांधी के समर्थक थे, वह एक सीमा तक ही गांधी के आलोचक थे। अन्य क्रांतिकारी लोग भी दक्षिणपंथ के ही उदारवादी चेहरा थे, इससे ज्यादा कुछ नहीं। इनमें अधिकांश कुलीन तबकों– जमींदार, ब्राह्मण और राजपूत परिवारों से ही आए थे, जिनका एक मात्र मकसद अंग्रेजों को भगाना था, क्योंकि अंग्रेजी राज को वे अपनी धर्म-संस्कृति और स्वाधीनता के लिए खतरा समझते थे। इसीलिए वे 1857 के विद्रोह को भी आज़ादी की पहली जंग कहते थे। एक क्रांतिकारी भगवतीचरण बोहरा ने अप्रैल, 1928 के ‘किरती’ में लिखा था कि 1857 “भारतवासियों का गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए प्रथम प्रयास था। यह प्रयास भारत के दुर्भाग्य से सफल नहीं हुआ। इसलिए हमारे दुश्मन इस आज़ादी की जंग को गदर और बगावत के नाम से याद करते हैं। यदि आज़ादी की इस जंग में तात्या टोपे, नाना साहिब, झांसी की महारानी, कुंवर सिंह और मौलवी अहमद आदि वीर जीत हासिल कर लेते, आज वे हिंदुस्तान की आज़ादी के देवता माने जाते और सारे हिंदुस्तान में उनके सम्मान में राष्ट्रीय त्यौहार मनाया जाता।”[3] इससे क्रांतिकारियों का कौन सा चेहरा सामने आता है? वे उस बगावत को आज़ादी की जंग कह रहे थे, जो ब्राह्मण-संस्कृति और सामंतवाद को बचाने के लिए की गई थी?

अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के शिलान्याय के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

इसलिए सच बात यह है कि आज़ादी के अमृत महोत्सव में वाम खेमा भी उतना ही प्रसन्नचित्त है, जितना दक्षिण खेमा है। क्योंकि दोनों तरफ वही उच्च वर्ग है, जिसे अंग्रेजों के जाने से वास्तविक आज़ादी मिली है – कुछ भी करने की आज़ादी, कुछ भी पाने की आज़ादी, कहीं भी जाने की आज़ादी और अपनी संपूर्ण ब्राह्मणवादी संस्कृति को फैलाने की आज़ादी।

स्वतंत्रता किसका लक्ष्य?

सवाल है कि ब्रिटिश राज में हिंदुओं की आज़ादी की लड़ाई में आज़ादी पाना किसका लक्ष्य था? क्या आज़ादी ब्राह्मणों का लक्ष्य था? क्या आज़ादी मुसलमानों का लक्ष्य था? उत्तर है– नहीं। इनमें से किसी भी वर्ग का लक्ष्य आज़ादी नहीं था। 1942 में डॉ. आंबेडकर ने कनाडा के क्यूबेक में पेसिफिक रिलेशंस इंस्टिट्यूट के भारतीय सत्र में भारत के दलित वर्ग की समस्याओं पर एक शोध-पत्र पढ़ा था। इस शोध-पत्र में इस सवाल का जवाब मौजूद है कि आज़ादी किसका लक्ष्य था? उन्होंने लिखा है कि भारत में आज़ादी पाना अगर किसी का लक्ष्य है, तो वह लक्ष्य अछूतों का है। हिंदुओं और मुसलमानों का लक्ष्य आज़ादी हासिल करना नहीं है, बल्कि सत्ता हासिल करना है। उनका कहना था कि अछूतों को आज़ादी देने में हिंदू-मुसलमानों की कोई भी पार्टी इच्छुक नहीं है। उन्होंने कांग्रेस के बारे में कहा कि कांग्रेस हिंदू पूंजीपतियों द्वारा समर्थित मध्यवर्ग की पार्टी है, जिसका लक्ष्य भारतीयों को आज़ादी देना नहीं है, बल्कि ब्रिटिश-नियंत्रण से मुक्त होकर सत्ता के उन सभी संसाधनों पर कब्जा करना है, जो आज ब्रिटिश के कब्जे में हैं। उन्होंने कहा कि कांग्रेस का संचालन ब्राह्मणों और पूंजीपतियों के हाथों में है।[4]

