प्रेमकुमार मणि न केवल बहुजन विचारक और चिंतक हैं, बल्कि एक लम्बे दौर से बिहार की राजनीति में सक्रिय रूप से भी जुड़े रहे हैं। यही कारण है कि उनके लेखन का फ़लक बहुत व्यापक है, जिसमें भारतीय राजनीति, संस्कृति और समाज की विद्रूपताओं का बहुत प्रभावशाली चित्रण मिलता है। उनकी पुस्तक ‘चिंतन के जनसरोकार’ में उनकी गहरी अंतर्दृष्टि दिखलाई देती है। इस संकलन में संकलित निबंधों को दो खंडों में बांटा गया है, जिसमें पहला खंड समाज और राजनीति एवं दूसरा खंड साहित्य और संस्कृति है।
पहले खंड में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर आधारित एक लेख ‘क्या यह समांतर संसद की तैयारी है?’ के अंत में वे एक महत्वपूर्ण बात लिखते हैं जो कि वर्तमान परिदृश्य में बिलकुल सत्य प्रतीत होती है– “उनके लोकपाल अभियान को लेकर मैं बहुत उत्साहित नहीं हूं। मुझे लगता है कि दलबदल विधेयक की तरह यह विधेयक अंततः जनतंत्र को कमज़ोर करने वाला ही होगा। संसद के ऊपर किसी को स्थापित करने से हमें बाज़ आना चाहिए। भ्रष्टाचार मिटाने और न्याय स्थापित करने वाली संस्था न्यायपालिका आज स्वयं कितनी भ्रष्ट हो गई है, इसे कोई भी देख सकता है। चीनी दार्शनिक ‘कनफ़्यूशियस’ ने कहा था– जितने ज़्यादा कानून बनेंगे, अपराध उतने ही बढ़ेंगे।”
इसी खंड में अपने एक दूसरे लेख ‘आर्थिक उदारीकरण और दलित’ में उन्होंने आज़ादी के बाद से ही भारत के आर्थिक विकास का विश्लेषण करते हुए आज के आर्थिक उदारीकरण के नीतियों की पड़ताल की है तथा इससे बहुजनों के ऊपर पड़ने वाले प्रभावों का काफी दिलचस्प मूल्यांकन किया है। इस लेख में वे एक स्थान पर लिखते हैं– “गेल ऑम्वेट के एक लेख का संस्मरण कर रहा हूं। ‘द हिंदू’ 1 जून 2000 में छपे एक लेख में उन्होंने बताया कि कॉरपोरेट सेक्टर में सबसे अधिक ब्राह्मण हैं और ओबीसी के लोग लगभग 4.5 प्रतिशत हैं। बनिया जाति की संख्या भी ब्राह्मणों की लगभग आधी है, उनके आंकड़े पर मैं चौंका था, लेकिन आंकड़े तो आंकड़े होते हैं।”
इसके अलावा ‘भ्रष्टाचार की जड़ें हमारी संस्कृति में हैं’ शीर्षक लेख में वे लिखते हैं– “समाजशास्त्री आशीष नंदी द्वारा जयपुर साहित्य महोत्सव में दिए गए एक बयान पर पिछले दिनों काफी हंगामा हुआ। एक परिचर्चा में पत्रकार तरुण तेजपाल को जवाब देते हुए उन्होंने प्रसंगवश कह दिया कि सबसे अधिक भ्रष्ट पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और जनजातियों से आते हैं। आशीष नंदी ने सफाई देते हुए कहा कि उनका इरादा इन वर्गों को अपमानित करना नहीं था और वे कहना कुछ और ही चाहते थे।” इस दिलचस्प लेख में प्रेमकुमार मणि बताते हैं कि आर्थिक अपराधों की जब चर्चा होती है, तब बंगारू लक्ष्मण से लेकर लालू, मुलायम, मायावती और मधु कोड़ा का ही नाम लोग लेते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि बहुजनों बहुलांश भ्रष्ट हैं, तब भी भारत पवित्र भ्रष्टाचार मुक्त भूमि बनी रहती, क्योंकि शीर्ष स्तर पर इन वर्गों की भागीदारी बहुत कम है। केंद्र सरकार की सेवाओं में पिछड़े वर्गों की भागीदारी लगभग 7 प्रतिशत बताई जाती है। न्यायपालिका में तो ये नगण्य हैं, लेकिन इन महकमों में भ्रष्टाचार कितना है? फिर कौन कर रहा है यह भ्रष्टाचार? इसके अलावा इस खंड में अनेक ऐसे लेख हैं, जो विमर्श के लिए हमें झकझोरते हैं। चाहे वह ‘गांधी से ज़्यादा आंबेडकर का भारत’ हो या बाल ठाकरे पर महत्वपूर्ण लेख ‘हिन्दू हिटलर का अवसान’ या ‘भारत को समझो मोदी जी’ हो, इन लेख में उन्होंने भारत में फासीवाद के आगमन को अपनी दूरदृष्टि से पहले ही भांप लिया था।