ब्राह्मण जिस स्वराज के लिए लड़ रहे थे, उसका यही अर्थ था– भारतीयों पर शासन करना और सारे संसाधनों पर कब्जा करना। यह नारा तिलक का था कि “स्वराज प्राप्त करना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।” इसीलिए तिलक ने होम रूल लीग की स्थापना की थी। स्वराज ही उनका होम रूल था। यह बात एक ब्राह्मण कह रहा था कि भारत की जनता पर राज करना ब्राह्मणों का जन्मसिद्ध अधिकार है। कांग्रेस ने इस नारे को गंभीरता से लिया, और गांधी ने स्वतंत्रता-संग्राम की अपनी सारी रूपरेखा इसी नारे को केंद्र में रखकर तैयार की। डॉ. आंबेडकर ने लिखा है, “कांग्रेस का मतलब शासक वर्ग है, और शासक वर्ग का मतलब ‘ब्राह्मण-बनिया-गठजोड़’ है। वह जनता, जो कांग्रेस का अनुसरण करती है, कांग्रेस की नीतियां नहीं बनाती है। और जिस तरह कोई सुल्तान इस्लाम के खिलाफ नहीं जा सका, और जिस तरह कोई पोप रोम के कट्टर कैथोलिक ईसाईयों के अधिकार नहीं समाप्त कर सका, उसी तरह भारत का शासक वर्ग भी ब्राह्मणवाद का कभी खात्मा नहीं करेगा। और जब तक भी भारत का शासक वर्ग यही रहता है, जो ब्राह्मण है, तो वह भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी शूद्रों और अछूतों का दमन करता रहेगा, उन्हें आज़ादी कभी नहीं देगा।”[5]

डॉ. आंबेडकर की यह टिप्पणी आज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बारे में भी उतनी ही सच है, जितनी कांग्रेस के बारे में। भाजपा भी ब्राह्मण-संचालित पार्टी है, और ब्राह्मण को ही शासक वर्ग के रूप में स्थापित करती है। क्या भारत का यह शासक वर्ग भारत के लोगों का अंग है? आंबेडकर ने सवाल उठाया था कि ब्राह्मण शासक वर्ग न केवल पूरी तरह भारत की जनता से कटा हुआ है, बल्कि स्वयं इस अलगाव में विश्वास भी करता है कि कहीं वह उनके संपर्क में आकर अपवित्र न हो जाए। इसलिए इस अलगाववादी शासक वर्ग के स्वराज में करोड़ों दलितों का भविष्य कैसे उज्जवल हो सकता है?[6]

डॉ. आंबेडकर ने जोर देकर कहा कि भारत में अगर कोई पार्टी राजनीतिक लोकतंत्र के लिए लड़ रही है, तो वह दलितों की पार्टी है, जिसे डर है कि भारत का ब्राह्मण शासक वर्ग सत्ता हासिल करने में सफल हो गया, तो इसका अर्थ यह होगा कि यह और भी ज्यादा मजबूत और शक्तिशाली हो जाएगा और दलित एवं कमजोर वर्गों का पूरी ताकत से दमन करेगा।

डॉ. आंबेडकर समाजवादियों और कम्युनिस्टों के समक्ष ये चुनौतियां 1930 के दशक से ही लगातार रख रहे थे, पर वे उनकी उपेक्षा करते हुए कांग्रेस से ही जुड़े रहना पसंद कर रहे थे। वे यह तो चाहते थे कि आंबेडकर उनके राजनीतिक फोल्ड में आ जाएं, लेकिन स्वयं आंबेडकर के बैनर तले आने को तैयार नहीं थे। इसका मुख्य कारण यह था कि वे केवल दिखावे के लिए समाजवादी या मार्क्सवादी थे, पर भीतर से ब्राह्मण थे। इसलिए उन्होंने अपने उपर्युक्त शोध-पत्र में इस वर्ग की भी आलोचना की है। उन्होंने कहा, “कोई अज्ञानी या खाली दिमाग वाला ही इस सत्य को नहीं जानता कि ये वामपंथी और रेडिकल नेता उस कांग्रेस को अपना अंधा समर्थन दे रहे हैं, जो खुलेआम पूंजीपतियों, जमींदारों, साहूकारों और प्रतिक्रियावादियों द्वारा संचालित पार्टी है। और अपनी गतिविधियों को स्वतंत्रता संग्राम का नाम देती है।”[7] ब्राह्मण वामपंथियों का सच आज भी यही है। वे सदन में तो विरोध करते हैं, पर सदन के बाहर उनका समर्थन भाजपा को रहता है।

परिणाम क्या हुआ? आंबेडकर की शंका सच साबित हुई। अंग्रेज चले गए और भारत की शासन-सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में आ गई। ब्राह्मणों की विजय का यह 75वां साल चल रहा है। 1947 के ब्राह्मण-राज से आज के हिंदू राज तक सत्ता के सारे पायदानों को देख लीजिए, हरेक पायदान पर ब्राह्मण बैठा हुआ मिलेगा। इसलिए आज़ादी के अमृत महोत्सव में ब्राह्मण का आनंद ब्रह्मानंद है।

लोकतंत्र में ब्राह्मण तंत्र की कहानी

देश को आज़ादी मिली, पर दलित वर्ग आज भी आज़ादी की प्रतीक्षा कर रहा है? अगर दलितों के संरक्षण पर कांग्रेस के साथ डॉ. आंबेडकर का समझौता न हुआ होता, तो विधायिका में यह छद्म प्रतिनिधित्व भी दलितों को प्राप्त नहीं होता, और ना ही नौकरियों में आरक्षण के तहत नौकरियां दलितों को मिलतीं। लेकिन यह ‘प्राप्य’ भी कांग्रेस से भाजपा तक शासक वर्ग की दया पर निर्भर है, जिसके लिए वे दलितों का वोट लेकर अपनी सत्ता कायम रखते हैं।

ब्राह्मणों के हाथ में सत्ता आते ही, प्रधानमंत्री से लेकर राज्यों के मुख्यमंत्री तक ब्राह्मण बनाए गए। अपवाद-स्वरूप भी किसी राज्य में कोई गैर-ब्राह्मण मुख्यमंत्री नियुक्त नहीं हुआ। शासन-प्रशासन और न्यायालयों में सभी विभागों के प्रमुख पदों पर ब्राह्मण बैठाए गए। सारे विश्विद्यालयों के कुलपति, सचिव, प्रोफेसर सब पदों पर ब्राह्मण नियुक्त किए गए। भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने पूरे वैदिक विधि-विधान से 101 ब्राह्मणों की पूजा करके और उनके पैर धोकर अपने सिंहासन पर बैठ कर बाकायदा ब्राह्मण-राज का श्रीगणेश किया। फिर ब्राह्मण-संस्कृति का प्रचार-प्रसार करने का खुला खेल ब्राह्मणवादी शुरू हुआ। कांग्रेस ने जिले-जिले में रामलीला कमेटियां बनायीं, और उनकी कमान ब्राह्मण-बनियों को सौंपी, जिनके तहत जोर-शोर से रामलीलाएं शुरू हुईं। आकाशवाणी पर प्रतिदिन सुबह रामचरितमानस का धारावाहिक पाठ आरंभ किया गया। सन् साठ के आसपास ब्राह्मण शासक वर्ग ने अपने धर्म की जड़ें मजबूत करने के लिए ‘कीर्तन’ नाम की शुरुआत की, जिस तरह भाजपा ने ‘जय श्री राम’ की शुरुआत की। चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु ने एक जगह इसका बड़ा रोचक वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, “सारे देश में कीर्तन की धूम है। बड़े-बड़े कीर्तन कला-निधि उत्पन्न हो गए हैं, जिनकी ललित कलाओं में ऐसा जादू है कि जनता मोहित हो जाती है। देश के एक छोर से दूसरे छोर तक नगर-नगर, ग्राम-ग्राम, मुहल्ले-मुहल्ले कीर्तन-मंडलियां कायम हैं। घर-घर कीर्तन और अखंड कीर्तन होने का रिवाज चल पड़ा है। यहां तक कि सरकारी रेडियो द्वारा भी कीर्तन सुनाया जाता है। शहरों में अखंड कीर्तन में लाउडस्पीकर लगाकर वह हंगामा मचाया जाता है कि पड़ोसियों की नींद हराम हो जाती है। बरसाती मेढकों की तरह बेशुमार रंग-बिरंगे स्वामी निकल पड़े हैं, जो गीता और रामायण के व्याख्यानों में अवतारवाद की पुष्टि और भक्तिवाद के सीमातीत प्रचार में तमाम दुनिया की फिलॉसफी छोंकते और साइंस की टांगें तोड़ते हैं। इससे वे दलित-पिछड़ों में ब्राह्मणशाही धार्मिक साम्राज्य की हिलती हुईं जड़ें मजबूत कर रहे हैं। जब कीर्तन की चक्की में हिंदुओं के मस्तिष्क को पीसकर अम्बाले का मैदा बना दिया जाएगा, फिर उनमें बुद्धिवाद का अंकुर उगेगा कैसे?”[8]