पुस्तक का दूसरा खंड जो साहित्य और संस्कृति पर केंद्रित है और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रेम कुमार मणि मूलतः साहित्य के अध्येता और लेखक हैं। इस खंड का पहला लेख ‘बहुजन साहित्य का विकास एक ऐतिहासिक परिघटना’ प्रेमकुमार मणि से प्रेमा नेगी की बातचीत पर आधारित है। इस महत्वपूर्ण बातचीत में वे बहुजन समाज की अवधारणा पर हो रही विभिन्न बहसों पर अपने विचार रखते हैं, जैसे दलित, पिछड़े और जनजाति समाजों के साहित्य को क्या एक ही छतरी के नीचे आना चाहिए। वे बताते हैं कि इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए। बहुजन साहित्य का उद्देश्य ही होना चाहिए ऐसे तमाम विमर्शों को समेटना तथा एक जगह लाना। उपेक्षित और उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं तथा अस्मिता और पहचान के लिए अलग-अलग चल रहे संघर्षों को समन्वित करना बड़ी बात होगी। बुद्ध विचार से ज़्यादा करुणा पर ज़ोर देते थे। बहुजन साहित्य को भी विचार से अधिक संवेदना पर ज़ोर देना चाहिए। इसी बातचीत में वे एक स्थान पर कहते हैं कि “बहुजन साहित्य स्पष्ट तौर पर दलित साहित्य का विस्तार है और इसकी वैचारिकता में बुद्ध, फुले, आंबेडकर से लेकर अंतोनियो ग्राम्सी और देरिदा भी हैं।”
इसी खंड का एक दूसरा लेख साहित्य में जाति विमर्श भी महत्वपूर्ण है। इसमें वे यह नकारते हैं कि बहुजन साहित्य केवल अस्मितावादी साहित्य है। उन्होंने इसमें उन परिस्थितियों का उल्लेख किया है, जिससे साहित्य में जाति विमर्श की अवधारणा उत्पन्न हुई। वे लिखते हैं कि “कारण क्या थे मार्क्सवादी और उत्तर मार्क्सवादी लेखक स्वयं को तिलक-सावरकरवाद की पृष्ठभूमि से अलग नहीं कर पा रहे थे? नतीजा था कि प्रगतिशील और आधुनिकतावादी दोनों पक्ष राष्ट्रीयता में जड़ें तलाशने लगे। सुविधा के लिए मैं हिंदी साहित्य का उदाहरण देना चाहूंगा। यहां राम विलास शर्मा अपनी राष्ट्रीयता की तलाश में 1857और नवजागरण के संधान में लग जाते हैं, दूसरी ओर अज्ञेय और निर्मल वर्मा क्रमशः जय जानकी जीवन यात्रा और कुंभ मेले में स्वयं को तलाशने लगते हैं। वास्तविकता यह है कि इन दोनों पक्षों में मौलिक एकता है और इनकी पृष्ठभूमि एक है।” इस खंड की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसमें अनेक विचारकों तथा लेखकों के साहित्यिक अवदानों पर महत्वपूर्ण चर्चा भी की गई है। चाहे वह विश्वविख्यात विचारक बर्ट्रेंड रसेल हों, बौद्ध विचारक जगदीश कश्यप, कहानीकार तथा उपन्यासकार रेणु या श्रीलाल शुक्ल हों, इन सबका बहुत सकारात्मक मूल्यांकन किया है, जो प्रेमकुमार मणि की गहरी वैचारिक अंतर्दृष्टि को दिखलाता है।
बहुजन समाज, संस्कृति और साहित्य को समझने के लिए लेखक प्रेमकुमार मणि की इस पुस्तक को जरूर पढ़ा जाना चाहिए।
समीक्षित पुस्तक : चिंतन के जनसरोकार
लेखक : प्रेमकुमार मणि
प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली
मूल्य : 150 रुपए
(संपादन : नवल/अनिल)
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