जिज्ञासु ने सही कहा कि कीर्तन का लटका दलित-पिछड़े समुदायों में बुद्धिवाद के अंकुरों को न फूटने देने के लिए ही आरंभ किया गया था।

जातीय प्रतिनिधित्व का विरोध

भारत में आज़ादी के बाद जो राजनीतिक लोकतंत्र स्वीकार किया गया, वह कांग्रेस के ब्राह्मण शासक वर्ग की इच्छा नहीं थी, बल्कि मजबूरी थी, क्योंकि अंग्रेजों ने इसी शर्त पर सत्ता का हस्तांतरण किया था कि भारत जातीय तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतंत्र को कायम करेगा। अगर यह शर्त न होती, तो ब्राह्मण शासक वर्ग हिंदू राष्ट्र ही कायम करता। जातीय तथा सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व का सिद्धांत ब्राह्मण वर्ग को न तब रास आता था और न आज। यह सिद्धांत ब्राह्मण वर्ग को इस कदर परेशान करता है, कि उसे समाप्त करने का विचार उसके दिमाग में हर समय चलता रहता है। समस्या यह है कि ब्राह्मण अपने सिवा कानून बनाने की शक्ति किसी गैर-ब्राह्मण को देना नहीं चाहता। शायद इसीलिए इसका समाधान उसने शासक वर्ग की हां में हां मिलाने वाले अयोग्य प्रतिनिधित्व में खोज कर लिया है।

यहां मद्रास प्रांत का एक दिलचस्प उदाहरण प्रस्तुत करना जरूरी है, जो ब्राह्मण वर्ग के लोकतंत्र-विरोधी चरित्र को दर्शाता है। इसका वर्णन ओमप्रकाश कश्यप ने पेरियार पर लिखे अपनी किताब में विस्तार से किया है। उनके अनुसार, कांग्रेस के ब्राह्मण नेता बराबर जातीय प्रतिनिधित्व का विरोध कर रहे थे। मात्र तीन प्रतिशत ब्राह्मणों के आगे शेष 97 प्रतिशत जनता बेबस थी। विरोध के बाद मद्रास प्रांत की तत्कालीन सरकार की ओर से 21 नवंबर, 1947 को जातीय प्रतिनिधित्व का एक संशोधित आदेश जारी किया गया, जिसमें 14 नियुक्तियों की इकाई में गैर-ब्राह्मण ऊंची जातियों को 6, पिछड़ी हिंदू जातियों को 2, ब्राह्मणों को 2, दलितों को 2, एंग्लोइंडियन को 1, और मुसलमानों को 1 पद पर प्रतिनिधित्व दिया गया था। लेकिन शत-प्रतिशत पर अपना अधिकार मानने वाले ब्राह्मण दो पद से असंतुष्ट थे। 1950 में जब संविधान लागू हुआ, तो ब्राह्मणों को एक अवसर मिल गया। उन्होंने ‘सलेम ब्राह्मण सेवा संगम’ की ओर से संविधान के अनुच्छेद 16 (1) और 29 (2) में प्रावधानित समानता के अधिकार को आधार बनाकर मद्रास उच्च न्यायालय में याचिका दायर करके जातीय प्रतिनिधित्व के अध्यादेश को चुनौती दी। न्यायालय ने इन अनुच्छेदों की समीक्षा करने के उपरांत जातीय प्रतिनिधित्व को अवैधानिक करार दे दिया। इसके विरोध में पेरियार रामासामी नायकर ने विशाल जनांदोलन खड़ा कर दिया। सामाजिक दबाव में सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी। तभी जाति से ब्राह्मण, पेशे से वकील और संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के सदस्य रह चुके अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर अपील पर सरकार के विरोध में बहस करने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए, कि कहीं मद्रास सरकार जीत न जाए। परिणाम यह हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलीलों को खारिज कर दिया और उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। इस तरह ब्राह्मणों और ब्राह्मणों की अदालत ने गैर-ब्राह्मणों के प्रतिनिधित्व के सारे रास्ते बंद कर दिए। केवल एक ही रास्ता बचा था, जन आंदोलन का। कोर्ट के निर्णय के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन हुआ। जब आंदोलन की आग तमिलनाडु के आसपास के इलाकों में भी फ़ैल गई, तो केन्द्र सरकार चेती। उसके बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास में 10 मई, 1951 को पहला संविधान संशोधन किया गया और अनुच्छेद 15 में उपधारा 15 (4) जोड़ते हुए पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए विशेष शक्तियां राज्यों को दी गईं।[9]

दलितों का आरक्षण कांग्रेस की ब्राह्मण सरकार ने आज़ादी के बीस साल तक पूरा नहीं किया। कुछ हद तक सत्तर और अस्सी के दशकों में विशेष अभियान चलाकर कुछ खाली पदों को दलितों को नौकरियां देकर भरा गया। यही खेल भाजपा की सरकार भी खेल रही है। पिछड़ी जातियों के उत्थान को और भी गंभीरता से नहीं लिया गया। 1953 में पिछड़ी जातियों की जांच करने के लिए एक ब्राह्मण गांधीवादी नेता काका कालेलकर की अध्यक्षता में आयोग बना, जिसने 1955 में अपनी रिपोर्ट दी और पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए सिफारिशें कीं। लेकिन ब्राह्मण गृहमंत्री गोविंद बल्लभ पंत ने धन का बहाना बनाकर उस रिपोर्ट को लागू करने से इनकार कर दिया। उसके लगभग ढाई दशक बाद, तमाम आंदोलनों के दबाव में 1979 बिंदेश्वर प्रसाद मंडल की अध्यक्ष में दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया गया, जिसने अपनी रिपोर्ट 1980 में सरकार को सौंपी। लेकिन कांग्रेस के ब्राह्मण तंत्र ने दस साल तक उस पर भी कोई कार्यवाही नहीं की। जब 1990 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी और विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी और मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू किया। इसके तहत पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया।

इसका मतलब है कि भारत में संविधान लागू होने के चालीस साल तक ब्राह्मण शासक वर्ग ने पिछड़ी जातियों के उत्थान के लिए कुछ नहीं किया। इन चालीस सालों में ब्राह्मणों का चौतरफा विकास होता रहा, लेकिन पिछड़े वर्ग, जो पहले से ही विकास में पीछे थे, चालीस साल और पीछे धकेल दिए गए। इसे विडंबना कहें या ब्राह्मण शासक वर्ग का मनुष्य-विरोधी घिनौना चरित्र, कि आरएसएस और भाजपा का ब्राह्मण तंत्र मंडल लागू होने से इतना बौखला गया कि उसने पूरे देश में जातीय आग लगा दी; पिछड़ों के खिलाफ आक्रामक सवर्णों को इस कदर भड़का दिया, कि वे स्कूल-कालेजों में दलित-पिछड़ी जातियों के छात्रों पर लाठी-डंडों से हमलावर हो गए। सवर्ण छात्रों से आत्मदाह करवाए जाने लगे। ब्राह्मण लेखकों और पत्रकारों द्वारा राष्ट्रीय अख़बारों में आरक्षण के खिलाफ लेख लिखवाए जाने लगे। कोई शासक वर्ग अपने ही देश और अपने ही धर्म के कमजोरों तबकों का इतना बड़ा दुश्मन हो सकता है, यह 1992 में पूरी दुनिया ने देखा था।

आरएसएस और भाजपा के राम मंदिर आंदोलन, जो मंडल के तुरंत बाद आरंभ हुआ था, की बुनियाद कांशीराम की बहुजन राजनीति और वी. पी. सिंह की सामाजिक न्याय की राजनीति ने रखी थी। इस क्रांति के प्रतिरोध की जमीन कांग्रेस शासन ने दूरदर्शन पर ‘रामायण’ धारावाहिक शुरू कराकर तैयार की थी। ‘रामायण’ का दिखाया जाना आकस्मिक घटना नहीं थी, बल्कि ब्राह्मण तंत्र की बहुत सोची-समझी योजना थी। वेंडी डोनिगर के शब्दों में कहें तो ‘रामायण’ ही वह सीरियल था, जिसके जनवरी 1987 से जुलाई 1988 तक दिखाए गए 78 एपिसोडों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बुनियाद रखी थी[10], लेकिन सच यह भी है कि इसके पीछे सामाजिक न्याय की उस राजनीतिक चेतना को कमजोर करना था, जो ब्राह्मण शासक वर्ग के खिलाफ गैर-ब्राह्मणों की एक बड़ी क्रांति को अंजाम दे रही थी।

इसके कारण को समझना जरूरी है। असल में ब्राह्मण शासक वर्ग के प्राण उसकी वर्णव्यवस्था में बसते हैं, जैसे लोककथाओं में किसी जादूगर के प्राण दूर पहाड़ी पर रखे हुए पिंजरे में कैद तोते में बसते थे। जब कोई नायक उस पिंजरे तक पहुंचकर उसे उठा लेता था, तो जादूगर की जान खतरे में पड़ जाती थी, नायक तोते की एक टांग तोड़ता, तो जादूगर की भी एक टांग टूट जाती और जब नायक उस तोते की गर्दन मरोड़ता, तो इधर तोता दम तोड़ता और उधर जादूगर। यही स्थिति ब्राह्मण शासक वर्ग की है। ब्राह्मण शासक वर्ग की जान तब खतरे में पड़ती है, जब वर्णव्यवस्था टूटती है। इसलिए ब्राह्मण शासक वर्ग हमेशा वर्णव्यवस्था की वकालत और उसे शाश्वत तथा ‘अनित्य’ बनाने की कोशिश करता है। वर्णव्यवस्था दलित-पिछड़ी जातियों (अर्थात शूद्र-अतिशूद्रों) को अशिक्षित, अज्ञानी, दीन-हीन, बेरोजगार और गरीब बनाकर रखने से मजबूत रहती है और उन्हें शिक्षित, जागरूक, धनी, समृद्ध, समानता के स्तर पर विकसित करने से खत्म होती है। वर्णव्यवस्था पूंजीवाद के विकास से ध्वस्त नहीं होती है, जैसा कि कुछ ब्राह्मण मार्क्सवादी चिंतक उपदेश देते फिरते हैं। वह ध्वस्त होगी, तो दलित-पिछड़े वर्गों को शिक्षा और रोजगार के समान अवसर देने से होगी। इस बात को ब्राह्मण शासक वर्ग अच्छी तरह समझता है, इसलिए उसने दलित-पिछड़े वर्गों को अशिक्षित और बेरोजगार बनाए रखने के लिए जबर्दस्त नाकाबंदी की हुई है। दलित-पिछड़ी जातियों का भगवाकरण करके उन्हें धर्म-रक्षक की भूमिका में उतारना, भाजपा की ऐसी कारगर योजना है कि उसके बल पर अभी एक सदी आगे तक भारत में ब्राह्मण ही शासक वर्ग बना रहेगा।

ब्राह्मणराष्ट्र के कुछ संकेत समझिए

अगर आप समझ सकते हैं, तो कुछ आवाजों और नारों को समझिए– आरक्षण खत्म करो, आरक्षण की समीक्षा करो, आरक्षण कब तक लोगे। इन आवाजों का कोई गूढ़ अर्थ नहीं है, जो समझ में न आए; पर समझना यह है कि ये आवाजें ब्राह्मण संतों, ब्राह्मण संगठनों और ब्राह्मण नेताओं के मुंह से आ रही हैं और इसलिए आ रही हैं क्योंकि वे लोकतांत्रिक प्राणी नहीं हैं, इसलिए वे नहीं चाहते कि दलित-पिछड़ी जातियां आत्मनिर्भर और सशक्त हो जाएं और वर्णव्यवस्था ध्वस्त हो जाए।

कुछ और भी आवाजें हैं– गोली मारो … को, हथियार उठाओ, मुसलमानों का कत्लेआम करो। इन आवाजों का अर्थ है कि मुसलमानों का कत्लेआम सुनकर दलित-पिछड़ी जातियों के लोग डर जाएं, और मुसलमानों के साथ वे कोई राजनीतिक गठबंधन न कर सकें।

ब्राह्मण संतों की ये आवाजें भी आप आए दिन सुनते-पढ़ते होंगे कि संविधान बदलो, भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित करो, हिंदू राज्य स्थापित करो। इन आवाजों का मकसद यही बताना है कि वे भारत में सिर्फ हिंदू राज चाहते हैं, इसके सिवा कुछ नहीं। हिंदू राज का मतलब है ब्राह्मण राज और ब्राह्मण राज का मतलब है वर्णव्यवस्था का अनुशासन।

भाजपा सरकार ने इन आवाजों के खिलाफ कभी कोई कार्यवाही नहीं की। इससे समझा जा सकता है कि भारत में ब्राह्मण शासक वर्ग लोकतंत्र विरोधी गतिविधियों को किस कदर समर्थन देता है! क्या इसके लिए उदाहरण की जरूरत है? अयोध्या में रामलला के बहाने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने का मंदिर-आंदोलन, बनारस में शिवलिंग के बहाने ज्ञानवापी मस्जिद को गिराने का आंदोलन, मथुरा में कृष्ण के बहाने ईदगाह तोड़ने का आंदोलन, आगरा में तेजोमहाल के बहाने ताजमहल को गिराने का उन्माद, और दिल्ली में कुतुबमीनार को भीम की गदा बताने का पागलपन क्या ब्राह्मण शासक वर्ग के लोकतंत्र-विरोधी चरित्र को नहीं दर्शाता है?

क्या आज़ादी का अमृत महोत्सव इसी ब्राह्मण शासक वर्ग की विजय का उत्सव नहीं है? यह ब्राह्मण-राज के 75 साल पूरे होने पर, ब्राह्मणों द्वारा, ब्राह्मणों के लिए ब्राह्मणों का ही आयोजन है।

(संपादन : नवल/अनिल)

[1] आधुनिक भारत, सुमित सरकार, राजकमल प्रकाशन, संस्करण 1992, पृष्ठ 506

[2] आज का भारत, रजनी पाम दत्त, अनुवादक : रामविलास शर्मा, संस्करण 2004, पृष्ठ 413

[3] जगमोहन सिंह और चमन लाल द्वारा सम्पादित ‘भगतसिंह और उनके साथियों के दस्तावेज’, राजकमल पेपरबैक्स, संस्करण 2010, पृष्ठ 129

[4] डॉ. बाबासाहब आंबेडकर : राइटिंग्स एंड स्पीचेज, खंड 9, पृष्ठ 401-402

[5] वही, पृष्ठ 485-486

[6] वही, पृष्ठ 486

[7] वही, पृष्ठ 487

[8] ईश्वर और उसके गुड्डे, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु, 1965, पृष्ठ 43-44

[9] पेरियार ई. वी. रामासामी नायकर : भारत के वाल्टेयर, ओमप्रकाश कश्यप, सेतु प्रकाशन, संस्करण 2022, पृष्ठ 521-527

[10] द हिंदुज, वेंडि डॉनिगर, पेंग्विन, 2009, पृष्ठ 668


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महिषासुर एक जननायक’

महिषासुर : मिथक व परंपराए

जाति के प्रश्न पर कबी

चिंतन के जन सरोकार

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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